हर कोई लालायित कितना, कैसे भी हों कालजयी
इस चक्कर में ठेला-ठाली, धक्का-मुक्की मची रही
नदी वही है, लहर वही है, और खिवईया रहे वही
लेकिन अपनी नाव अकेली बीच भंवर में फंसी रही
बार-बार समझाते उनको हम भी हैं तुम जैसे ही
बार-बार उनके भेजे में बात हमारी नहीं घुसी
छोडो तंज़-मिजाज़ी बातें, आओ बैठो गीत बुनें
खींचा-तानी करते-करते बात वहीं पे रुकी रही
(अप्रकाशित मौलिक)
Added by anwar suhail on February 22, 2016 at 8:30pm — No Comments
कोयला खदान की
काली अँधेरी सुरंगों में
निचुड़े तन-मन वाले खनिकर्मी के
कैप लैम्प की पीली रौशनी के घेरे से
कभी नहीं झांकेगा कोई सूरज
नहीं दीखेगा नीला आकाश
एक अँधेरे कोने से निकलकर
दूसरे अँधेरे कोने में दुबका रहेगा ता-उम्र वह
पता नहीं किसने, कब बताया ये इलाज
कि फेफड़ों में जमते जाते कोयला धूल की परत को
काट सकती है सिर्फ दारु
और ये दारू ही है जो एक-दिन नागा…
Added by anwar suhail on January 1, 2016 at 3:30pm — 3 Comments
अइसई नहीं मिलता
सेवादारी का ओहदा
बड़ी कठिन परीक्षा है
निभा ले जाना ड्यूटी सेवादारी की
हाकिम-हुक्काम तो
कोई भी बन सकता है
सेवादार बनना बहुत कठिन है
सेवादार को होना चाहिए
भाव-निरपेक्ष...संवेदनहीन
अपने ड्यूटी-काल में
और उसके अलावा भी
जाने कौन सा राज़
कब किस हालत में फूट जाए
और लेने के देने पड़ जाएँ
हाकिम बना रहे
हाकिम बचा रहे
हुकुम सलामत रहे
तो रोज़ी-रोटी की है गारंटी
इतनी…
Added by anwar suhail on December 15, 2015 at 5:53pm — 2 Comments
बाज़ार रहें आबाद
बढ़ता रहे निवेश
इसलिए वे नहीं हो सकते दुश्मन
भले से वे रहे हों
आतताई, साम्राज्यवादी, विशुद्ध विदेशी...
अपने मुल्क की रौनक बढाने के लिए
भले से किया हो शोषण, उत्पीड़न
वे तब भी नहीं थे वैसे दुश्मन
जैसे कि ये सारे हैं
कोढ़ में खाज से
दल रहे छाती पे मूंग
और जाने कब तक सहना है इन्हें
जाते भी नहीं छोड़कर
जबकि आधे से ज्यादा जा चुके
अपने बनाये स्वप्न-देश में
और अब तक बने…
ContinueAdded by anwar suhail on November 14, 2015 at 9:00pm — 3 Comments
कोई हमनफस कैसे दिखे
कोई हमनवा कैसे रहे
बतलाए मुझको कोई तो
कोई बावफा कैसे दिखे...
तुम बदलते रूप इतने
और बदलकर बोलियाँ
खोजते रहते हो हममें
वतनपरस्ती के निशाँ..
हम प्यार करने वाले हैं
हम जख्म खाने वाले हैं
हम गम उठाने वाले हैं
हम साथ देने वाले हैं
अकीदे का हर इम्तेहां
हम पास करते आये हैं
किसी न किसी बहाने
तुम टांग देना चाहते हो
जबकि हमारे काँधे पे
देखो…
Added by anwar suhail on June 15, 2015 at 8:07pm — 2 Comments
हम बड़े हो रहे थे
लेकिन आप हमें
बच्चा ही समझती थीं
और जब हम अकड दिखाते
बात-बेबात बहस करते
तो आप खामोश हमें ताकते रहतीं
हम अपने मन की करते
और आपकी खामोश आँखें करतीं
हमारी सलामती की दुवाएं..
आज आप नहीं हैं
और इस संसार में
हम यूँ फिर रहे हैं
जैसे कोई फल हों
सड़क किनारे पेड़ के
जिसपर हर कोई
आजमाता है पत्थर...
हम बड़े ज़रूर हुए हैं अम्मी
लेकिन ममता की ऊष्मा से
वंचित हैं…
Added by anwar suhail on May 10, 2015 at 7:00pm — 5 Comments
वे झूठ के दाने बोते हैं
वे झूठ की खेती करते हैं
जब झूठ की फसलें पकती हैं
वे सच-मुच में खुश होते हैं
फिर झूठ-मूठ ही मिल-जुलकर
हर आने-जाने वाले को
खाने की दावत देते हैं...
वहां झूठ के लंगर लगते हैं
वहां झूठ के दोना-पत्तल में
भर-भर के परोसी जाती हैं
झूठ-मूठ की पूरी-सब्जी
झूठ-मूठ के माल-पूवे....
इस झूठ के काले धंधे में
कई सेवक मोटे- तगड़े से
लट्ठ- हथियारों से लैस हुए
जब कहते सबसे लो डकार
और करो…
Added by anwar suhail on April 17, 2015 at 6:52pm — 6 Comments
किस तरह रच रहे हो तुम ये संसार
हे ईश्वर...
तुम भी तो पुरुष ही हो...
जानते हो तुमसे, हम पुरुषों से
किस कदर खौफ खाती हैं स्त्रियाँ
एक अप्रत्याशित आक्रमण
कभी भी हो सकता है उन पर
इस डर से भयभीत होकर
रखती हैं पर्स में हथौड़ी
कोई सलाह देता तो रख लेतीं मिर्च-पाऊडर
और बाज़ार बनाकर बेचता
कोई स्प्रे, कोई धारदार छोटा चाकू
कोई करेंट पैदा करने वाला यंत्र
या सरकारें ज़ारी करतीं ढेर सारे हेल्पलाइन…
ContinueAdded by anwar suhail on March 9, 2015 at 7:30pm — 5 Comments
(अविजित राय की हत्या जैसे कायरतापूर्ण कृत्य ने दहला दिया...दुनिया भर के अल्पसंख्यकों को समर्पित कविता)
चेहरे-मोहरे
चाल-ढाल से जब
पहचाना न जा सका
तब पूछने लगा वो नाम
और मैं बचना चाह रहा बताने से नाम
फिर यूँ ही टालने के लिए
लिया ऐसा नाम
जो मिलता-जुलता हो उससे कुछ-कुछ
जिसे कहने से
बचा जा सके पहचान लिए जाने से
लेकिन ये क्या
अब पूछा जा…
Added by anwar suhail on March 6, 2015 at 10:03pm — 9 Comments
कितना कम चाहिए
नून, तेल, गुड के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
मुंह बाये आ खड़ी होती है
लाचारी सी हारी-बीमारी
डागदर-दवाई में चुक जाती है
जतन से जोड़ी रकम
जबकि हमारी इच्छाएं है कितनी कम...
कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा
फिर भी मिल नही पाता
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही
या अदालत का सम्मन
और हम बेमन
फंसते जाते इतना
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर.....
(मौलिक…
ContinueAdded by anwar suhail on February 26, 2015 at 10:08pm — 8 Comments
तुम चलाओ गैंती-फावड़ा
काटो पत्थर, बनाओ नाली
दिन है तो सूरज को घड़ी मानो
और रात है तो गिनते रहो एक-एक प्रहर
कुत्ते कब भौंके
सियार कब चीखे
मुर्गे ने कब बांग दी
यही है तुम्हारी नियति....
तुम चलाओ छेनी-हथौड़ी
तुम्हारे लिए बन नहीं सकतीं
ऐसी यांत्रिक घड़ियाँ
जिनमे काम के घंटों का हिसाब हो
और आराम के पल का ज़िक्र हो...
तुम लिखो कविता-कहानी
फट जाए चाहे
माथे की उभरी नसें
फूट जाए ललाई…
Added by anwar suhail on February 15, 2015 at 7:30pm — 7 Comments
रात अंधड़ में
छितराए फूस के छप्पर को
करना है दुरस्त
लेकिन समय कहाँ
अभी तो जाना है काम पर
फिरसे फूल आये पेट में
कुलबुला रहा है जीव
अनमनी सी कराह रही घरवाली
रांध नही पाती भात...
भूखे पेट पैडल मारता भूरा
टुटही साइकिल खींच रहा
ससुरी चैन साईकिल की
काहे उतरती बार-बार
भूरा बेबस-लाचार,
ठीकेदार का मुंशी भगा देगा उसे
जो देर से पहुंचा वो...
लड़ भी तो नही सकता
भगा दिया गया तो
डूब…
Added by anwar suhail on May 2, 2014 at 9:37am — 9 Comments
Added by anwar suhail on March 27, 2014 at 8:23pm — 3 Comments
जाने क्या सोचकर
.......उसने भेजा
एक गुलाब
एक मुस्कान
एक चितवन
एक सरगोशी
एक कामना
एक आमंत्रण
और मैंने पलटकर
उसकी तरफ देखा भी नही
भाग लिया
उस तरफ
जहां काम था
चिंताएं थीं
अपूर्णताये थीं
सुविधाएं थीं
अनुकूलताएँ थीं
थकन और
स्वप्न-हीन निद्रा…
Added by anwar suhail on February 13, 2014 at 8:43pm — 6 Comments
Added by anwar suhail on February 7, 2014 at 4:04pm — 5 Comments
एक आंधी सी उठे है अन्दर
एक बिजली सी कड़क जाती है
एक झोंका भिगा गया तन-मन
इस बियाबां में यूँ ही तनहा मैं
कब से रह ताक रहा हूँ उसकी...
वो जो बौछार से टकराते हुए
एक छतरी का आसरा लेकर
इक मसीहा सा बन के आता है
मुझको भींगने से बचाता है...
हाँ...ये सच है बारहा उसने
मेरे दुःख की घडी में मुझको
राहतें दीं हैं....चाहतें दीं हैं....
और हर बार आदतन उसको
सुख के लम्हों में भूल जाता हूँ
वो मुझे दुवाओं में…
Added by anwar suhail on January 26, 2014 at 6:30pm — 5 Comments
एकदम से ये नए प्रश्न हैं
जिज्ञासा हममें है इतनी
बिन पूछे न रह सकते हैं
बिन जाने न सो सकते हैं
इसीलिए टालो न हमको
उत्तर खोजो श्रीमान जी....
ऐसे क्यों घूरा करते हो
हमने प्रश्न ही तो पूछा है
पास तुम्हारे पोथी-पतरा
और ढेर सारे बिदवान
उत्तर खोजो ओ श्रीमान...
माना ऐसे प्रश्न कभी भी
पूछे नही जाते यकीनन
लेकिन ये हैं ऐसी पीढ़ी
जो न माने बात पुरानी
खुद में भी करती है शंका
फिर तुमको काहे छोड़ेगी
उत्तर तुमको देना…
Added by anwar suhail on January 21, 2014 at 9:35pm — 5 Comments
तुम क्या जानो जी तुमको हम
कितना 'मिस' करते हैं...
तुम्हे भुलाना खुद को भूल जाना है
सुन तो लो, ये नही एक बहाना है
ख़ट-पद करके पास तुम्हारे आना है
इसके सिवा कहाँ कोई ठिकाना है...
इक छोटी सी 'लेकिन' है जो बिना बताये
घुस-बैठी, गुपचुप से, जबरन बीच हमारे
बहुत सताया इस 'लेकिन' ने तुम क्या जानो
लगता नही कि इस डायन से पीछा…
Added by anwar suhail on January 15, 2014 at 9:01pm — 5 Comments
कितनी दूर से बुलाये गये
नाचने वाले सितारे
कितनी दूर से मंगाए गए
एक से एक गाने वाले
और तुम अलापने लगे राग-गरीबी
और तुम दिखलाते रहे भुखमरी
राज-धर्म के इतिहास लेखन में
का नही कराना हमे उल्लेख
कला-संस्कृति के बारे में...
का कहा, हम नाच-गाना न सुनते
तो इत्ते लोग नही मरते...
अरे बुडबक...
सर्दी से नही मरते लोग तो
रोड एक्सीडेंट से मर जाते
बाढ़ से मर जाते
सूखे से मर जाते
मलेरिया-डेंगू से मर जाते …
Added by anwar suhail on January 14, 2014 at 9:30pm — 8 Comments
खोज रही उनकी टोही निगाहें मुझमे
क्या-क्या उत्पाद खरीद सकता हूँ मैं...
मेरी ज़रूरतें क्या हैं
क्या है मेरी प्राथमिकताएं
कितना कमाता हूँ, कैसे कमाता हूँ
खर्च कर-करके भी कितना बचा पाता हूँ मैं...
एक से एक सजी हैं दुकाने जिनमे
बिक रही हैं हज़ार ख्वाहिशें हरदम
मेरी गाढ़ी कमाई की बचत पर डाका
डालने में उन्हें महारत है...
कैसे बच पाउँगा बाज़ार के लुटेरों से
एक दिन उड़ेल आऊंगा बचत अपनी
हजारों ख्वाहिशें कहकहा…
Added by anwar suhail on January 13, 2014 at 7:00pm — 4 Comments
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