जाने क्या सोचकर
.......उसने भेजा
एक गुलाब
एक मुस्कान
एक चितवन
एक सरगोशी
एक कामना
एक आमंत्रण
और मैंने पलटकर
उसकी तरफ देखा भी नही
भाग लिया
उस तरफ
जहां काम था
चिंताएं थीं
अपूर्णताये थीं
सुविधाएं थीं
अनुकूलताएँ थीं
थकन और
स्वप्न-हीन निद्रा थी...
मुंह बिचकाकर
हँसते हुए उसने कहा--
सपनों के बिना जीवन कैसा
मैंने अपने कपड़ों को टटोला
कहीं मैंने कफ़न तो लपेट नही रक्खा...?
---------------------अ न व र सु है ल -----------
(मौलिक अप्रकाशित)
Comment
निर्लिप्तता को ऐसा बिम्ब ! आपसे अनायास साझा कर रहा हूँ, आदरणीय अनवर साहब, कि अरसे बाद आपकी इतनी सशक्त कविता पढ़ रहा हूँ. और मन इस कविता के विस्तार पर मुग्ध है.
श्रीमद्भगवद्गीता में एक श्लोक है -
विहाय कामन् यः सर्वान् पुमांश्चरति निस्पृहः
निर्ममो निरहंकारः स शांतिम् अधिगच्छति ॥
जो मनुष्य अपनी समस्त इच्छाओं से परे निस्पृह और बिना मोह या कर्ताभाव के अहंकार के बर्ताव करता है वही मूलतः परम शांति का अधिकारी है.
उपरोक्त श्लोक के सापेक्ष आपकी प्रस्तुत कविता को देखा जाय, तो कई-कई कर्तव्यों के मध्य की ऊहापोह सामने आती है.
आपकी इन पंक्तियों को देखें --
मैंने पलटकर
उसकी तरफ देखा भी नही
भाग लिया
उस तरफ
जहां काम था
चिंताएं थीं
अपूर्णताये थीं
सुविधाएं थीं
अनुकूलताएँ थीं
थकन और
स्वप्न-हीन निद्रा थी...
तभी तो शांति की अपेक्षा शरीर से लिपटे कफ़न सा अंतिम सत्य की तरह प्रतीत होती है.
मुंह बिचकाकर
हँसते हुए उसने कहा--
सपनों के बिना जीवन कैसा
मैंने अपने कपड़ों को टटोला
कहीं मैंने कफ़न तो लपेट नही रक्खा...?
यह उपालम्भ नहीं स्खलित पौरुष का मूढ़ प्रारूप है. इसे उसीसे कवि ने कहवाया है जिसका ऐसा हक़ बनता है.
इस प्रस्तुति के लिए सादर आभार आदरणीय.
शुभ-शुभ
जब ज़िंदगी की आपाधापी पल पल में व्याप्त खूबसूरती को जीने का अवसर ही न दे, भाव शून्य कर दे... तो यूं ही लगता होगा //कहीं मैंने कफ़न तो लपेट नही रक्खा...?//
प्रस्तुति की विषय वस्तु पसंद आयी.
बधाई स्वीकारें
जीवन गीत सुनाती रचना..................एक पलों में १०० पलों की बता.....बहुत खूब...........
बहुत प्रभावशाली रचना आदरणीय अनवर साहब, हार्दिक बधाई स्वीकारें
इस सुंदर रचना पर मेरी तारा से हार्दिक बधाई सादर
बहुत बहुत सुन्दर ... ढेरों बधाइयाँ
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