दर्द मेरी कविता में नहीं है ... दर्द मेरी कविता है।
दर्द के भाव में बहाव है, केवल बहाव, .. कोई तट नहीं है, कोई हाशिया नहीं है जो उसकी रुकावट बने।
पत्तों से बारिश की बूँदों को टपकते देख यह आलेख कुछ वैसे ही अचानक जन्मा जैसे मेरी प्रत्येक कविता का जन्म अचानक हुआ है। कोई खयाल, कोई भाव, कोई दर्द दिल को दहला देता है, और भीतर कहीं गहरे में कविता की पंक्तियाँ उतर आती हैं।
दर्द एक नहीं होता, और प्राय: अकेला नहीं आता। समय-असमय हम नए, “और” नए, दर्द झोली में समेटते दर्द का सैलाब अनुभव करते हैं। वह सभी नए और पुराने दर्द मिल कर ‘’ एक ‘’ बहुत बड़ा दर्द बन जाते हैं ... सागर के समान ... दर्द का सागर। सैलाब आता है और एक नई कविता के बीज बो जाता है।
वह मन:स्थिति जब बाहर कितना भी जशन हो और हम भीतर ही भीतर दर्द के सैलाब को अनुभव कर रहे हों, वह पल-विशेष नाजायस नहीं होते। कवि के लिए, कलाकार के लिए, वह वरदान होते हैं। दर्द मेरे काव्य-कर्म की प्रेरणा है, एतएव मेरे मन में इस दर्द के स्थाइत्व पर या इसकी सार्थकता पर कोई प्रश्न नहीं है।
किसी भी कवि की रचनाओं के माध्यम उसके समस्त व्यक्तित्व को जानना और उसकी काव्यानुभूति के केन्द्र तक पहुँचना कठिन है। यह इसलिए कि किसी भी व्यक्तित्व के विविध कोण होते हैं, अत: उसको पूर्णतया जानने के लिए हम स्वयं को उसकी कविताओं से सीमित नहीं कर सकते। इस संदर्भ में यह कहूँगा कि दर्द मेरी कविताओं में जीवित है, पर इसका अभिप्राय यह कदाचित नहीं कि मैं सर्वदा उदास रहता हूँ। सच यह है कि मैं हँसता हूँ, बहुत हँसाता हूँ, परन्तु अपने निजी पलों में दर्द को अपने बहुत पास पाता हूँ, और तब भावनाओं का गुबार मुझको सराबोर कर मेरी कविताओं में उतर आता है।
सुख और दुख ... मेरे लिए यह दोनों भगवान की लीला हैं। अत: यह दर्द, यह भावनाएँ और उनसे उपजी कविताएँ भी भगवान की लीला हैं। इसीलिए कोई भी कविता लिखने के पश्चात मुझको लगता है कि मानों वह रचना मेरी अपनी न हो, कि जैसे किसी दिव्य शक्ति ने मेरा हाथ पकड़ कर मेरी कलम से वह कविता लिख दी हो, और मैं अपनी हर कविता को श्रद्धापूर्वक अपने पूज्य इष्ट को स्मर्पित कर देता हूँ। उस पल की संतुष्टि मेरे भीतर बहते दर्द को सौंदर्य प्रदान करती है, और मैं भगवान के प्रति असीम आभार अनुभव करता हूँ।
मेरी लिए सुख और दुख दोनो ही अनिवार्य हैं, मेरे जीवित होने का प्रमाण हैं, कुछ वैसे ही जैसे मैं अपनी कविताओं में जी रहा हूँ।
कविता लिखना मेरे लिए सहज रहा है, परन्तु किसी भी कविता को वांछित गंतव्य तक पहुँचाना कठिन रहा है। यह इसलिए कि भाव उमड़ते ही कविता मानो स्वयं लिख-लिख जाती है, परन्तु वह मुझको संतुष्टि नहीं देती … रह-रह कर मुझको परेशान किए रहती है, मेरे भीतर खलबली मचाए रहती है। कोई शब्द, कोई भावाभिव्यक्ति, कोई बिम्ब, कोई प्रतीक मन में खटकते रहते हैं, और मैं लगातार रचना में परिवर्तन लाता रहता हूँ। एक बार, दो बार, तीन बार ... यह सिलसिला चलता रहता है, मन में कुछ खटकता रहता है।
मैं कोई भी रचना तत्वता अपनी संतुष्टि के लिए ही लिखता हूँ। मेरे लिए उसका सूक्षम परीक्षण अत्यावश्यक है। भाव-दशा का धरातल, यथार्थ-बोध, रचना-प्रक्रिया का विशिष्ट क्षण तथा उस पल भीतर से उठती हुई चिन्ताधारा, चुनिन्दा शब्द, बिम्ब और प्रतीक .... इन सभी में सहक्रियात्मक समन्वय अनिवार्य है, अत: लक्ष्य-पूर्ति के लिए मुझको परीक्षण की सीढ़ी बहुत ऊँची रखनी होती है।
मानव-संबंध मेरे लिए अभिनय नहीं हैं, जीवन की वास्तविक्ता हैं। अत: किसी भी संबंध में स्वयं को सरल और पारदर्शी रखना, मेरे शब्दों और व्यवहार में सामन्जस्य होना मेरी मजबूरी हैं। खेद है कि यही महत्वपूर्ण तत्व आजकल संबंधों में मिलने दुर्लभ हो गए हैं। बिना स्वार्थ के, स्नेह केवल स्नेह के लिए, सच्चाई केवल सच्चाई के लिए, शुद्धता मात्र शुद्धता के लिए; इस उक्ति के पालन को संबंधों में सर्वोपरि पाना वर्तमान में कठिन हो गया है। मेरी रचनाएँ प्राय: दिन-प्रतिदिन के ऐसे ही अनुभवों से उठी विडम्बनाओं और विसंगतियों से प्रेरित हैं। मानव-संबंधों की शिथिलता, उनका उतार-चढ़ाव, बदलाव, और इन सभी से उपजी भावना-प्रधान मन:स्थिति से बहता दर्द ... यह मेरी कविता बन जाते हैं, परन्तु किसी भी व्यव्हार के कारण मानव की मानवता में मेरा विश्वास नहीं टूटा, अपितु इस दर्द की अंतरंग अनुभूति और अभिव्यक्ति भगवान में अटूट विश्वास लिए मुझको परोक्ष से अपरोक्ष के सम्मुख साक्षात ले जाती है। किसी भी अनुभव के पार हर किसी की चेतना में मैं सौन्दर्य ही देखता हूँ।
कई रिश्तों से विरह, अवसाद, पीड़ा, व्यथा तथा उतपीड़न की कठिन अनुभूति के कारण मेरा काव्य-व्यक्तित्व मानव संबंधों की सच्चाई की शाश्वत खोज है। वह अंतिम सच्चाई क्या है ? यह अभी भी मुझको ज्ञात नहीं। मैं यह अंतिम सच्चाई न ही जानूँ तो अच्छा है, क्यूँकि इस अद्भुत सच्चाई को जानना किसी जिज्ञासा का अंत होगा, मेरे भीतर गहरे किसी अपूर्णता का अंत होगा।
इसी सच्चाई की खोज में मैं मानव-प्रकृति में सौन्दर्यानुभति अनुभव करता हूँ, भगवान को पूजता हूँ, और अह्म को मिट्टी में मिलाने का अविरल प्रयास करता हूँ, ताकि मेरा बच्चे-सा सरल मन सरल ही रहे, और यह सरलता प्रभाव-वादी बिम्ब, प्रतीक, और संवेदनशील भावनाओं के माध्यम मेरी कविताओं में बहती रहे।
कुछ वर्षों से मेरी मूल मनोवृति एक एब्सट्रैक्ट चित्रकार-सी हो रही है, और यह दृष्टि मेरी रचनाओं में दिख रही है, फिर भी उनमें निहित तरल, कोमल और पारदर्शी भाव-प्रसंग मेरे शिशु मन की सरलता के द्दोतक हैं। मेरा प्रयास रहता है कि मेरी किसी भी रचना में भाव कोमल हों, संवेदनशील हों; लय, शब्दावली, बिम्ब और प्रतीक असामान्य हों, ताकि वह पाठक से पहले मुझको ही अश्चर्य दे सकें, कविता को अनोखी ताज़गी दे सकें।
अवसाद-दशा में मेरे “भीतर” ‘शून्य’ और ‘कुछ नही’ की भाव-दशा, और “बाहर” ‘गति’ और ‘प्रतिगति’ विरोधाभास उत्पन्न करते हैं, परन्तु मैं अपनी काव्य-यात्रा में इस “भीतर” और “बाहर” में तारतम्य लाने का पर्यत्न नहीं करता, क्यूँकि यह विसंगती ही मुझको और अच्छा लिखने को प्रेरित करती है। अश्चर्य यह है कि इसके बिलकुल विपरीत दैनिक जीवन में भगवान में अटल विश्वास और उनकी मुझमें अटूट उपस्थिति के कारण मैं असीम पूर्णता अनुभव करता हूँ। यह इसलिए कि मैं हर आत्मा में भगवान का सौन्दर्य अनुभव करता हूँ, क्यूँकि हर आत्मा वास्तव में शुद्ध है, पूर्ण है, परमात्मा है।
मेरे “भीतर” यह असामान्य पूर्णता का अनुभव कविता-सर्जन के बाद उपरोक्त विरोधाभास की क्षति कर देता है, और उस समय मेरी काव्य-यात्रा और जीवन-यात्रा में समन्वय आ जाता है।
विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
यह आपकी सदाशयता है, आदरणीय विजय जी. आपके आलेख की अंतर्धारा का बहाव ही मुझसे ऐसी टिप्पणियों के लिए उकसाता है.
सादर
आज मैंने अपनी पुरानी पोस्ट में जाना शूरू किया तो जाना कि मुझसे संयोगवश आपकी इस सुविचारित प्रतिक्रिया के लिए आभार देना रह गया था... और इसके लिए मैं बहुत ही शर्मिन्दा हूँ। आपकी अपनी गहन सोच, साहित्य के प्रति आपकी लगन और आपका अनूठा योगदान ... आपकी रचनाएँ और आपकी प्रतिक्रियाएँ .. दोनों ही मेरी प्ररणा हैँ।
आपका हृदयतल से आभार, आदरणीय भाई, सौरभ जी।
रचनाधर्मिता वस्तुतः समष्टिजन्य अनुभूतियों की व्यष्टिजन्य अभिव्यक्ति है. एक ही तरह की प्रतीत होती भावदशा की शाब्दिक अनुभूति रचनाकार की क्षमता में भिन्नता के अलावा भी भिन्न हुआ करती है. इन अर्थों में यह देखना रोचक होता है कि एक ही अनुभूति एक ही रचनाकार के द्वारा कालांतर में नितांत भिन्न आवृतियों के साथ अभिव्यक्त होती है.
आदरणीय विजय निकोर साहब, आपकी रचनात्मक संवेदनशीलता और आत्मीय संलग्नता के हम सभी बड़े साक्षी रहे हैं. आपकी रचनाओं का कैनवास और उनकी संप्रेषणीयता का फलक बहुत ही बड़ा हुआ करता है. एक पाठक तौर पर हम सभी अपने-अपने भावों का विद्यमान ढूँढते हैं. विशेषकर मैं आपकी रचनाओं को पंक्ति प्रति पंक्ति पढ़ने के बाद देर तक गुनता हूँ और अपने अनुसार हुए अनुभवों को शाब्दिक कर देता हूँ. हालाँकि कई बार वह एक औसत पाठकीय प्रतिक्रिया प्रतीत होती हो.
अपनी रचनाधर्मिता के पहलुओं और उनके कई सतहों को उजागर करना सहज-सरल नहीं है. वह भी उन पाठकों के बीच जिनमें अधिकांश रचनाकर्म की प्रारम्भिक सीढ़ियों पर ही हैं. यह मंच ही ऐसा है ! लेकिन यह भी सत्य है, कि आपकी प्रस्तुत शाब्दिकता ऐसे रचनाकारों के साथ-साथ सापेक्षतः अनुभवी हो चले रचनाकारों को भी रचनाकर्म की पृष्ठभूमि को बूझ सकने के सूत्र उपलब्ध करायेगी.
आपकी संवेदना का यों मुखर होना रोमांचित कर गया, आदरणीय. इस प्रस्तुति और साझा के लिए सादर धन्यवाद
शुभेच्छाएँ
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