एक आंधी सी उठे है अन्दर
एक बिजली सी कड़क जाती है
एक झोंका भिगा गया तन-मन
इस बियाबां में यूँ ही तनहा मैं
कब से रह ताक रहा हूँ उसकी...
वो जो बौछार से टकराते हुए
एक छतरी का आसरा लेकर
इक मसीहा सा बन के आता है
मुझको भींगने से बचाता है...
हाँ...ये सच है बारहा उसने
मेरे दुःख की घडी में मुझको
राहतें दीं हैं....चाहतें दीं हैं....
और हर बार आदतन उसको
सुख के लम्हों में भूल जाता हूँ
वो मुझे दुवाओं में याद करता है
और मैं दुःख में उसे याद करता हूँ....
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
बहुत सुन्दर रचना .... बधाई
आदरणीय अनवर जी वास्तविकता यही है हम ईश्वर को तभी याद करते हैं जब हम किसी संकट में होते हैं बहुत ही सुन्दरता से लिखी गई खूबसूरत प्रस्तुति .. रह को राह कर लीजिये टाइपिंग मिस्टेक हो गई है. इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकारें.
सुंदर प्रस्तुति बधाई ।
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