वे झूठ के दाने बोते हैं
वे झूठ की खेती करते हैं
जब झूठ की फसलें पकती हैं
वे सच-मुच में खुश होते हैं
फिर झूठ-मूठ ही मिल-जुलकर
हर आने-जाने वाले को
खाने की दावत देते हैं...
वहां झूठ के लंगर लगते हैं
वहां झूठ के दोना-पत्तल में
भर-भर के परोसी जाती हैं
झूठ-मूठ की पूरी-सब्जी
झूठ-मूठ के माल-पूवे....
इस झूठ के काले धंधे में
कई सेवक मोटे- तगड़े से
लट्ठ- हथियारों से लैस हुए
जब कहते सबसे लो डकार
और करो हमारी जय-जयकार
तो होड़ मचाते आमंत्रित
दुबले-पतले-मरियल सारे
मिलकर करते जय-जयकार
बने रहें हमारे सरकार...!
क्या ऐसा भी दिन आएगा
जब भेद खुलेगा झूठों का
जब झूठे धिक्कारे जायेंगे
जब झूठे सच में भागेंगे...???
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुंदर प्रस्तुति, आदरणीय अनवर साहब.
शानदार रचना है
हार्दिक बधाई ...
बेहतरीन रचना पर बधाई आदरणीय!
अनवर जी, झूठ की खेती अच्छे मानकों के साथ,उत्तम रचना कही है। बधाई
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