ग़ज़ल - मुहब्बत क्यूँ नहीं करते
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मुहब्बत क्यूँ नहीं करते,
शरारत क्यूँ नहीं करते |
बड़े ही बे - मुरव्वत हो,
अदावत क्यूँ नहीं करते ||
अलग अंदाज है उनका,
बगावत यूँ नहीं करते |
बिखर जाए अगर लाली,
वो हसरत भी नहीं करते ||
बड़े अरमान हैं मेरे,
हिफाज़त भी नहीं करते |
शिकायत लाख है उनको,
मुखालिफ वो नहीं करते ||
भरोसा तोड़ देते हैं,
इबादत वो नहीं करते|
फरिश्ते भी अगर आयें,
तगाफुल वो नहीं करते ||
मुबारक शोखियाँ उनको,
हक़ीक़त से नहीं डरते |
झलक देखी नहीं हमने,
शिकायत हम नहीं करते ||
तसल्लीबख्श हैं देखो,
वो ख्वाहिश भी नहीं करते |
मयस्सर जो नहीं उनको,
तकाज़ा वो नहीं करते ||
मुकद्दर देख कर अपना,
सितम से हम नहीं डरते |
ज़माने की मुहब्बत में,
कयामत से नहीं डरते ||
अनिता भटनागर(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सादर प्रणाम आदरणीया ग़ज़ल के प्रयास की हार्दिक बधाई आपनव जो बहर लिखी है उसके मुताबिक पूर्ण विराम का प्रयोग इस प्रकार उचित नहीं हैं दो बार पूर्ण विराम न लगाइए एक ही बार लगाइए और दो शेरो के बीच मे एक लाइन नहीं छोड़िए बल्कि हर शेर के बाद एक लाइन छोड़िए
दूसरी बात आपकी इस ग़ज़ल में काफ़िया निर्धारण सही से नहीं हो पाया है आपने मतले के दोनों मिसरों में क्यू लिया है ऐसे में क्यूँ को भी काफ़िया कैसे माना जाए अगर मान भी लिया जाए तो आगे के शेरों में आपने उसे निभाया नहीं है
रदीफ़ भी आपने दो इस्तेमाल कर ली करते और डरते
आपके भाव बहुत अच्छे हैं बेहतर होगा आप इस ग़ज़ल पर पुनः काम करें
सादर
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