प्रेम : विविध आयाम
प्रेम
ठहरा था
बन के ओस
तेरी पलकों पर...
उफ़ तेरी ज़िद
कि बन के झील
वो तुझे मिलता...
प्रेम
काल कोठरी के
मजबूत दरवाजों की
झिर्रियों से झांकती
सुबह की
पहली सुनहरी किरण,
इस पर किसका पहरा?
प्रेम
आया तो था
दरवाज़े पर
लेकर अपने हज़ार सपने...
लाख मिन्नत कीं
इंगितों ने
बंद सांकल से,
अनसुनी दस्तक पे
वहीं हो के दफ्न सोया है...
प्रेम
प्रेम का पुण्य फलित
एक अंबर आसमानी
और उसमे घुले
दूर-दूर तक केवल तुम...
प्रेम
उत्तर दक्षिण का
मीलों का फासला
सात नदी पार तुम
पर कितने पास...
प्रेम
दूर हो सकोगे?
कैसे थमेगी -
मुझमें गूंजती तुम्हारी ध्वनि,
और
तुम्हारे अंतर्नाद में
कम्पित मेरा गुंजन ?
प्रेम
न पाने की आस
न खोने का डर
बस होने का आनंद
प्रेम
बंध से मुक्ति
मुक्ति से बंध
प्रेम
सम्राट की फ़कीरी
फ़कीरों का साम्राज्य
प्रेम
कहीं दिखता है क्या
-बंध दिखते हैं मुक्ति नहीं
कभी सुनता है क्या
-मौन में घुलो तो जानो
कभी छूता है क्या
-तब तो नश्वर है शाश्वत नहीं
ये हवाओं में घुला आएगा
संग तुम बह सको
तो बह जाना
प्रेम
सुनो
"कब मिलने आओगे? जान निकल जाएगी तब"
"तुम्हारी अर्थी को तो कन्धा दूँगा मैं"
"सच! वायदा करो"
"वायदा"
हे ईश्वर! इन आँखों को तब खुला रखना
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ. प्राची बहन, बेहतरीन रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह जी आदाब, बहुत उम्द: रचना हुई है,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
'सच! वायदा करो"
"वायदा"'
इस पंक्ति में 'वायदा' कोई शब्द ही नहीं है,सहीह शब्द है "वादा" देखियेगा ।
एक शिकायत ये है कि आपकी सक्रियता मंच पर रचना पोस्ट करने तक ही सीमित हो गई है,आप अपनी रचनाओं पर आई टिप्पणियों के उत्तर भी नहीं दे रही हैं,ये आपकी पिछली रचनाओं में देखा गया है,कृपया मंच पर अपनी सक्रियता बनाएँ ।
आदरणीय सुश्री डॉ प्राची सिंह जी, "प्रेम" जैसे विस्तृत भाव को आपने बड़ी ही ख़ूबसूरती से प्रस्तुत किया है। मान्य है कि इन विविध आयामो ने कभी ह्रदय को, मस्तिष्क को, भावों को, स्पर्श अवश्य किया होगा। ख़ूबसूरत रचना हेतु बधाई स्वीकार करें। सादर।
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