क्या करें,
इतनी मुश्किलें हैं फिर भी
उसकी महफ़िल में जाकर मुझको
गिडगिडाना नहीं भाता.....
वो जो चापलूसों से घिरे रहता है
वो जो नित नए रंग-रूप धरता है
वो जो सिर्फ हुक्म दिया करता है
वो जो यातनाएँ दे के हंसता है
मैंने चुन ली हैं सजा की राहें
क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे
सर झुकाना नहीं आता...
उसके दरबार में रौनक रहती
उसके चारों तरफ सिपाही हैं
हर कोई उसकी इक नज़र का मुरीद
उसके नज़दीक पहुँचने के लिए
हर तरफ होड मची रहती है
और हम दूर दूर रहते हैं
लोगों को आगाह किया करते हैं
क्या करें,
इतनी ठोकरें खाकर भी मुझको
दुनियादारी निभाना नहीं आता......
Comment
आदरणीय इस सुन्दर रचना हेतु आपको बधाई!
मैंने चुन ली हैं सजा की राहें
क्योंकि मुझको हर इक चौखट पे
सर झुकाना नहीं आता......एक खुद्दार और स्वाभिमानी व्यक्ति के लिए शायद ये विकल्प गलत बात के आगे सर झुकाने से कहीं बेहतर है
हार्दिक बधाई अनवर जी एक सच्ची रचना के लिए
आदरणीय अनवर सौहेल साहब सादर, बहुत सुन्दर रचना सादर बधाई स्वीकारें.
अपने मान सम्मान को जो गिरवी नहीं रखते वे कभी किसी के आगे गिडगिडाते नहीं है | इसी सारांश के साथ लिखी
गयी सुन्दर रचना के लिए बधाई भाई श्री अनवर सुहैल जी
किसी ख़ुद्दार की शख़्सियत वो क्या जाने जिनकी रीढ़ नहीं है. या, एक अहसास यह भी कि जब मैं थका-गिरा-हारा हुआ होऊँ तो हे ईश्वर तुम याद तक न आना. तुम्हारे करम और नेमतों तले जीता हुआ मैं तुम्हारे सामने खुद को इतना असहाय नहीं देख सकता.
इसी भाव-दशा को जीती आपकी रचना के लिए बधाई, आदरणीय अनवर साहब.
आ0 अनवर सुहैल जी, सही बात है! हम अपनी जरूरतों को प्रकट नही कर सकते हैं। हम समर्थ हैं। ’इतनी ठोकरें खाकर भी मुझको, दुनियादारी निभाना नहीं आता.....!’ जो करना है करें! बधाई स्वीकारें। सादर,
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