हम वो नही जो आपकी
चुटकी में मसल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
पैरों से कुचल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
डर से रण छोड़ जाएँ
हम वो नहीं जो आपकी
भभकी से सिहर जाएँ
जुल्मो-सितम की आंधी
यातनाओं के तूफ़ान में भी
देखो तने खड़े हम
किसी पहाड़ की तरह
खुद्दारी और खुद-मुख्तारी
यही तो है पूंजी हमारी...
उन जालिमों के गुर्गे
टट्टू निरे भाड़े के
हथियार छीन लो तो
रण छोड़ भाग जाएँ
बेशक हैं हम निहत्थे
बेशक हैं हम बिखरे-बिखरे
लेकिन हमारे सीने
बेफिक्र और बेधड़क हैं
हम खुद ही बादशाह हैं
हम खुद ही हैं सिपाही....
Comment
आपको बधाई! निश्चित तौर पर हम बादशाह हैं!?
बहुत खूब कहा सर जी
सादर बधाई
सुन्दर रचना आदरणीय अनवर सुहेल साहब.
खुद्दारी और खुद-मुख्तारी
यही तो है पूंजी हमारी... वाह ! बहुत खूब
बेशक हैं हम निहत्थे
बेशक हैं हम बिखरे-बिखरे
लेकिन हमारे सीने
बेफिक्र और बेधड़क हैं
हम खुद ही बादशाह हैं
हम खुद ही हैं सिपाही.... इसी पर तो हमें गर्व है, यही तो हाम्र इंसानी धर्म है, यही तो भारतीय का शास्वत धर्म है,
भाई श्री अनवर सुहैल जी, एक और सुन्दर कविता, आप द्वारा सापेक्ष रचना धर्मिता कर्म निभाया जा रहा है हार्दिक बधाई दाद कबूले
anwar suhail जी सुन्दर भाव लिए कविता... एक आम आदमी का जीवट दर्शाती !
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