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ग़ज़ल नूर की - गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा

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गुनाह कर के भी उतरा नहीं ख़ुमार मेरा
नशा उतार ख़ुदाया नशा उतार मेरा.
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बना हुआ हूँ मैं जैसा मैं वैसा हूँ ही नहीं   
मुझे मुझी सा बना दे गुरूर मार मेरा.
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ये हिचकियाँ जो मुझे बार बार लगती हैं
पुकारता है कोई नाम बार बार मेरा.  
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मेरी हयात का रस्ता कटा है उजलत में
मुझे भरम था फ़लक को है इंतज़ार मेरा.
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पड़े जो बेंत मुझे उस की, दौड़ पड़ता हूँ
मैं जैसे हूँ कोई घोड़ा ये मन सवार मेरा.
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मैं उस से बच नहीं पाता हूँ गो ख़बर है मुझे   
करे है मेरी अना रात दिन शिकार मेरा.
.
हर एक साँस बदलती है ज़र को पीतल में
न जाने हश्र में क्या दाम दे सुनार मेरा.
.
किसी नज़र से उतरते ही मर गया था मैं
जिसे समझते हो तुम जिस्म है मज़ार मेरा.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी 25 minutes ago

आदरणीय नीलेश भाई , हमेशा की तरह आपकी ग़ज़ल बेहतरीन लगी , हर एक शेर  उम्दा हुए हैं 

पड़े जो बेंत मुझे उस की, दौड़ पड़ता हूँ
मैं जैसे हूँ कोई घोड़ा ये मन सवार मेरा.    -- ये शेर मेरे लिए बहुत ख़ास  है  बधाई आपको 

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