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कितना कम चाहिए...

कितना कम चाहिए 
नून, तेल, गुड के अलावा 
फिर भी मिल नही पाता 
मुंह बाये आ खड़ी होती है 
लाचारी सी हारी-बीमारी 
डागदर-दवाई में चुक जाती है 
जतन से जोड़ी रकम 
जबकि हमारी इच्छाएं है कितनी कम...

कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा 
फिर भी मिल नही पाता 
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही 
या अदालत का सम्मन 
और हम बेमन 
फंसते जाते इतना 
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर.....

(मौलिक अप्रकाशित)

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Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on March 1, 2015 at 2:09pm

बहुत सघन पंक्तियाँ. एक आम आदमी के संघर्ष को सार्थक करती, रचना. बधाई आदरणीय अनवर साहब

Comment by somesh kumar on March 1, 2015 at 11:57am

निसंदेह मानव-संघर्ष को बहुत सटीकता से शब्द दिए हैं आपने पर कई जगह टंकन त्रुटी दिखाई दे रही है हो सकता है डागदर कहना ज्यादा सही हो पर कई जगह चन्द्रबिन्दु बिंदु से प्रतिस्थापित लग रहे हैं |कृपया देख लें |


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 1, 2015 at 7:25am
आम आदमी के संघर्ष को पूरी सघनता से अभिव्यक्त करती सार्थक रचना की प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई।
Comment by Hari Prakash Dubey on February 28, 2015 at 9:54am

आदरणीय अनवर सुहैल जी, बहुत सुन्दर रचना  , बहुत बहुत बधाई, सादर।

Comment by maharshi tripathi on February 27, 2015 at 4:46pm

बहुत सुन्दर ,,,कितना कम चाहिए
रोटी और कपड़े के अलावा 
फिर भी मिल नही पाता 
आ धमकता वन-करमचारी
थाने का सिपाही 
या अदालत का सम्मन 
और हम बेमन 
फंसते जाते इतना 
कि छूटते इनसे बीत जाती उमर
दीखती न मुक्ति की कोई डगर....,,,सच है कोई कितने ऊँचे पोस्ट पर क्यूँ न हो,,,आवश्यकताओं  की पूर्ति कभी नही हो सकती |

आपको ,,हार्दिक बधाई|

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2015 at 1:04pm

आ० मित्र

इतने  कम शब्दों में आपने मनुष्य के वैवश्य  की पूरी दास्ताँ कह डाली i सादर  i

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 27, 2015 at 11:53am

प्रणाम! आदरणीय,पूरी कविता आम आदमी की जिंदगी का कटु सत्य ब्यान करती हुई... लाजवाब कविता ...कब मिलेगी मुक्ति की कोई डगर..कैसे मिलेगी..इस प्रश्न उत्तर अधुरा ही रह गया...शायद आपकी अगली कविता में मिल जाये..प्रश्न करने के दुश्साहस के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ..आदरणीय प्रश्न मन में रह गया सो आग्रह किया है!!

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 27, 2015 at 10:59am
बस यही तो मजबूरी है,
हमको उनसे बहुत कम चाहिए ,
उनको हमसे बहुत कछ चाहिए ,
सच कहें तो क्या क्या नहीं चाहिए ॥
तिस पर से उनका दावा है कि क्या ,
क्या नहीं कर दिया उन्होंने हमारे लिए ॥
आदरणीय अनवर सुहैल जी, बहुत खूबसूरत पंक्तियाँ , बहुत बहुत बधाई, सादर।

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