ज़िंदगी डूब जाती है ....
ऐ बशर !
इतना ग़रूर अच्छा नहीं
ये दौलत का सुरूर अच्छा नहीं
साया तेरे करमों का
हर कदम तेरे साथ है
कुछ दूर तक दिन है
फिर लम्बी अंधेरी रात है
रातों में साये भी रूठ जाते हैं
दिन के करम
तमाम शब सताते हैं
शब की तारीकियों में
अहम के पैराहन
जिस्म से उतर जाते हैं
ज़न्नत और दोज़ख
सब सामने आ जाते हैं
बशर ख़ाके सुपुर्द हो जाता है
लाख चाहता है
फिर लौट नहीं पाता है
फिर न कोई रहबर होता है
न रहज़न होता है
न सहर होती है
न शाम होती है
बस दूर तलक
इक बेशजर
तपती राह होती है
ज़मीं का बशर
ख़ुदा के पास होता है
ख़ुदा के दरबार में
करमों का हिसाब होता है
छल,कपट,अहम के साये
साथ छोड़ देते हैं
ज़न्नत के दरवाजे
मुंह मोड़ लेते हैं
बशर की रूह
अपने करम से
शरमसार होती है
करम की दहलीज़ पे
दोज़ख की सहर होती है
ज़िंदगी की *साहिरी टूट जाती है
ग़रूर के गिलास में
ज़िंदगी डूब जाती है
(*साहिरी=जादूगरी,तिलिस्म)
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय vijay nikore साहिब प्रस्तुति पर आपकी स्नेहाशीष का दिल से आभार।
आदरणीय आशुतोष मिश्रा जी रचना को मान देने का तहे दिल से शुक्रिया।
//शब की तारीकियों में
अहम के पैराहन
जिस्म से उतर जाते हैं
ज़न्नत और दोज़ख
सब सामने आ जाते हैं //....
संदेशपर्क रचना अच्छी लगी। हार्दिक बधाई।
आदरणीय शुशील जी ..इस सदेश देती जागरूक करती रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
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