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...जब हर ओर विसंगतियाँ हैं (गीत)

कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें 
जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

क़समों-वादों के पत्तों पर सजे हुए हर ओर जुए हैं 
सतहों तक स्पर्श रुके बस, कोर किसी ने कहाँ छुए हैं 
कोशिश बिन रेशम से नाज़ुक बन्धन अब कैसे सँवरेंगे 
जीवन की आपाधापी में रिश्ते जब बेमोल हुए हैं

उफ़! विकल्प हैं अपनों के भी 
बाँचे कौन! कहाँ कमियाँ हैं ?
कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

मानवता का घूँघट ओढ़े दानव बैठे घात लगाए
नोच न लें नन्ही परियाँ फिर, पग-पग उनसे कौन बचाए 
चाहे सड़कों पर हम उतरे, चाहे विधि के आश्वासन हैं 
पर जब तक हालात न बदलें, कैसे जी लें बिन घबराए

कौन भला देगा अब उत्तर
प्रश्नातीत मनःस्थितियाँ हैं ?
कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

इक दूजे के नाज़ुक सपनों की आखिर परवाह किसे है 
साथी की ख़ातिर झुकना भी ख़ुशियाँ देगा, थाह किसे है 
सिर्फ खनक मुद्रा की सुनने का जब चलन चले- ऐसे में 
सर्व समर्पित अपना कर दे, इतनी मीठी चाह किसे है

देह कहीं और रूह कहीं है 
सच कहतीं गुमसुम अखियाँ हैं ।
कहाँ भला ख़ुशियों को ढूँढें जब हर ओर विसंगतियाँ हैं...

मौलिक और अप्रकाशित 

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