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कोयला खदान की
आँतों सी उलझी सुरंगों में
पसरा रहता अँधेरे का साम्राज्य

अधपचे भोजन से खनिकर्मी
इन सर्पीली आँतों में
भटकते रहते दिन-रात
चिपचिपे पसीने के साथ...

तम्बाकू और चूने को
हथेली पर मलते
एक-दूजे को खैनी खिलाते
सुरंगों में पिच-पिच थूकते
खानिकर्मी जिस भाषा में बात करते हैं
संभ्रांत समाज उस भाषा को
असंसदीय कहता, अश्लील कहता...

खदान का काम खत्म कर
सतह पर आते वक्त
पूछते अगली शिफ्ट के कामगारों से
ऊपर का हाल
कैसा है मौसम
आजकल मौसम का भी तो
नहीं कोई ठिकाना
जबकी उन्हें
खदान से निकल कर
बहुत दूर है जाना...
जिनके घरों में उनका
हो रहा होगा इन्तेज़ार...

सोख लेता खदान
बदन का पानी
लील लेता खदान
मन की उमंगों को
चूस लेता खदान
रही-सही ऊर्जा को
बचा रहता इंसान
बस इतना ही
कि अगले दिन
बदस्तूर खैनी की डिबिया
जेब में डाले
आ सके डियूटी पर....

                                        (श्रीयुत सौरभ पाण्डेय साहेब की सलाह पर अंतिम पंक्ति संशोधित की है,

                                          उनका शुक्रगुज़ार हूँ.....)

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Comment

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Comment by Ashok Kumar Raktale on May 23, 2013 at 11:39pm

आदरणीय अनवर सौहेल साहब, कष्टदायी जीवन में मस्त मौलापन का आनंद लेते खनि कर्मियों पर रची सुन्दर रचना के लिए सादर बधाई स्वीकारें.

Comment by JAWAHAR LAL SINGH on May 22, 2013 at 3:49am

खदान में काम करने वाले कर्मी जीवंत चित्रण!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on May 21, 2013 at 10:20pm

उफ्फ!!! कितनी कठिन परिस्थितियों में भी ज़िंदगी चलती है...

बस एक ही खुशी...खैनी की डिबिया.

खादानों में काम करते कर्मियों की ज़िंदगी पर बहुत ही सवेदन शील अभिव्यक्ति 

साधुवाद आदरणीय अनवर सुहैल जी.


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 21, 2013 at 12:04am

आदरणीय सुहैल साहब,  आपने मुझे बहुत बड़ी इज़्ज़त बख़्शी है.

हम समवेत सीखते हैं और अपनी-अपनी समझ साझा करते हैं.  आपका सादर आभार कि आपको मेरा कहा मायने का लगा.

सादर

Comment by बृजेश नीरज on May 20, 2013 at 11:30pm

एक नई जमीन की बात की है। मेहनतकश के संघर्ष को बहुत सुंदरता से रचना में गढ़ा है आपने। आपको ढेरों बधाई।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 20, 2013 at 2:32pm

एक प्रासंगिक कविता आदरणीय जिसकी साहित्य में अपनी विशेष ज़मीन है. बहुत सुन्दर गठन के साथ प्रस्तुत हुई है.

आखिरी पंक्ति ..आ जाता कामगार डियूटी पर...  सिर्फ़  आ सके ड्यूटी पर... .  करना अधिक सटीक होता.

बहुत बहुत बधाई आदरणीय.

सत्तर-अस्सी के दशक में भुरकुण्डा, झारखण्ड के ज़हीर नियाज़ी की इन्हीं विषयक रचनाओं से आपका गुजरना हुआ हो. आदरणीय ज़हीर नियाज़ी साहब उम्र में मुझसे काफी बड़े थे. तब मैं विद्यार्थी था.  लेकिन पठन-पाठन में अभिरुचि के कारण मित्रवत व्यवहार था. आज भी राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पत्रिकाओं या अखबारों के रविवासरीय परिशिष्टो में उनके लेख और रचनायें मेरी स्मृति का अभिन्न हिस्सा हैं. खान के कामग़ारों की बात औरहालात पर कार्यालय में उनका अपने वरिष्ठों मतान्तर बना ही रह गया. कम परेशान नहीं किये गये. 

Comment by राजेश 'मृदु' on May 20, 2013 at 1:20pm

खदान की जिंदगी, उसकी तड़प, उसकी उलझन का उम्‍दा चित्रण आपने किया है, इस संवेदनापूर्ण प्रस्‍तुति हेतु आपका मैं आभार प्रकट करता हूं, सादर

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 20, 2013 at 10:37am

खनी कर्मी की दिनचर्या का जीवंत दर्शन कराने और उनके शारीरिक मौसम का हाल बताने के लिए हार्दिक आभार 

श्री अनवर सुहैल भाई 

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