सब कुछ वैसा ही हो जाये
जैसा हमने चाहा था
जैसा हमने सोचा था
जैसा सपना देखा था
सब कुछ वैसा ही हो जाये
लेकिन वैसा कब होता है
कुछ पाते हैं, कुछ खोता है
ठगा-ठगा निर्धन रोता है
थका-हारा, भूखा सोता है
तुम हम सबको बहलाते हो
नाहक सपने दिखलाते हो
अपने पीछे दौडाते हो
गुर्राते हो, धमकाते हो
और हमारे गिरवी दिल में
बात यही भरते रहते हो
सब कुछ वैसा हो जायेगा
जैसा हम सोचा करते हैं
जैसा हम चाहां करते हैं
हमने बात तुम्हारी मानी
लेकिन देखो गौर से देखो
इन बच्चों की आँखों में
शंकाओं के, संदेहों के
कितने बादल तैर रहे हैं
बेशक बालिग़ होकर ये सब
सपनों के उन हत्यारों का
सारा तिलस्म तोड़ डालेंगे...
बेशक अच्छे दिन आयेंगे
तब हम सब मिलजुल कर गायेगे
गीत विजय के दुहराएंगे....
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय अनवर सुहैल साहब, ग़ज़ब ग़ज़ब ग़ज़ब !
हृदय से धन्यवाद लीजिये व्यामोह की दशा से उबारने के लिए कही गयी गाथा के लिए. ऐसी कविताएँ तमाचे जड़ती हैं.
ख्वाबों के टूटने की ऐसी ही दशा को सुन्दर सी अभिव्यक्ति मिलने लगी थी, जब आज़ादी के बाद अवसरवादियों ने कमान सँभाल ली थी. अब फिर से स्वप्न भरे दिनों का गुब्बारा फुलाया जा रहा है.
आपकी संवेदशीलता को नमन.. .
सादर
आदरणीय सुहैल भाई , सुन्दर रचना के लिये बधाई !!!!!
आदरणीय सुहैल जी अच्छा मंथन किया है आपने बधाई आपको
सुन्दर कविता, बधाई आप को आदरणीय !
मित्र सुहैल जी
बहुत अच्छी कविता है i
आपको बहुत बहुत बधाई i
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