पूछ रहा हूँ मैं उन सच्ची ध्वनियों से जो मौन ओढ़ कर
मुझमें गूँजा करतीं हैं जो संदल-संदल अर्थ छोड़ कर...
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...धुँआ-धुँआ बन कर खो जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
ऐ प्यासी धड़कन तू मेरी आस लगाए राह निहारे
मद्धम सी आहट सुनते ही मंत्रमुग्ध हो मुझे पुकारे
मैं तूफानी लहरों जैसा, तू तट के मंदिर में ज्योतित
क्यों आतुर है अपनाने को मझधारें तू छोड़ किनारे
कंदीलों की ओट तले तुझको झिलमिल-झिलमिल जलना है
मैं मशाल हूँ सिद्धांतों की मुझे हवाओं से लड़ना है
...जाने किस पल मैं बुझ जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
तन्हा रातों में बहती जब एहसासों की स्वर-लहरी थी
सुख-दुख के पन्नों पर तब-तब उतरी याद बहुत गहरी थी
उन यादों की तस्वीरों से साँसें अब तक छलक रहीं हैं
जहाँ-जहाँ टूटे सपनों पर, आह सिसकती जा ठहरी थी
उँगलियों की एक छुअन से नम होते वादों के पन्नों
घर के कण-कण में गुपचुप सोते मेरी यादों के पन्नों
...अगर कभी ना तुम्हे जगाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
लिये सुनहरी कूची जिन सपनों में निश-दिन रंग भरता हूँ
सबसे बेहतर जिन्हें सँवारूँ पल-पल यत्न किया करता हूँ
फूल तितलियाँ जुगनू चाँद सितारे फीके जिनके आगे
जिनकी मुस्काँ पर जीता हूँ जिनकी मुस्काँ पर मरता हूँ
मेरे अक्स ढले सपने क्या खुद अपनी मंजिल पाएंगे
या नाज़ुक मोती मेरे बिन पल में टूट बिखर जाएंगे
...कभी उन्हें फिर छू ना पाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
~प्राची
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आद0 प्राची सिंह जी सादर अभिवादन। बेहतरीन गीत लिखा है आपने। बधाई स्वीकार कीजिए
मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह जी आदाब,बहुत सुंदर गीत रचा आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'जिनकी मुस्काँम पर जीता हूँ जिनकी मुस्काँ पर मरता हूँ'
इस पंक्ति में 'मुस्कान' को "मुस्काँ" करना उचित नहीं,इसके लिए जनाब अजय तिवारी जी का सुझाव उत्तम है,संज्ञान लें ।
मेरे अक्स ढले सपने क्या खुद अपनी मंजिल पाएंगे
या नाज़ुक मोती मेरे बिन पल में टूट बिखर जाएंगे
...कभी उन्हें फिर छू ना पाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ? ... बहुत खूब आदरणीया प्राची जी अंतर्मन के भावों , अंतर्द्वंदों का बेहद खूबसूरत चित्रण किया है आपने। दिल से बधाई स्वीकारें।
" कंदीलों की ओट तले तुझको झिलमिल-झिलमिल जलना है
मैं मशाल हूँ सिद्धांतों की मुझे हवाओं से लड़ना है
...जाने किस पल मैं बुझ जाऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा ?
...साँझ ढले और मैं ना आऊँ, ऐसा हो तो फिर क्या होगा"
बेहतरीन प्राची जी बधाई
आदरणीया प्राची जी,
फूल तितलियाँ जुगनू चाँद सितारे फीके जिनके आगे > जिनके आगे फीके जुगनू फूल-तितलियाँ चाँद-सितारे
जिनकी मुस्काँ पर जीता हूँ जिनकी मुस्काँ पर मरता हूँ > जिन मुस्कानोंं पर जीता हूँ जिन मुस्कानों पर मरता हूँ
ये एक तात्कालिक और अनाधिकारिक सुझाव है. क्योंकि गीत के तकनीकी मामलों में मेरी गति नहीं है.
हमेशा की तरह एक और अच्छे गीत के लिए हार्दिक बधाई.
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