गुनगुनी सी आहटों पर
खोल कर मन के झरोखे
रेशमी कुछ सिलवटों पर सो चुके सपने जगाऊँ..
इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..
साँझ की दीवानगी से कुछ महकते पल चुराकर
गुनगुनाती इक सुबह की जेब में रख दूँ छिपाकर
थाम कर जाते पलों का हाथ लिख दूँ इक कहानी
उस कहानी में लिखूँ बस साथ तेरा सब मिटाकर
हर छुपे एहसास को फिर
रंग में तेरे भिगाकर
काश ऐसा हो कभी मैं नाम तेरा गुनगुनाऊँ...
इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..
मौन का संदल छिड़कती साँस थोड़ी चुलबुली हो
नेह के अनुवाद में हर ओट जैसे अधखुली हो
ले सुनहरा इत्र चारों ओर फैले रौशनी फिर
हर छुअन में गीत हो संगीत हो लय सी घुली हो
एक दूजे को सुनें
सुनते रहें बस मुस्कुराकर
मन कहे जो बात, वो हर बात मैं तुझको बताऊँ...
इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..
कुछ पलों की रौशनी से ज़िंदगी में अर्थ भरकर
चल पड़ूँ संतृप्ति का सागर लिए पूरा निखर कर
मंत्र बन गूँजे हमेशा तू हृदय की वादियों में
और मैं अलमस्त झूमूँ राह में जब-तब ठहर कर
मंदिरों की चौखटों से
खोल गिरहें चाहना की
मन्नतों की पूर्णता पर दीप नत हो कर जलाऊँ...
इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बेहतरीन सृजन। बेहतरीन भावाव्यक्ति। हार्दिक बधाइयां। नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं आदरणीया डॉ. प्राची सिंह साहिबा।
बहुत खूबसूरत रचना हर एक शब्द तराशा हुआ। हार्दिक बधाई आपको
एक अच्छा बन पड़ा गीत, बधाई स्वीकारें
मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह जी आदाब,बहुत समय बाद आपकी आमद हुई है,बहुत सुंदर गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर ढेर सारी बधाई स्वीकार करें ।
सादर प्रणाम आदरणीय सौरभ जी
कई माह बाद ही कोई गीत लिखना हुआ था, जिसे लिखते ही अपने ओबीओ परिवार के समक्ष प्रस्तुत किया.
गीत तक इतने बारीक और सहर्ष स्वीकार्य सुझावों के साथ आपका आना मेरे लिए आशीर्वाद है.
आप जिस तन्मयता से गीतों की अंतर्धारा को महसूस करते हुए पढ़ते हैं और फिर अपनी प्रतिक्रिया में प्रस्तुति का पूरा सारांश रख देेते हैैं, वह करता है , नत करता है
आपके बहुमूल्य सुझावों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय
एक अरसे बाद आपकी कोई सुगढ़ रचना वह भी एक मनोहारी गीत को पटल पर देख रहा हूँ, आदरणीया प्राची जी. हो सकता है, इधर और भी रचनाएँ प्रस्तुत हुई हों और मैं ही अनुपस्थित रहा उन्हें देख न पाया होऊँ, किन्तु इस गीत को आज देखा जाना मुझ जैसे पाठकों के लिए तोषदायी उपलब्धि है.
गीत की अंतर्धारा वस्तुतः स्वीकार्य-श्रेष्ठ के प्रति पूर्ण समर्पण के पश्चात उपजी आत्मीय विह्वलता का भावमय बहाव है. जो छोह के उत्फुल्ल क्षणों को अत्यंत निजता के साथ शाब्दिक करती हुई अपने पाठकों को अपने साथ बहा लेजाने का सामर्थ्य रखती है. ऐसा होना किसी गीत की सफलता का द्योतक है. निश्चय ही, अंतिम बंद श्रेष्ठ बन पड़ा है.
वैसे संप्रेषणीयता का संदर्भ लूँ तो मैं वाक्यों की बुनावट को लेकर तनिक और समय देता.
यथा,
गुनगुनी-सी
रेशमी कुछ सिलवटों पर सो रहे सपने जगाऊँ..
थाम कर जाते पलों के हाथ लिख दूँ इक कहानी
उस कहानी में लिखूँ बस नाम तेरा सब मिटाकर
रंग में तेरे भिगो कर
काश ऐसा हो कभी मैं साथ अपना गुनगुनाऊँ...
मंदिरों की चौखटों पर
ऐसा नहीं कि, ऐसी बुनावटों का कोई आग्रह है. किन्तु, इनका होना भाव-अर्थ को और गहरा करेगा, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है.
उच्च भावबोध की परिणति, इस गीत के होने पर हार्दिक शुभकामनाएँ.
सादर
इस गीत के लिए बहुत बहुत बधाई, डॉ. प्राची सिंह जी बहुत सुंदर रचना है।
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