तुम्हारी याद मे........
मैं खोयी थी अपने इन्द्रधनुषी सपनों में
अचानक बादलों की एक गडगडाहट ऩे
मुझे तुमसे मिला दिया|
लेकिन मैं कभी मन से
तुम्हारी न बन सकी|
तुम्हारा नियंत्रण मेरी देह पर था,
परन्तु मन आज भी
उन्ही इन्द्रधनुषी सपनों मे
रंगा हुआ था |
धीरे धीरे हमारे बीच दूरियाँ बढ़ने लगी,
बात बेबात तकरारे बढ़ने लगी,
आँगन मे गुलाब के साथ
कैक्टस भी फलने फूलने लगा|
और एक दिन
जब तुम चले गए
मुझे छोड़कर तन्हा
कहीं दूसरे शहर मे |
उस दिन मैं बहुत खुश थी
चलो रोज की चिक-चिक से
छुटकारा तो मिला|
मगर
रात भर मैं सो ना सकी,
सोचती रही
पता नहीं तुम कहाँ होंगे,
किस हाल मे होंगे?
मैंने देखा
कि तुम अपना कोट भी तो
नहीं ले गए थे
सर्दी मे कैसे होंगे आप
यही सोचते सोचते
आपके कोट को
हाथ मे लेकर बैठी रही|
सच कहूँ
मैं पूरी रात सो ना सकी|
मुझे याद आया
उस दिन आलू-टमाटर कि सब्जी मे
नमक ज्यादा गिर गया था |
आपने कहा था 'नमक ज्यादा हो गया है'
मैं चिल्लाई थी'
"आपको बाज़ार का खाना अच्छा लगता है,
मेरे हाथ का कहाँ?"
फिर आप चुपचाप खाना खाकर
बाज़ार चले गए थे|
आपके जाने के बाद
जब खाया था मैंने खाना
तो पता चला था
सचमुच नमक बहुत ज्यादा था|
फिर कभी आपने शिकायत नहीं की
चाय फीकी या सब्जी मे नमक की|
मुझे याद आ रहा है
आपका दफ्तर से आते ही
कंप्यूटर लेकर बैठ जाना,
और अपने काम मे लग जाना|
मैं सोचा करती
इस आदमी को मुझसे कोई मतलब नहीं,
बस रात को अपनी इच्छा पूर्ति के लिए
मेरी जरुरत!
तुम्हारे जाने के बाद
मुझे लगा
कि तुम ही मेरी
धड़कन बन चुके थे|
मैंने कंप्यूटर के की बोर्ड पर
अहसास किया
तुम्हारी अँगुलियों का|
मुझे याद आया
तुम सुनाते थे
अपनी कविता
सबसे पहले मुझे
और मैं चली जाती थी
बीच मे ही
कुछ काम करने
सुनना बीच मे छोड़ कर|
फिर तुमने बंद कर दिया था
धीरे-धीरे कविता सुनाना,और
अधिक समय देने लगे थे
अपने कंप्यूटर पर भी|
आगे जारी है............
डॉ अ कीर्तिवर्धन
9911323732tumhari
Comment
स्मृतियों की गलियों में घूमती और वर्तमान के एकाकीपन की पीड़ा को बहुत सुन्दरता से शब्दों में ढाला है आदरणीय डॉ कीर्तिवर्धन जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें.
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