भावों के सागर को जब-जब
अमृत घट बंधन में बाँधा-
क्षणभंगुर सा स्वप्न सजीला, छन से टूटा...बिखर गया
तड़प-तड़प प्राणों ने ढूँढा, लेकिन जाने किधर गया ?
भीतर-भीतर अंतःमन में जन्मे जाने कितने सपने,
लिए रवानी एहसासों की लगे सदा जो बिल्कुल अपने,
मदहोशी में खोया-खोया अपने ही सपनों में जीता,
अपने ही मद में डूबा मन अपनी ही मदिरा को पीता,
घट फूटा तंद्रा भी टूटी,
घट की हर आकृति भी झूठी-
सुध-बुध छलता मनहर हर घट, रीता देखा...…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 14, 2022 at 11:55pm — 3 Comments
सपनों में भावों के ताने-बाने बुन-बुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
बोलो यदि ऐसा होता तो फिर क्या होता ?... और मौन हो जाता था मैं !
उसकी एक हँसी पर जैसे
अपने दोनों पंख पसारे,
ढेरों हंस उड़ा करते थे
बहती निर्मल नदी किनारे,
सतरंगी आँखों में बाँधे पूरा फाल्गुन
अक्सर मुझसे पूछा करती...
अगर न मिल पाते हम-तुम तो फिर क्या होता ?... और कहीं खो जाता था मैं !
मन-जीवन की सारी उलझन
यहाँ-वहाँ की अनगिन…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 28, 2022 at 2:30am — 7 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on March 5, 2022 at 12:00pm — 2 Comments
रात दिन तुमको पुकारा,
किन्तु तुम अब तक न आए !
चित्र मेरी कल्पना के,
मूर्तियों में ढल न पाए !
चिर प्रतीक्षित आस के संग, प्यार अपना बाँट लूँगी ।
उम्र आधी कट गई है, उम्र आधी काट लूँगी !!
प्रेम तुमसे ही तुम्हारा,
किस तरह आखिर छिपाऊँ ?
और कह भी दूँ, कहो यह,
रीत फिर कैसे निभाऊं ?
गूँजते हो धड़कनों की,
थाप पर अनुनाद बन कर !
मौन मन की सिहरनों में,
घुल चुके आह्लाद बन कर…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 8, 2020 at 4:30pm — 6 Comments
प्रश्न मैं तुझ पर उठाऊँ, हूँ नहीं इतना पतित भी,
किन्तु जो प्रत्यक्ष है उस पर अचंभित हूँ, अकिंचन!
पूछ बैठा हूँ स्वयं के, बोध की अल्पज्ञता में,
बोल दे हे नाथ मेरे, क्या यही तेरा सृजन था?
जब दिखी मुस्कान तब-तब, आँसुओं का आचमन था।
आस के मोती हृदय की, सीप में किसने भरे थे?
कौन भावों की लहर में, घोल रंगों को गया था ?
धड़कनों की थाप पर, किसने किया मन एकतारा?
प्रीत की पहली छुअन को, पुण्य सम किसने किया था?
किन्तु क्षण के बाद…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 27, 2019 at 5:00pm — 2 Comments
प्रेम : विविध आयाम
प्रेम
ठहरा था
बन के ओस
तेरी पलकों पर...
उफ़ तेरी ज़िद
कि बन के झील
वो तुझे मिलता...
प्रेम
काल कोठरी के
मजबूत दरवाजों की
झिर्रियों से झांकती
सुबह की
पहली सुनहरी…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 13, 2019 at 2:00pm — 3 Comments
मैंने केसर-केसर मन से रची रंगोली,
मैंने रेशम-रेशम बंधनवार सजाए,
कुछ महके कुछ मीठे से पकवान बना लूँ-
तुम आओ तो उत्सव जैसा तुम्हे मना लूँ...
कंगूरों तक रुकी धूप से कर मनुहारें
हर कोना घर-आँगन का मैं रौशन कर लूँ,
माँग हवाओं से लाऊँ खुशबू के झौंके
सावन की आकुलता इन आँखों में भर लूँ,
नम कर लूँ मैं दिल का रूठा-रूठा…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on October 5, 2019 at 1:10am — 5 Comments
मेरे मन की शांत नदी में अविरल बहती भाव लहर हो
मेरे गीतों से निस्सृत अक्षर-अक्षर का गुंजित स्वर हो
मैं तुलसी तुम मेरा आँगन, मैं श्वासों का अर्पित वंदन,
साथी-सखा-स्वप्न सब तुम ही, सच कह दूँ- मेरे ईश्वर हो !
आतुर आँखें आस लगाए राह निहारें लेकिन प्रियतम
साँझ ढले और तुम ना आओ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
धुआँ-धुआँ बन कर खो जाओ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
आँखों ही आँखों में दर्पण चीख़ उठेगा तुमको खोकर
एक हरारत होगी दिल में संग…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 21, 2019 at 6:56pm — 2 Comments
पूछ रहा हूँ मैं उन सच्ची ध्वनियों से जो मौन ओढ़ कर
मुझमें गूँजा करतीं हैं जो संदल-संदल अर्थ छोड़ कर...
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...धुँआ-धुँआ बन कर खो जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
ऐ प्यासी धड़कन तू मेरी आस लगाए राह निहारे
मद्धम सी आहट सुनते ही मंत्रमुग्ध हो मुझे पुकारे
मैं तूफानी लहरों जैसा, तू तट के मंदिर में ज्योतित
क्यों आतुर है अपनाने को मझधारें तू छोड़ किनारे
कंदीलों की…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on July 6, 2019 at 2:26am — 5 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on May 9, 2019 at 6:00pm — 1 Comment
Added by Dr.Prachi Singh on May 2, 2019 at 10:00am — 6 Comments
गुनगुनी सी आहटों पर
खोल कर मन के झरोखे
रेशमी कुछ सिलवटों पर सो चुके सपने जगाऊँ..
इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..
साँझ की दीवानगी से कुछ महकते पल चुराकर
गुनगुनाती इक सुबह की जेब में रख दूँ छिपाकर
थाम कर जाते पलों का हाथ लिख दूँ इक कहानी
उस कहानी में लिखूँ बस साथ तेरा सब मिटाकर
हर छुपे एहसास को…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on December 25, 2018 at 11:12pm — 7 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on August 24, 2018 at 1:05am — 6 Comments
झूठ-सत्य के दो पलड़ों पर
टँगी हुई उम्मीदों बोलो-
कब तक झूलोगी ?
अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर
पाने की आवारा ज़िद में-
क्या-क्या भूलोगी ?
शब्दों की प्यासी बन कर तुम
चीख मौन की झुठलाती हो
बोलो आखिर क्यों ?
मनगढ़ मीठी बातें रखकर
खारापन बस तौल रही हो
इतनी शातिर क्यों…
Added by Dr.Prachi Singh on December 9, 2017 at 10:36am — 3 Comments
उसका बेहद अपनेपन से आना
नज़ाकत से छूना
अपनी सधी हुई उँगलियों से थामना
महसूस करना तपिश को
सुबह शाम जब चाहे...
दूर न रह पाने की
उसकी दीवानगी,
ये चाह कि उसके बिन पुकारे ही
सुन ली जाए उसकी हर उसकी धड़कन,
न न नहीं पसंद उसे अनावश्यक मिठास
न ही कृत्रिमता भरा कोई भी मीठापन
चाहे फीकी हो…
Added by Dr.Prachi Singh on November 1, 2017 at 2:00pm — 9 Comments
सहम कर सिहरने लगता है
धमनियों में दौड़ता रक्त,
काँपने लगती है रूह,
खिंचने लगतीं हैं सब नसें,
मुस्कुराहट कहीं दुबक जाती है,
हर इच्छा कहीं खो जाती है,…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on November 1, 2017 at 11:30am — 10 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on October 19, 2017 at 2:40pm — 8 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on October 17, 2017 at 1:07pm — 8 Comments
शुचित यज्ञ सी
मन प्राणों में घोल सुगन्धि,
आँगन में त्यौहार सरीखे मेरे पापा...
थाम अँगुलियाँ जिनकी
हर उलझी पगडण्डी लगी सरल सी,
ज़मी किरचियाँ व्यवहारों की
पिघल हृदय से बहीं तरल सी,
सबकी ख़ातिर बोए पग-पग
गुलमोहर और छाँटे कीकर,
सौंपी सबको ख़ुशियों की प्याली
ख़ुद पी हर व्यथा गरल सी,
फिर भी…
Added by Dr.Prachi Singh on October 10, 2017 at 9:30pm — 7 Comments
मुझे कुछ और करना है, तुम्हें कुछ और पाना है
मुझे इस ओर जाना है, तुम्हें उस ओर जाना है
कि अब मुमकिन नहीं लगता
कभी इक ठौर बैठें हम
हमें मंजिल बुलाती है, चलो अब अलविदा कह दें....
जहाँ संबोधनों के अर्थ भावों को न छू पाएं
वहाँ सपने कहो कैसे सहेजें और मुस्काएं ?
चलो उस राह चलते हैं जहाँ हों अर्थ बातों में
स्वरों में प्राण हो जिसके मुझे वो गीत…
Added by Dr.Prachi Singh on August 22, 2017 at 12:00pm — 12 Comments
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