कोई तोड़ दे
उसका सर
जोर से
मार कर पत्थर
हो जाए ज़ख़्मी वो
कोई दे उसे
चीख-चीख कर
गालियाँ बेशुमार
कि फट जाएँ उसके कान के परदे
घर या दफ्तर जाते समय
टकरा जाए उसकी गाडी
किसी पेड़ या खम्भे से
चकनाचूर हो जाए उसकी गाडी
और अस्पताल के हड्डी विभाग में
पलस्तर बंधी उसकी देह गंधाये...
और एक दिन
सुनने में आया
कि किसी ने उसके सर पर
....मार दिया पत्थर
कि किसी ने उसे बीच चौराहे
...जी भर गरियाया है
कि लड़ गई उसकी गाडी
किसी बाउंड्रीवाल से या ट्रक से
जानते इतिहासकार
कि डरपोक हैं वे
कायर हैं वे
पहचान लिए जाने से
डरते हैं वे....
इसीलिये उठा नहीं सकते वे
कोई परिवर्तनकारी कदम
उनसे डर कर
उनके खिलाफ वे नहीं आते
वे सिर्फ
मानते हैं मन्नतें
करते है पूजा-अरदास
और ज्यादा हुआ तो
देते हैं उसकी ह्त्या की सुपारियाँ
वो मरता नहीं है
वो कभी भी नहीं मरता....
(मौलिक अप्रकाशित )
Comment
आदरणीय अनवर सुहैल जी
आज की व्यस्था में पसरे गुंडाराज पर जम कर आक्रोश बरसा है आपकी अभिव्यक्ति में साथ ही भीरु मन की लाचारी भी व्यक्त हुई है.. सार्थक अभिव्यक्ति के लिए शुभकामनाएँ
आदरणीय सुहैल जी, सादर अभिवादन.
आपके अन्दर के दर्द को समझा जा सकता है बेहतरीन कोसा काटी ... सादर!
बेहतरीन रचना के लिए हर्दिक्ब बधाई
गजब गजब गजब
आदरणीय-
इतना रोष इतना क्षोभ ।
वो दुष्ट तो यह पढ़ कर ही मर जाए-
शुभकामनायें स्वीकारिये-
सादर
कोसा-काटी कोहना, कुल कौवाना व्यर्थ ।
दुष्कर्मी दुर्दांत यह, सचमुच बड़ा समर्थ ।
सचमुच बड़ा समर्थ, पाप का घड़ा बड़ा है ।
हरदम जिए तदर्थ, अडंगा कहाँ पडा है ।
कह रविकर कविराय, कीजिए किन्तु भरोसा ।
वही दंड यह पाय, आपने जैसे कोसा-
कोसा-काटी = गाली दे दे कर कोसना -
कौवाना = अंड-बंड बकना
बहुत ही सुन्दर! हार्दिक बधाई आपको! |
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