किस तरह रच रहे हो तुम ये संसार
हे ईश्वर...
तुम भी तो पुरुष ही हो...
जानते हो तुमसे, हम पुरुषों से
किस कदर खौफ खाती हैं स्त्रियाँ
एक अप्रत्याशित आक्रमण
कभी भी हो सकता है उन पर
इस डर से भयभीत होकर
रखती हैं पर्स में हथौड़ी
कोई सलाह देता तो रख लेतीं मिर्च-पाऊडर
और बाज़ार बनाकर बेचता
कोई स्प्रे, कोई धारदार छोटा चाकू
कोई करेंट पैदा करने वाला यंत्र
या सरकारें ज़ारी करतीं ढेर सारे हेल्पलाइन नंबर
किस तरह रच रहे हो तुम ये संसार
हे ईश्वर...
तुम जो कि बेशक पुरुष हो
और हमसे यानी तुमसे भी तो
किस कदर डर रही है आधी-आबादी
ख़्वाब में भी डरती है अनजाने हमलों से
अकेले हो या भीड़ में
हर जगह हमले का डर
उनके ज़ेहन में रहता है पेवस्त
और तुम मस्त रचवाते हो ऋचाएं...आयतें...
सबकी भलाई की खोखली बातें
कब तक ग्रंथों में कैद रखी जाती रहेंगी?
कब तक...
हे ईश्वर...!!!
.
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
आप सभी मित्रों का आभार, विचारों के भंवर में फंसता हूँ तो लेखनी पार लगाती है और तभी आप स्नेहीजनो/गुनीजनो का आदर पाता हूँ...एक बार फिर आभार
आदरणीय अनवर सुहैल सर बहुत सुन्दर दार्शनिक रचना है , बधाई आपको सादर !
और तुम मस्त रचवाते हो ऋचाएं...आयतें...
सबकी भलाई की खोखली बातें
कब तक ग्रंथों में कैद रखी जाती रहेंगी?
कब तक...,,,,,,,,,,,,,बहुत सुन्दर आ,अनवर सर जी |
मित्र
आपको न याद हो पर ओ बी ओ में आपने मुझे पहला मित्र बनाया था i आप बहुत सुन्दर और भावपूर्ण लिखते है i यह कविता उसका प्रमाण है i धन्यवाद सर i
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