तुम्हारे दर पे वो सारा सामान मेरा था,
गली के दायें से चौथा मकान मेरा था,
और तुम जिसे कहते हो पाक़ मुल्क हुज़ूर,
पुराने वक़्त में हिन्दुस्तान मेरा था;
आज तुम मानवता की सारी मिसाल भूल गए,
पडोसी होकर के अपनी दीवार भूल गए,
हमें देखकर नुक्लिअर होना याद रहा,
हम सब का एक ही 'परवरदिगार' भूल गए;
Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:25am —
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फुहारों में रिमझिम बरसती,
या पेड़ों के,
मादक पत्तों से,
रिस रिस कर गिरती,
ये पानी की बूँदें हैं,
इनका मौसम से,
अपना सरोकार होता है,
और ज़रा गौर करेंगे तो,
हर बूँद का,
अपना आकार होता है...
बादलों से निकलती हैं,
तो बारिश बन जाती हैं,
अनुपात में गिरें तो जीवन,
वरना बहुत कहर ढाती हैं,
अधिक होने पर,
सैलाब आता है,
और हम आप कितना भी कर लें,
धरती का दर्द,
इन्हें सोख नहीं पाता है,
और यदि ये न बरसें,…
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Added by neeraj tripathi on July 17, 2011 at 10:24am —
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तुम जो कहते थे दोस्ती है,
हमने सोचा था आजमाएंगे;
तुम हमेशा आसरा दिखाते थे,
सोचा हम भी आशियाँ लुटाएंगे;
तुम किनारे पर मगर कैसे पहुंचे,
हमने सोचा था, दोनों डूब जायेंगे;
तुम जिस गली में रहते हो,
हम वहां अब गश्त न लगायेंगे;
तुम्हारा दामन पाक रहे हरदम,
हम गुनाहों का खाम्याज़ा पायेंगे;
तुमने तोड़े थे जो पेड़ों के पत्ते,
सूख गए हैं, हम उन्हें जलाएंगे;
तुम्हारी जिंदगी, जिंदगी रहे 'नीरज',
अज़ल से पर हम भी न…
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Added by neeraj tripathi on June 18, 2011 at 12:59pm —
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आज उमस में शरीर से कुछ यूँ पसीना बहता है,
जैसे तेरी आँखों से ऐतबार बहा करता था;
मुहं से कुछ न बोलते थे लफ़्ज़ों से लेकिन,
प्यार का इक हल्का सा इकरार बहा करता था;
आज बीती बातों की बूढी कहानी हो गयी है,
लफ़्ज़ों की मासूमियत भी लफ़्ज़ों में ही खो गयी है;
ये पसीना बहते बहते आज मुझसे कह रहा है,
तुम जिसे समझे मोहब्बत, मेहरबानी हो गयी है;
हमने कितना कुछ कहा था, तुमने कितना कुछ सुना था,
फिर भी क्यों पिछला दिखाने, तुमने लम्हा वो चुना था;
उँगलियों…
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Added by neeraj tripathi on June 14, 2011 at 11:15am —
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इसमें हमारा यथार्थ है,
जो बची खुची आक्सीज़न में,
सांस लेता है,
और इसमें है कल्पनाओं का भण्डार,
जो आँख खोले है,
पर बीच बीच सोता है;
इसमें ही भावनाओं का अम्बार है,
थोड़ी हंसी है,
थोड़े हैं आंसू,
एक चहकता परिवार है;
इसमें ही मन है,
चाहतों का दर्पण है,
जिसमे शक्ल नहीं दीखती,
पर इनपे सब अर्पण है...
इसमें हमारा कल है, आज है,
और कल का मनन है,
और इसमें हम कितना ही झगड़ लें,
इसमें ही अमन है,
यूँ तो ये बहुत छोटा है,
पर इसमें…
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Added by neeraj tripathi on June 2, 2011 at 11:48am —
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इन गर्मियों में,
अकस्मात् छाये बादल,
कहते हैं की,
हम नहीं बरसेंगे...
तो क्या हम यूँ ही,
मोतियों को तरसेंगे....
पर मैं जानता हूँ,
की आज नहीं तो कल,
ये बरसेंगे...
क्योंकि मेरे पास,
पानियों का अभाव है,
और बरसना तो,
बादलों का स्वभाव है...
आँख मिचौली खेलती धूप,
कहती है मुझे पकड़ो,
और हर बार,
छिटक कर दूर चली जाती है,
और मेरे मायूस होने पर,
फिर पास चली आती है...
मैं जानता हूँ की,
वो मुझे चिढ़ाती है,
उसके और मेरे…
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Added by neeraj tripathi on May 24, 2011 at 12:00pm —
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कभी कभी अपनी आवाज़,
किसी अनदेखे पहाड़ से,
टकरा कर,
वापस लौट आती है,
कभी कभी,
सुबह के इंतज़ार में,
रात के बाद,
फिर रात ही आती है,
जिंदगी तब,
बेईमान लगती है,
और बिलकुल नहीं भाती है;
कभी लाख कोशिशों के बावजूद,
एक राही छूट जाता है,
बहुत सँभालने पर भी,
कांच का गिलास,
टूट जाता है,
कभी अरमानों का पुलिंदा,
एक मन में,
सिमट नहीं पाता है,
और कितना भी,
खाद दो, पानी दो,
बगीचे का एक पौधा,
रोज़ सूख जाता है;
और ऐसे…
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Added by neeraj tripathi on May 19, 2011 at 6:48pm —
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Added by neeraj tripathi on April 25, 2011 at 3:30pm —
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सब कुछ शांत है...मौन | दो छूहों पर टिकी छप्पर वाली दालान में रजाई ओढ़े हुए मैं इस सन्नाटे की आवाज़ सुनने की कोशिश करता हूँ | इस रजाई की रुई एक तरफ को खिसक गयी है; लिहाज़ा जिस तरफ रुई कम है उस तरफ से सिहरन बढ़ जाती है | हल्का सा सर बाहर निकालता हूँ तो तैरते हुए बादल दीखते हैं; कोहरा है ये जो रिस रहा है धरती की छाती पर | छूहे की खूँटी पर टंगी लालटेन अब भी जल रही है...हौले हौले | अम्मा देखेंगी तो गुस्सा होंगी; मिटटी का तेल जो नहीं मिल पाता है गाँव में....दो घंटों तक खड़ा रहा था कल, तब जाकर तीन लीटर…
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Added by neeraj tripathi on April 21, 2011 at 1:00pm —
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बहुत लिख चुका मरण यहाँ मैं, अब मैं अमृतपान लिखूंगा,
जाने क्या समझे थे मुझको, अब अपनी पहचान लिखूंगा ;
क्यों शोक करें, उल्लास भी जब इतने सस्ते में मिलता है,
एक देह की दुनिया है ये, फिर तू क्यों आहें भरता है,
सूरज रोज़ सुबह उगता और सांझ ढले ढल जाता है,
पर उसको जो कुछ करना वह इसी बीच कर जाता है,
संकल्पों के अडिग ह्रदय पर,सावित्री का मान लिखूंगा,
मृत्यु जहाँ आकर के लौटी, ऐसा सत्यवान लिखूंगा ;
क्या मुझसे तुम लिए कभी और क्या मुझको दे जाओगे,
पर जब भी…
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Added by neeraj tripathi on April 19, 2011 at 12:03pm —
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किसी को कानों से सुनना,
और उस पर अमल कर जाना,
क्या ज़रूरी है !!
क्योंकि पूरे चाँद में भी,
रात की सच्चाई,
ज़रा अधूरी है...
मुझे महाभारत का,
वह कथन याद आया,
कि "अश्वत्थामा मारा गया "
ग़लतफ़हमी का शिकार,
वह कथन
द्रोण को खा गया
और हकीकत जानने से पहले ही,
एक महारथी,
काल को भा गया ,
कभी कभी भरोसा करना,
हमारी आवश्यकता नहीं,
मजबूरी है;
और गलतफहमियों के लिए भी,
थोड़ी पहचान ज़रूरी है
Added by neeraj tripathi on April 16, 2011 at 4:46pm —
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कोई भरी जवानी में भी,
दिल को नहीं भाता है,
कोई अधेड़ कह कर भी,
उमंगें छोड़ जाता है,
उम्र, खुद ही,
अपने मायने तलाश रही है,
अधेड़ कह कर,
अपने ही दिलों में,
तसल्ली के राग,
गा रही है,
ये संस्कार हैं हमारे,
या सामाजिक बंधन,
कि अपने ही कान,
अपने ही दिल को,
नहीं सुनते...
पर लाख कोशिशों,
के बावजूद,
क्या आप अब भी,
सपने नहीं बुनते.....
और जैसा मैंने पहले भी,
कहा है,
पतझड़ के आने…
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Added by neeraj tripathi on April 7, 2011 at 11:35am —
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माता पिता की ज़ख्मों वाली पीठ,
को न सहलाना,
परिवार की मुस्कुराहटों में,
न मुस्काना,
दोस्तों की खामोशियों में,
चुप रह जाना,
अपनों के दिलों में,
न झाँक पाना,
हमारी मजबूरियां नहीं,
कमजोरियां हैं,
जो अक्सर अपने,
बंधनों के,
एक धागे को,
तोड़ जाती हैं,
भावनात्मक दरारें हैं ये,
नहीं भरो तो,
निशान छोड़ जाती हैं .
किसी शीतल सुबह,
अपनी हथेलियों में,
ओस की बूँदें भरो,
अपने अहं को कर किनारे,
उसमे मिलाओ,
प्रेम…
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Added by neeraj tripathi on March 26, 2011 at 3:25pm —
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क्यों बैठ गए तुम थककर,
ओढ़ विफलताओं की चादर;
उठो, नतीजे और भी हैं.
इक घोंसला ही उजड़ा है,
चमन पूरा ही बाकी है;
जोड़ो, कि तिनके और भी हैं.
नदी के इक किनारे पर,
जो नाविक लौट न आया;
ढूंढो, किनारे और भी हैं.
तुम्हारे आँगन में तारा,
नहीं टूटा तो रोते हो;
जागो, सितारे और भी हैं.
Added by neeraj tripathi on March 11, 2011 at 11:30am —
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कल ही था कि जब छिपाकर, फेंक देते थे हम दातुन,
नीम क़ी कड़वी तबीयत, अब दवाई हो गयी है;
कल ही था जब जेठ क़ी, दुपहरी में हम गुल खिलाते,
गर्मियों क़ी दोपहर, अब बेईमानी हो गयी है;
आमों क़ी वे अम्बियाँ, थे हम कल जिनको चुराते,
बिकती हैं बाज़ार में वो, मेहरबानी हो गयीं हैं;
और ईखों की बदौलत, राब थे हम कल बनाते,
ताज़े गुड़ की भेलियाँ अब इक कहानी हो गयीं हैं.
वक़्त कुछ बदला है ऐसे,
जैसे फ़िल्मी गीतों में अब, नृत्य के अंदाज़ बदले;
कल तक लिखे जिन खतों…
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Added by neeraj tripathi on March 7, 2011 at 5:48pm —
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सोचता था कि सितारों, पर ज़मीं को साफ़ करके,
और चंदा को टिकाकर, मैं गगन के आसरे से,
कुछ चमन खाली बनाऊं, प्रेम कि अभिव्यक्ति खातिर.
चाहता था खोद डालूं , वृक्ष के भूतल किनारे,
कर दूँ समतल इस धरा के, मस्त से परबत ये सारे,
सोख कर सारा समंदर, और नदियों की रवानी,
कुछ धरा खाली सजाऊं, प्रेम की अभिव्यक्ति खातिर.
किन्तु चंदा और तारे, वृक्ष औ पर्वत हमारे,
सारी नदियाँ सागर सारे, ये दिशायें ये किनारे,
घोल लेते हैं हमें, हैं प्रेम की अभिव्यक्ति सारे.…
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Added by neeraj tripathi on March 4, 2011 at 2:25pm —
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वक़्त की अठखेलियों से फिर जनाज़े हाय निकले;
एक पिंजरे में कुरेदा तो अनोखे भाव निकले;
कितने अरमान गूंजते थे जुगनुओं से रास्तों में;
सुर्ख थे नींदों में सारे जब जगा तो स्याह निकले.
जब जलज की पंखुड़ी पर अश्रु थामे तुम खड़े थे;
दुःख तो थोड़े थे हमारे किन्तु तुम कितने बड़े थे;
नीर था चारों तरफ फिर नाव क्यों चलती नहीं थी;
हम किनारे पर डुबे थे तुम तो दरिया पार निकले.
सोचता हूँ इस…
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Added by neeraj tripathi on March 2, 2011 at 11:12am —
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रगों में गम नहीं होता, ये चेहरा नम नहीं होता;
तड़पती झील के आँचल में पानी कम नहीं होता;
जो बजती रागिनी थी उन हवाओं कि दिशाओं से;
अभी भी सत्य ही होता, महज़ ये भ्रम नहीं होता;
ज़रा सा उस समय मुहं मोड़ कर जो तुम नहीं मुड़ते;
विवशताओं की घाटी में कभी भी तम नहीं होता.
Added by neeraj tripathi on February 23, 2011 at 3:40pm —
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कभी पर्वत पे ढूँढा था, कभी मधुबन में ढूँढा था;
शहर से दूर जाकर के घटा औ घन में ढूँढा था;
अमीरों की हवेली में, तुम्हे निर्धन में ढूँढा था;
दिवस की आंच में भी और रात के तम में ढूँढा था;
कहाँ तुम खो गए थे प्रिय तुम्हे हर जन में ढूँढा था.
मुझे प्रिय ढूँढने में हाय इतनी क्यों मशक्कत की;
मैं खोया ही कहाँ था जो ज़माने भर में खोजे तुम;
जगह की दूरियों को नापने में क्यों भटकते थे;
सदा से था तुम्हारे पास…
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Added by neeraj tripathi on February 19, 2011 at 12:52pm —
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इक और गुज़रा दिन समेटा याद में इसको;
...दफ़न हो जाएँगी अब ये मेरे मन कि दराजों में;
जो आये वक़्त परिचित तब मिलेगी रूह फिर इनको;
नहीं तो सिलवटें पड़ती रहेंगी इन मजारों में.
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वेदना कुछ भी नहीं, तब ह्रदय इतना मौन क्यों है;
क्यों हम अब भी स्वप्नते हैं, स्मृतियाँ भूली भुलाई ;
आस भी है, प्यास भी है, रौशनी कुछ ख़ास भी है;
मन हैं इतने पास अपने, हाथ लेकिन दूर क्यों…
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Added by neeraj tripathi on February 15, 2011 at 4:07pm —
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