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बस यूँ ही ……डर ……

बचपन से डरता रहा

दिल में डर बसता रहा 

बहुत अच्छा हुआ जो

मै नहीं हुआ निडर 

माँ हमेशा कहती थी 

चार लोग देखेंगे तो

क्या कहेंगे 

उन चार लोगो का डर 

पिता कि मार का डर 

अपने पैरों पर खड़े ना हो पाने का डर 

खड़े हुए तो दौड़ ना पाने का डर 

दौड़े  तो गिर जाने का डर 

जवान हुए तो पहचान खोने का डर 

मोहब्ब्त में नाकाम होने का डर 

जब हुई तो उसमे खोने का डर 

गृहस्थी ना चला पाने का डर 

बच्चो को ना पढ़ा पाने का डर 

डर डर  डर  और केवल डर 

बहुत अच्छा हुआ जो निडर ना हो पाया 

गर निडर हो जाता तो 

ना ही मै डरता और ना कोई कदम उठता 

अति विश्वास ना मार जाये 

बेहतर लगा कि डरा जाये 

इसी डर ने  तो साहस बढ़ाया  

इसी डर  ने मुझे कामयाब बनाया   ……

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment

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Comment by annapurna bajpai on March 1, 2014 at 1:27pm

बहुत खूब , आ0 बधाई आपको । 

Comment by बृजेश नीरज on February 25, 2014 at 10:27pm

अच्छी रचना! बधाई!

Comment by Sarita Bhatia on February 25, 2014 at 2:47pm

सही कहा आदरणीय 

पर डरना भी एक सीमा तक ही अच्छा 

कृपया ध्यान दे...

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