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पता नहीं,

शायद यहीं कहीं ,

नहीं- नहीं ,

यहीं

आसपास ही कहीं ,

क्योंकि ,

तुम्हारी सुगंध ,तुम्हारी सुवास ,

कलियों में चटकती है ,

फूलों में बसती है ,

हवाओं के संग घूमती है |

 

तुम्हारा अक्स ,तुम्हारी आकृति

कभी बादलों में

कभी पानी में ,

खेतों में , खलिहानों में

या की मुंडेर पर बैठे पक्षी के डेनों में

हर कहीं उतरी दिखती है |

 

तुम्हारी उपस्थिति

भोर की नीरवता में

सांझ के सुकून में

रात की शीतलता में

विश्राम करती महसूस होती है | 

 

तुम्हारी ऊर्जा

हवा की सरसराहट में ,

पेड़ों की डोलती फुनगियों में

समन्दर की लहरों में

प्रेमी के पैरों में

घुंघरू बाँध नाचती दिखती है | 

 

तुम्हारे होने का प्रमाण

जनमते बालक के रोने में ,

अर्थी के कोने में

मिल ही जाता है | 

आस- पास ही नहीं

हर कहीं

तुम हो, तुम ही तो हो  |

 

 

मोहिनी चोरड़िया

 

 

 

 

 

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on December 6, 2011 at 12:06am

उस ऑल-परवेसिव का महसूसा जाना रचना से संसृत शब्द आभार से भाव-बिम्ब पैदा कर रहे हैं.
साधु-साधु !!

कृपया ध्यान दे...

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