(अविजित राय की हत्या जैसे कायरतापूर्ण कृत्य ने दहला दिया...दुनिया भर के अल्पसंख्यकों को समर्पित कविता)
चेहरे-मोहरे
चाल-ढाल से जब
पहचाना न जा सका
तब पूछने लगा वो नाम
और मैं बचना चाह रहा बताने से नाम
फिर यूँ ही टालने के लिए
लिया ऐसा नाम
जो मिलता-जुलता हो उससे कुछ-कुछ
जिसे कहने से
बचा जा सके पहचान लिए जाने से
लेकिन ये क्या
अब पूछा जा रहा
गोत्र/कुल/गाँव-घर
यानी कि झूठ के पाँव नही थे
लडखडा कर गिर पडा झूठ
और मैंने झट सफाई दी
ये मेरा पुकारू नाम है भाई
जिससे दोस्त-अकारिब के बीच मुझे जाना जाता है
जबकि मेरा नाम है इंसान
उसने मुझे घूर कर देखा
ये भी कोई नाम हुआ...
उसकी आँखों के एक्स-किरणों ने
मुझे भीतर तक भेद डाला
मैं घिर चुका था
अब वो अकेला न था
उसके साथ हुजूम था
उनके दिलों में नफरत थी
उनकी निगाहों में शो'ले थे
उनकी बातों में गालियाँ ही तो थीं
जिनके बीच मैं फंस चुका था
बच निकलने की कोई न थी आस
और मैं सोच रहा था
इससे बेहतर था क्या सच बोलना
ऐसे कब तक छुपाई जायेगी
अपनी पहचान...
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
बहुत खूब, आदरणीय अनवर सोहैल भाई !
शुक्रगुज़ार हूँ आप सभी का...सादर
आजकल सही पहचान बताने पर यही होता है ,,,,, कविता पर आपको बधाई आ.अनवर शुशील जी |
युग बदल गए!लोग नही बदले!सार्थक प्रस्तुति ,अभिनन्दन आदरणीय!!
आदरणीय अनवर सुहेल जी, नाम और फिर उपनाम , समस्या सदियों से जीवित है ,बहुत सार्थक प्रस्तुति ,बधाई सर !
बहुत उम्दा, सर. मन को झकझोर देती रचना. बधाई आदरणीय ,अनवर साहब.
मित्र अनवर सुहेल जी
बहुत सुन्दर भावपूर्ण कथन i
इससे बेहतर था क्या सच बोलना
ऐसे कब तक छुपाई जायेगी
अपनी पहचान...
सही बात की आप ने ,नाम और उसके बाद का उपनाम है जिसमें इन्सान की पहचान गायब है |
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