सहम कर सिहरने लगता है
धमनियों में दौड़ता रक्त,
काँपने लगती है रूह,
खिंचने लगतीं हैं सब नसें,
मुस्कुराहट कहीं दुबक जाती है,
हर इच्छा कहीं खो जाती है,
मरघट सी स्तब्धता छा जाती है,
अचानक इतराना भूल मन दीनता की बेचारगी ओढ़ लेता है,
हज़ारों हज़ार टन का बोझ आ जाता है मस्तिष्क पर,
भूख प्यास सब मर जाती है,
स्वेच्छा से कुछ करने में उंगलियाँ काँपने लगती हैं,
घुटन ही घुटन पसर जाती है चारों ओर
जब वो आस-पास होता है...
अनजाना डर होता है
उसके कुछ भी बोल देने का,
कोई भी बेतुका सवाल खड़ा करने का,
होंठ घबराते हैं कोई भी शब्द बुदबुदाने से,
कान सिहरते हैं अपशब्दों की बौछार के डर से,
जिस्म डरता है अनचाहे स्पर्श के अंदेशे से,
नज़रें डरतीं हैं अबूझा तिरस्कार उसकी नज़रों में देखने से,
देह जड़ हो जाती है जहाँ की तहाँ,
नहीं रह जारी कुछ भी सोचने समझने की शक्ति
इंतज़ार होता है उसके चले जाने का...
कोई बहाना नहीं होता
उठ के खुद कहीं जाने का,
तब,यूँ ही...
बिन ज़रूरत...
अचानक वॉशरूम जाना अच्छा लगता है
बहुत अच्छा लगता है
क्योंकि
आइना जो होता है वहाँ
पहचानी से आँखों वाला,
जो समझता है मुझे
जो समझाता है मुझे
देता है दो पल को संबल,
समय देता है अस्तित्व को,
इतनी शक्ति बटोर पाने का
कि फिर कुछ देर मिटता वजूद
सामना कर सके
अचाही वीभत्सता का...
अब सजना-सँवरना नहीं भाता
न बाग़, न गली, न मोहल्ले में
न किसी उत्सव/आयोजन पर
न सखी, न बहन, न भाई, न माँ के घर
न सौदा लाने बाज़ार
न घूमने, न डिनर, न पिक्चर
अब कहीं जाना नहीं भाता
जैसे सुन्न पड़ी हों सब सम्वेदनाएँ..
नहीं बचती जीने की लेश मात्र भी चाह.....
....साँसे देह छोड़ना चाहती हैं,
....पर प्रार्थना यही,
हे ईश्वर!
ये बाती जिलाए रखना
इसकी आँच की गरमाइश में
मेरे बच्चों की अठखेलियाँ पलती हैं....
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
,बहुत सुंदर रचना
आदरणीय समर कबीर जी
आपकी नाराजगी बिलकुल सही है.... लेकन मैं वक्त दे पाने की स्थिति में नहीं हूँ अभी
बिलकुल ख़याल आता है , मंच ने जो दायित्व मुझे सौंपा है उसका निर्वहन न कर पाने पर आत्मग्लानि भी होती है.. पर मैं क्यों नहीं आ पाती ये निहायत ही व्यक्तिगत विषय है, जिसकी चर्चा मैं नहीं कर सकती
मेरा विनम्र निवेदन है, और हमेशा रहा भी है, कि मेरा दायित्व जो मंच को समय दे पाने में समर्थ है , योग्य है उसे दे दिया जाए... यही सही भी है...
सादर
आदरणीया प्राची जी बहुत दिनों बाद आपके शानदार गीतों के हटकर इस नए अंदाज से रूबरू होने का मौका मिला ..बहुत ही बढ़िया रचना है बिषम से बिषम परिस्थति में भी जिन्दगी को जीने की चाह का बखूबी वर्णन करती इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर
नहीं बचती जीने की लेश मात्र भी चाह.....
....साँसे देह छोड़ना चाहती हैं,
....पर प्रार्थना यही,
हे ईश्वर!
ये बाती जिलाए रखना
इसकी आँच की गरमाइश में
मेरे बच्चों की अठखेलियाँ पलती हैं....
अद्भुत। ... आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी .... मन की संवेदनावों को उनके अंतर्द्वंद को शब्द प्रतीकों के माध्यम से आपने बड़ी ख़ूबसूरती से जीवंत किया है। अंतिम पड़ाव इस रचना की आत्मा है। इस बेहद उम्दा प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
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