शुचित यज्ञ सी
मन प्राणों में घोल सुगन्धि,
आँगन में त्यौहार सरीखे मेरे पापा...
थाम अँगुलियाँ जिनकी
हर उलझी पगडण्डी लगी सरल सी,
ज़मी किरचियाँ व्यवहारों की
पिघल हृदय से बहीं तरल सी,
सबकी ख़ातिर बोए पग-पग
गुलमोहर और छाँटे कीकर,
सौंपी सबको ख़ुशियों की प्याली
ख़ुद पी हर व्यथा गरल सी,
फिर भी आँखों में बाँधे
हर वक़्त सवेरा,
अम्बर के विस्तार सरीखे मेरे पापा....
गुड्डे-गुड़ियाँ, टिक-टिक घोड़े
और अनेकों परी कथाऐं,
सब में कितनी चतुराई से
पापा भरते थे शिक्षाऐं,
मेरे बिन बोले ही
मेरे अंतर्द्वंद्व पढ़ें जस के तस,
"ख़ुद को साधो सबसे पहले"
बात यही अक्सर समझाऐं,
मुझको दिए झरोखे
और खुले दरवाज़े ,
पर अभेद्य दीवार सरीखे मेरे पापा....
हर ग़लती हर नादानी की
बिन माँगे ही माफ़ी दे कर,
खोमोशी से हर चिंतन को
ले चलते हैं उचित डगर पर,
रीते हाथों में ना जाने
सपने कब गपचुप बोते हैं,
फिर सच्चाई से जीवन का
समझाते हैं अक्षर-अक्षर,
सर पर हाथ फेर
कर देते पावन अंतस,
ऐसी निर्मल धार सरीखे मेरे पापा....
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आपकी दोनों कविताएँ पढ़ गया, आदरणीया प्राची जी. भाव एक होते हुए भी दोनों कविताएँ प्रच्छन्न हैं.
इन भावमय प्रस्तुतियों के लिए हार्दिक बधाइयाँ .. बहुत खूब !
’करी’ का प्रयोग आप न किया करें. क्योंकि आप हिन्दी को एक भाषा के तौर पर अच्छे से जानती हैं. साथ ही, ’अनेकों’ का प्रयोग तो आप एकदम-से न किया करें, क्योंकि आप हिन्दी को एक भाषा के तौर बहुत अच्छे से जानती हैं.
सादर
बहुत सुंदर गीत आदरणीया | हार्दिक बधाई |
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