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टेली फोन के कारनामें [कविता] [विश्व संचार दिवस पर ]

मुंह अँधेरे ही भजन की जगह,फोन की घंटी घनघना उठी,

घंटी सुन फुर्ती आ गई,नही तो,उठाने वाले की शामत आ गई,

ड्राईंग रूम की शोभा बढाने वाला,कचड़े का सामान बन गया,

जरूरत अगर हैं इसकी,तो बदले में  कार्डलेस रख गया,

उठते ही चार्जिंग पर लगाते,तत्पश्चात मात-पिता को पानी पिलाते,

दैनान्दनी से निवृत हो,पहले मैसेज पढ़ते,बाद में ईश्वरीय दर्शन करते,

जीवन के हर हिस्से में,ख़ुशी हो या गम, दस्तखनदारी हैं जरूरी,

भूकम्प आये,धरती फट जाए,पर मोबाईल हाथ में हैं जरूरी,

मिठास ना  घोलने पर,होती इसकी ऐसी विडम्बना,

गुस्सा-गुस्सी,झडपा-झड़पी में,इसका होता फिकना,

होश आता,तो जाकर ऐसे उठा लेते,

जैसे ,बिछड़े लाल को सीने से लगा लेते,

शुक्र मनाते,ऊपर वाले का,चलो बच गया,

पर,अफ़सोस नही,इसकी वजह से,रिश्ता टूट गया,

कभी जुल्मोसितम्भ ढहाता,कभी खुशियों की झड़ी लगाता,

पल में तौला,पल में माशा,अजीब हैं इसकी दास्तां,

जीने का इकलौता सहारा हैं,यह नही तो ,बंजारा हैं जीवन,

दिन-रात कान में लगाये ,ऐसे घूमते,मानो 'जीवन जीने के सबक' सीखते,

इसे धन्यबाद कहते नही थकते,लेकिन जन्मदाता से कभी नही कहते,

अनगिनत हैं करतूते इसकी,हवा हवा में करता काम्तमाम,

बस , बहुत हुई,इसकी अपनी लम्बी दास्ताँ,

हम तो इसे इस उपाधि से नवाजते-

'पल भर में काम तमाम कराए,घर का भेदी रिश्तों को ढहाए,'

मौलिक व अप्रकाशित 

बबीता गुप्ता 

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