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कोई बावफा कैसे दिखे

कोई हमनफस कैसे दिखे 
कोई हमनवा कैसे रहे 
बतलाए मुझको कोई तो
कोई बावफा कैसे दिखे...

तुम बदलते रूप इतने 
और बदलकर बोलियाँ 
खोजते रहते हो हममें 
वतनपरस्ती के निशाँ..

हम प्यार करने वाले हैं 
हम जख्म खाने वाले हैं 
हम गम उठाने वाले हैं 
हम साथ देने वाले हैं 
अकीदे का हर इम्तेहां 
हम पास करते आये हैं

किसी न किसी बहाने 
तुम टांग देना चाहते हो 
जबकि हमारे काँधे पे 
देखो सलीब कब से है...

(मौलिक अप्रकाशित)

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Comment by Saurabh Pandey on July 5, 2015 at 12:27am

आदरणीय अनवर साहब, सर्वहारा इकाइयों की सोच और जीने की जद्दोजहद में स्वयं को उत्सर्ग करते समाज के लोगों की भावनाओं को आपने सार्थक शब्द दिये हैं.

एक अरसे बाद आपकी रचना को पटल पर देखना सुखद लग रहा है.
हार्दिक शुभकामनाएँ.

Comment by narendrasinh chauhan on June 16, 2015 at 12:25pm

खूब सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई

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