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जश्न सा तुझको मनाऊँ (एक गीत )

गुनगुनी सी आहटों पर

खोल कर मन के झरोखे

रेशमी कुछ सिलवटों पर सो चुके सपने जगाऊँ..

इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..

साँझ की दीवानगी से कुछ महकते पल चुराकर

गुनगुनाती इक सुबह की जेब में रख दूँ छिपाकर

थाम कर जाते पलों का हाथ लिख दूँ इक कहानी

उस कहानी में लिखूँ बस साथ तेरा सब मिटाकर

हर छुपे एहसास को फिर

रंग में तेरे भिगाकर

काश ऐसा हो कभी मैं नाम तेरा गुनगुनाऊँ...

इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..

मौन का संदल छिड़कती साँस थोड़ी चुलबुली हो

नेह के अनुवाद में हर ओट जैसे अधखुली हो

ले सुनहरा इत्र चारों ओर फैले रौशनी फिर

हर छुअन में गीत हो संगीत हो लय सी घुली हो

एक दूजे को सुनें

सुनते रहें बस मुस्कुराकर

मन कहे जो बात, वो हर बात मैं तुझको बताऊँ...

इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..

कुछ पलों की रौशनी से ज़िंदगी में अर्थ भरकर

चल पड़ूँ संतृप्ति का सागर लिए पूरा निखर कर

मंत्र बन गूँजे हमेशा तू हृदय की वादियों में

और मैं अलमस्त झूमूँ राह में जब-तब ठहर कर

मंदिरों की चौखटों से

खोल गिरहें चाहना की

मन्नतों की पूर्णता पर दीप नत हो कर जलाऊँ...

इक सुबह ऐसी खिले जब जश्न सा तुझको मनाऊँ..

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 30, 2018 at 9:28am

बेहतरीन सृजन। बेहतरीन भावाव्यक्ति। हार्दिक बधाइयां। नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं आदरणीया डॉ. प्राची सिंह साहिबा।

Comment by pratibha pande on December 29, 2018 at 8:26am

बहुत खूबसूरत रचना हर एक शब्द तराशा हुआ। हार्दिक बधाई आपको

Comment by PHOOL SINGH on December 28, 2018 at 2:28pm

एक अच्छा बन पड़ा गीत, बधाई स्वीकारें

Comment by Samar kabeer on December 27, 2018 at 7:08pm

मुहतरमा डॉ. प्राची सिंह जी आदाब,बहुत समय बाद आपकी आमद हुई है,बहुत सुंदर गीत लिखा आपने,इस प्रस्तुति पर ढेर सारी बधाई स्वीकार करें ।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on December 27, 2018 at 3:04am

सादर प्रणाम आदरणीय सौरभ जी 

कई माह बाद ही कोई गीत लिखना हुआ था, जिसे लिखते ही अपने ओबीओ परिवार के समक्ष प्रस्तुत किया.
गीत तक इतने बारीक और सहर्ष स्वीकार्य सुझावों के साथ आपका आना मेरे लिए आशीर्वाद   है.

आप जिस तन्मयता से गीतों की अंतर्धारा को महसूस करते हुए पढ़ते हैं और फिर अपनी प्रतिक्रिया में प्रस्तुति का पूरा सारांश रख  देेते हैैं, वह करता है , नत करता है 


आपके बहुमूल्य सुझावों के लिए बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 26, 2018 at 11:32pm

एक अरसे बाद आपकी कोई सुगढ़ रचना वह भी एक मनोहारी गीत को पटल पर देख रहा हूँ, आदरणीया प्राची जी. हो सकता है, इधर और भी रचनाएँ प्रस्तुत हुई हों और मैं ही अनुपस्थित रहा उन्हें देख न पाया होऊँ, किन्तु इस गीत को आज देखा जाना मुझ जैसे पाठकों के लिए तोषदायी उपलब्धि है. 

गीत की अंतर्धारा वस्तुतः स्वीकार्य-श्रेष्ठ के प्रति पूर्ण समर्पण के पश्चात उपजी आत्मीय विह्वलता का भावमय बहाव है. जो छोह के उत्फुल्ल क्षणों को अत्यंत निजता के साथ शाब्दिक करती हुई अपने पाठकों को अपने साथ बहा लेजाने का सामर्थ्य रखती है. ऐसा होना किसी गीत की सफलता का द्योतक है. निश्चय ही, अंतिम बंद श्रेष्ठ बन पड़ा है. 

वैसे संप्रेषणीयता का संदर्भ लूँ तो मैं वाक्यों की बुनावट को लेकर तनिक और समय देता. 

यथा,

गुनगुनी-सी 

रेशमी कुछ सिलवटों पर सो रहे  सपने जगाऊँ..

थाम कर जाते पलों के  हाथ लिख दूँ इक कहानी

उस कहानी में लिखूँ बस नाम  तेरा सब मिटाकर 

रंग में तेरे भिगो  कर 

काश ऐसा हो कभी मैं साथ अपना  गुनगुनाऊँ...

मंदिरों की चौखटों पर  

ऐसा नहीं कि, ऐसी बुनावटों का कोई आग्रह है. किन्तु, इनका होना भाव-अर्थ को और गहरा करेगा, ऐसा मुझे प्रतीत हो रहा है. 

उच्च भावबोध की परिणति, इस गीत के होने पर हार्दिक शुभकामनाएँ. 

सादर

Comment by Md. Anis arman on December 26, 2018 at 11:53am

इस गीत के लिए बहुत बहुत बधाई, डॉ. प्राची सिंह  जी बहुत सुंदर रचना है। 

कृपया ध्यान दे...

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