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इसमें हमारा यथार्थ है,
जो बची खुची आक्सीज़न में,
सांस लेता है,
और इसमें है कल्पनाओं का भण्डार,
जो आँख खोले है,
पर बीच बीच सोता है;
इसमें ही भावनाओं का अम्बार है,
थोड़ी हंसी है,
थोड़े हैं आंसू,
एक चहकता परिवार है;
इसमें ही मन है,
चाहतों का दर्पण है,
जिसमे शक्ल नहीं दीखती,
पर इनपे सब अर्पण है...
इसमें हमारा कल है, आज है,
और कल का मनन है,
और इसमें हम कितना ही झगड़ लें,
इसमें ही अमन है,
यूँ तो ये बहुत छोटा है,
पर इसमें कितना कुछ भरा है,
ये शायद जादुई है,
क्योंकि सच्चा है, खरा है,
ये किसकी माया है,
ये कैसे रचाया है,
कि इतने छोटे से डिब्बे में,
जीवन के हर पहलू की,
लचकती एक डाली है;
और हम कितना भी भर लें,
ये डब्बा,
फिर भी खाली है.............




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Comment

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Comment by neeraj tripathi on June 5, 2011 at 8:34pm
शुक्रिया डॉ संजय जी
Comment by Dr. Sanjay dani on June 5, 2011 at 3:56pm
यथार्थ की एक अलग नज़रिये से अभिव्यक्ति के लिये मुबारकबाद्।
Comment by neeraj tripathi on June 4, 2011 at 3:06pm
योगराज जी एवं बागी जी...आप दोनों का आभार

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on June 4, 2011 at 12:03pm
जीवन को इस नज़र से देखने का यह प्रयास बहुत सुन्दर लगा नीरज त्रिपाठी जी - साधुवाद स्वीकार करें !

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on June 4, 2011 at 9:01am

इतने छोटे से डिब्बे में,
जीवन के हर पहलू की,
लचकती एक डाली है;
और हम कितना भी भर लें,
ये डब्बा,
फिर भी खाली है.............

 

वाह वाह, बहुत खूब भाई नीरज जी, बहुत ही सार्थक बात कह दी है आपने इन अंतिम पक्तियों में , पूरी रचना बहुत ही सुंदर बन पड़ी है , बहुत बहुत बधाई इस शानदार अभिव्यक्ति पर | 

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