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आदरणीय साहित्य प्रेमियो,

जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर नव-हस्ताक्षरों, के लिए अपनी कलम की धार को और भी तीक्ष्ण करने का अवसर प्रदान करता है. इसी क्रम में प्रस्तुत है :

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-168

विषय : "विषय मुक्त"

आयोजन अवधि- 16 नवंबर 2024, दिन शनिवार से 17 नवंबर 2024, दिन रविवार की समाप्ति तक अर्थात कुल दो दिन.


ध्यान रहे : बात बेशक छोटी हो लेकिन 'घाव करे गंभीर’ करने वाली हो तो पद्य- समारोह का आनन्द बहुगुणा हो जाए. आयोजन के लिए दिये विषय को केन्द्रित करते हुए आप सभी अपनी मौलिक एवं अप्रकाशित रचना पद्य-साहित्य की किसी भी विधा में स्वयं द्वारा लाइव पोस्ट कर सकते हैं. साथ ही अन्य साथियों की रचना पर लाइव टिप्पणी भी कर सकते हैं.

उदाहरण स्वरुप पद्य-साहित्य की कुछ विधाओं का नाम सूचीबद्ध किये जा रहे हैं --

तुकांत कविता, अतुकांत आधुनिक कविता, हास्य कविता, गीत-नवगीत, ग़ज़ल, नज़्म, हाइकू, सॉनेट, व्यंग्य काव्य, मुक्तक, शास्त्रीय-छंद जैसे दोहा, चौपाई, कुंडलिया, कवित्त, सवैया, हरिगीतिका आदि.

अति आवश्यक सूचना :-

रचनाओं की संख्या पर कोई बन्धन नहीं है. किन्तु, एक से अधिक रचनाएँ प्रस्तुत करनी हों तो पद्य-साहित्य की अलग अलग विधाओं अथवा अलग अलग छंदों में रचनाएँ प्रस्तुत हों.
रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना अच्छी तरह से देवनागरी के फॉण्ट में टाइप कर लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें.
रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका न लिखें, सीधे अपनी रचना पोस्ट करें, अंत में अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल आदि भी न लगाएं.
प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार केवल "मौलिक व अप्रकाशित" लिखें.
नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
सदस्यगण बार-बार संशोधन हेतु अनुरोध न करें, बल्कि उनकी रचनाओं पर प्राप्त सुझावों को भली-भाँति अध्ययन कर संकलन आने के बाद संशोधन हेतु अनुरोध करें. सदस्यगण ध्यान रखें कि रचनाओं में किन्हीं दोषों या गलतियों पर सुझावों के अनुसार संशोधन कराने को किसी सुविधा की तरह लें, न कि किसी अधिकार की तरह.

आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है.

इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.

रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. अनावश्यक रूप से स्माइली अथवा रोमन फाण्ट का उपयोग न करें. रोमन फाण्ट में टिप्पणियाँ करना, एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो - 16 नवंबर 2024, दिन शनिवार लगते ही खोल दिया जायेगा।

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मंच संचालक

ई. गणेश जी बाग़ी 
(संस्थापक सह मुख्य प्रबंधक)
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सादर अभिवादन।

बेटी (दोहे)
****
बेटी को  बेटी  रखो,  करके  इतना पुष्ट
भीतर पौरुष देखकर, डर जाये हर दुष्ट।।
*
बेटा बेटा  कह  नहीं, बेटी  ही नित बोल
बेटा कहके कर नहीं, कम बेटी का मोल।
*
करती  दो  घर एक है, बेटी  पीहर छोड़
कहे पराई पर उसे, जग की रीत निगोड़।।
*
करना कच्ची नींव पर, बेटी का निर्माण
होता नहीं समाज का, ऐसे जग में त्राण।।
*
बेटी को मत दीजिए, अबला है की सीख
कर्म उसी के गेह  से, रहे चाँद तक चीख।।
**
मौलिक/अप्रकाशित

सतरंगी दोहेः

विमर्श रत विद्वान हैं, खूंटों बँधे सियार ।
पाल रहे वो नक्सली, गाँव, शहर लाचार ।।

राजनीति के नाम पर,  ताज़       गुण्डई आज ।
एम. एल. ए. ही भोगता,सकल सुविधा स्वराज ।।

लोकतंत्र हित वो करें, भीड़-तंत्र मजबूत ।
जनमानस को मिल रहे लाठी-डंडे जूत ।।

खोखले व्यवहार हुए, झूठ आचरण साज़।
बनावटी संवेदना, नकल    रही सरताज़।।

बाँट रहे वो देश को, जाति - पंथ        आधार ।
करें विभाजन रक्त का, मज़हब और विचार ।।

मौलिक एवम् अप्रकाशित

आ. भाई चेतन जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।

रोला छंद . . . .

हृदय न माने बात, कभी वो काम न करना ।
सदा सत्य के साथ , राह  पर  चलते  रहना ।
पथ में  अनगिन  शूल , करेंगे   पैदा   बाधा ।
जीवन का संकल्प , छोड़ना कभी न आधा ।
***
जब तक तन में साँस , बहे यह   जीवन   धारा ।
विपदाओं  से  यार, भला   कब   जीवन   हारा ।
सुख - दुख का यह चक्र , सदा से चलता आया ।
उस दाता के खेल,  जीव यह  समझ  न   पाया ।
***
जब होता  अवसान ,मृदा  में  मिलती  काया ।
जब तक चलती साँस , साथ में चलती छाया ।
भोगों में  यह  जीव , सदा  ही  लिपटा  रहता ।
भक्ति भाव को छोड़, काम को जीवन कहता ।

सुशील सरना / 17-11-24

आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर छंद हुए हैं। हार्दिक बधाई।

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार 

आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई। स्वाभाविक है,आयोजन की नियमावली को आपने कदाचित नहीं पढ़ा और, न ही नियमानुसार प्रस्तुति दी है । आदरणीय, वस्तुतः आपकी प्रस्तुति

ता हूँ

यादों की बारात सजेगी वो घर मेरे
यह बात तुम्हें भी बताना चाहता हूँ

ज़रा करके देखूँ मैं भी इश्क यारो
किसी नाज़नी को रिझाना चाहता हूँ

बड़े सर्द ज़ज्बात उनके हो गए हैं
कहीं मर कर वफ़ा निभाना चाहता हूँ

लिखू आखिरी ख़त उसको रस्मन ही,
मै अभी अपनी हीर को मनाना चाहता हूँ

कर बेटियों की शादियाँ धूमधाम से ,
बस अब तो गंगा नहाना चाहता हूँ

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

न हुई गर दिल्लगी, दिल की लगी, चेतन
मज़ा न आशिक़ी कहीं जताना चाहता हूँ

कोना- कोना वन बिका, बचा न कोई छोर ।
गौरैया हम ढूढ़ते, और मोरनी - मोर ।।

बड़ा रंज है मशविरा देने में दोस्त
उतार आज डाली वो दस्तार उन्होंने

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

रही तीरगी चार सू है भगाओ प्रिये
ख़ुशी का दिया फिर जलाओ प्रिये

निभाओ धरम अपना कि आओ प्रिये
लड़ो देश हित और जाओ प्रिये

लिया जन्म तुमने जियो देश हित
जो भारत के दुश्मन भगाओ प्रिये

न उम्मीद है माँ आँज कोई कहें
खिलाएंगे गुड़ गर्म आओ प्रिये

कि दीदावरों से है ये दुनिया अभी
लगा रोली-चंदन बुलाओ प्रिये

कहीं दिलजले वो गर इस मुल्क़ हैं
बनाना है भारत बुलाओ प्रिये

कि मैं अजनबी एक शायर रहा
तख़ल्लुस है, चेतन बताओ प्रिये

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

सेवा अपने देश की, ईश - स्तुति तू जान ।
सर्व-श्रेष्ठ यह साधना, बना राष्ट्र पहचान ।।

रक्षा बंधनः सार छंद
काले - काले बादल छाये, कुहु-कुहु कोयल बोले।
कजरी गायें सजनी बहिना, बँधवा ...राखी.. भोले ।
इन्तजार करती दोनों ही, भावुक हो मन उसका ।
साजन भगिनी भाई बहिना, आयेगा कुछ झिझका।

रक्षा बन्धन त्योहार रँगीला, बाँधे ... राखी ...बहिना।
रात रसीली सहज बिछौना, सजनी-साजन गहना।
रंग बिरंगी... उड़ें...पतंगें , लाल हरी औ काली ।
हलकी हलकी चलें हवायें, रुत होते... हरियाली।

मौज आ गई लो बच्चों की, करते हल्ला - गुल्ला।
खाते ..बच्चे खीर ...मलाई, गप करते रसगुल्ला ।
शाम ...ढले वो... मेले - ठेले, गाँव बजे शहनाई।
खूब सजी महफिल चौपालों, सबने कजरी गाई।
122 122 122 12

न तुम हार मानो कभी ज़िन्दगी
खुशी का दिया फिर जलाओ प्रिये
2122 2122 2
हो चुका था

तुम होते हो अच्छा लगता है
2122 2122 2
सारा आलम घर सा लगता हो
क्यों ज़ियादा हँसते हो तुम जाँ

1212 1122 1212 22 (11)

ज़मीर मर गया आदम ज़मीं उतरना है
ख़ुलूस जा चुका है ज़िन्दगी उबरना है

नकाब डाल डक़ैती अदीब कर रहे हैं
वो शह्र शह्र बो रहे ज़ह्र उन्हे तो मरना ह
चल तेरे इश्क में पड़ जाते हैं
वजूदों ते रे गड़ जाते हैं
नही तू भूल पाएगा हमें
हम तेरी शक्ल गढ़ जाते हैं

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
हुआ खत्म वनवास लौटै हैं राजा
वो राम अब पुनः राजधानी जला जा
दिये तू हजारों अयोध्या सदाकत
है क्षण ये गौरव कई दीप जला जा

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
दीप दलाओ अन्तस के तुम सत्य जान पाओगे
दिये जलाकर एक रात नहीं कर्तव्य जान पाओगे

2122 1212 22
abr utrā hai chār-sū dekho
ab vo nikhregā ḳhūb-rū dekho

surḳh īñToñ pe nāchtī bārish
aur yādeñ haiñ rū-ba-rū dekho

aise mausam meñ bhīgte rahnā
ek shā.er kī aarzū dekho

vo jo zīna-ba-zīna utrā hai
aks merā hai hū-ba-hū dekho

apnī socheñ safar meñ rahtī haiñ
us ko paane kī justujū dekho

dil kī duniyā hai dūsrī duniyā
aise manzar ko bā-vazū dekho

ik sukūñ hai agarche bastī meñ
'sād' andar kī hāo-hū dekho

ओढ़ लेता नकाब कमबख़्त राक्षस
आदमी अपने आप को भगवान लेता है
ओढ़ लेता नकाब कमबख़्त शैताँ है
तरही ग़ज़लः

1212 1122 1212 22
कि फ़ासले यहीं मिट जाते गुफ़्तगू करते

कसक ता उम्र रही तेरा आईना होते
सुहानी सुब्ह तिरी दीद रू ब रू करते

सुहाती धूप में जाड़ों की वस्ल होता जाँ
जवाँ ये जिस्म होता दीद हू ब हू करते

फ़ज़ा में भर गयी नफ़रत वो जह्र चार सू है
कि मज़हबी बने हम सब वो हाय हू करते

तुम्हारे दिल पे क़यामत से मुहब्बत तारी है
वगरना तुम जहाँ बद बू ही चार सू करते

हरेक दिल में बसा ज़ज़्बा प्यार का है जाँ
मुहब्बत ही ख़ुदा इन्सां वो चार सू करते

सिवा तिरे जँचा कुछ भी नहीं कहीं जानाँ
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते ( गिरह )

कहाँ जाऊँ कहूँ किससे अकेले ज़िन्दगी हम
चले आओ अभी चेतन कि गुफ़्तगू करते

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

करो ..वार.. आतंक पर, घाटी.. हो.. परिवार।
मत बहकाओ देश को, काटो जड़ इस बार ।।
अक्कासीः

बा ख़ुदा मर जाएंगे हम तुम बिन
जा ने जाँ मत छोड़कर जाओ अब

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

एक शेर

1222 1222 1222

बने उस्ताद आलिम अपने फ़न के हम
तुम्हारे आसरे होते फ़ना जाँ करते

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
1212 1122 1212 112

हर आदमी कहीं अपना वजूद चाहता है
दिमाग में जो है सोचा वजूद चाहता है
जो मुमकिना रहे अंजाम ज़िन्दगी ख़्वाब के
वो अपने घर में सजाना वजूद चाहता है

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

मैं फ़ना जो रहा हूँ उस ख़ुदा के हुस्न का तो
आपके मिलने का होगा जिसे अरमाँ होगा

नहीं सुहानी डगर ज़िन्दगी वो सच उलट है
सँभल के चलना है तुमको तमाम उम्र यहाँ

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

पोमनपसंद
स्ट ः
221 1221 1221 122

मक़तल वो इदारा बना झाँका नहीं जाता
क़ातिल ने किया ज़ुल्म वो देखा नहीं जाता

तमगे मिलें मसनद से शहीदों की ही बेवा
दौलत के मरीज़ो को बुलाया नहीं जाता

हालात अभी मुल्क़ के बेहतर तो नहीं हैं
वो फ़र्ज़ सियासत जो सिखाया नहीं जाता

बंगाल तो इज़्ज़त ख़वातीनों की नहीं है
कानून वो बदहाल जो भुलाया नहीं जाता

हालत बुरी ममता की जो सरकार वहाँ है
क्यों अब भी तो मसनद को गिराया नहीं जाता

ताले लगे हैं मुँह पे शरीफ़ों के अभी हैं
चेतन खुली आँखो से भी देखा नहीं जाता

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

कोकीन एक हाथ में, दूसरे में कुरान
कसम खुदा की खा रहा, बेचूँगा भगवान

221 1221 1122 1222
सब सीख के उसका कहा माना नहीं जाता
हक़ यूँ किसी उस्ताद का मारा नहीं जाता

आज़ाद किसी शख़्स को रोका नहीं जाता
गर है वो भगत सिंह तो झुकाया नहीं जाता

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
अक्कासीः

मुट्ठी में अब सिमट गयी दुनिया की ये दूरी
हर बार वस्ल होती रही मीलों भले दूरी
होता सुकून कुरबतों का हमको ज़िन्दगी,
इससे हो आशिक़ी अभी चाहे रहे दूरी

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

2122 1122 1122 212

फ़र्ज़ पहले...निभाये तो बने हक़दार हम
खून देकर ही सियासत में हैं सरदार हम
रदीफ. सी हो गई है

बदला सा लग रहा है कहीं मंज़र अभी
हर शय अज़ीब सी हो यहाँ जो गई है

प्रोफ. चेततन प्रकाश चेतन

क्यों ज़ियादा हँसते हो यारा
सारा आलम जब कि रोता है
हम से जानाँ लड़ते क्यों थे तुम
तुम नहीं हो डर सा लगता है

गीत.....

देश धर्म ही सबसे पहले हैं
माँ-माटी रिश्तों से महके हैं
रक्खा सँभाल हमने नातों को,
आज बहन-भाई वो चहके हैं

रक्षक हैं हम अपनी बहनों के
बँधवा बन्धन प्रसन्न लड़के हैं

लड़के ही तो लड़ते हैं माँ-हित
माँ-भारती लाड़ले तो सबके हैं
अरि से लड़ते है सीमा पर वो
देख दरिन्दे अन्दर दहके हैं

छुपे हुए आस्तीन भी कुछ हैं
देते शह जिनको घर ही के हैं

अब रक्षा सूत्र बँधा लो भाई
शत्रु भारती चहुँ दिशि भड़के हैं
तुम्हीं भगत सिंह शेखर सुभाष हो
खतरे माँ-बहने वो दिल धड़के हैं

देश धर्म ही सबसे पहले हैं
माँ-माटी रिश्तों से महके हैं ।

इक चीन-पाक की दुरभि संधि है
बँगला देश खिड़कियाँ दरके हैं
अंकल सैम शत्रु चुप कब बैठा
स्थिर सरकारे आँखों खड़के हैं

कभी अरब ईरान बंग देश अब
अमरीकी जल काफी सुड़के हैं

धर्म निभाना हम को भी अपना
करो मार वो अरि-दिल धड़के हेंं

रक्षाबन्धनः

विश्वास भाई जो बहन को देता उम्र भर
मैं साज़गार हूँगा तेरा ज़ीस्त जान ले ।

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

बाढ़ गाँव दिन दूसरे, आती ..कई प्रदेश ।
दरकती ज़मी पर्वतों,बढ़ता केरल क्लेश।।

दकियानूसी सोच है,

मुफलिसी का तोड़ कोई, रास्ता निकला नहीं
कई सदिया हार चुकी पर नक्श-ए-पा निकला नहीं
है जमानाअब अमीरों का और सय्याद क़ातिल है
रोज़ ही मज़लूम पिसता हल बजा निकला नही

तस्वीर के हवाले सेः

तोड़ती पत्थर है बच्ची मुफ़लिसी मज़बूर करती
बोझ सहती महजबीं है, ज़िन्दगी मज़बूर करती
खेलना बचपन था उसको कूदना रस्सी जो अभी
बदनसीबी ज़ीस्त उसको हाल की मज़बूर करती

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
एक शेर

बड़ी आरज़ू थी कि बरसात होती
फटा आसमाँ झोंपड़ी मेरी डूबी

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
तरही ग़ज़लः

1222 1222 1222 1222
बहस ऐसी है शय जिसका कोई काइल नहीं होता
न कोई उसका ख़ालिक़ है कहीं माइल नहीं होता

मुसलसल जो ग़जल शायर सुनाते नज़्म ही तो है
ये वो दरिया है जिसका कोई भी साहिल नहीं होता

ये दुनिया कैसी मज़लिस है मसाइल हल हुए होते
अगर वो मसअले हल होते इजराइल नहीं होता

रहे ताउम्र मुफ़लिस जेल में वो दिल कहाँ रोया
बहुत पढ़कर बने थे जज़ वो क्या ज़ाहिल नहीं होता

कि सहरा है ये दुनिया और चारों सू अँधेरा है
न चारागर कोई आदम ख़ुदा क़ाइल नहीं होता

रज़ा होती ख़ुदा तेरी वो मंज़िल मिल गयी होती
के होते मसनदों हम रास्ता हाइल नहीं होता

हमारी कोशिशें अंजाम तक चेतन नहीं पहुँची
वगरना क्या किसी दरिया अभी साहिल नहीं होता

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

एक शेर

ख़ुलूस कब का मर चुका है यार
है राबतों को मोहलत चार दिन

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
एक शेर

ख़लिश कहूँ या कि है दोस्त वो कमतरी मेरी
कि मुझको जाँ नहीं जीने जीने ख़ुलूस-ओ-फ़न देती

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

तसव्वुर में किसी के कौन रहता आज है यारो
बनावट के उसूलों में अमल सारे ही झूठे हैं

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

उन्वानः हिमायत

मदद इन्सान की आदम हमेशा फ़र्ज़ तेरा है
हिमायत में सियासत यार मत हरगिज़ किया कर

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

तस्वीरी शेरः

हुई मुद्दत वो लड़की खेत जोता करती थी गाँवों
न वो जोड़ी अभी बैलों की खेतों और ना लड़की

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

गरिमा लोकतन्त्र अभी, खतरे में तू जान।
बेअदब होता विपक्ष, हल्ला-गुल्ला शान।।
गिरहबंद शेर
221 2121 1221 212

तुझ सा तो कोई है नहीं आशिक मिरा जहाँ
ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

नेता ..विपक्ष.. वो रहा, झूठों ..का.. सरदार ।
खून मुँह चुनावों लगा, लो सफल सरोकार ।।
उन्वानः भरोसा
2112 1212 2112 1212

ख़ून भरोसे का हुआ ख़त्म हुए दर-ओ- दीवार
ख़ाक वजूद आपका करते रहो ख़ुलासा यार

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
जय श्री राम

ख़ुद पर करो भरोसा तो ख़ुदा साथ हो जाए
चलता रहा डगर अलग वो जुदा साथ हो जाए
1212 2122 22

अजब बग़ावत हवाओं में है
बुरी कोई लत हवाओं में है

कहीं सियासत बताई जाती
यहाँ अदावत हवाओं में है

उठा है तूफ़ाँ समन्दर है जो
अभी हरारत हवाओं में है

ख़ुदारा दर पुराना तो क्या सही
गिरहबंद क़तअः
1212 1122 1212 112

किया है ज़ुर्म कोई मैंने दाग जाए मुझे
गुनाहगार हूँ पिंजरे में डाल आए मुझे
परेशाँ हूँ पशेमाँ तो नहीं हूँ वो कहाँ है
वो बदगुमा है तो सौ बार आजमाए मुझे

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

रदीफ़ ः मानो तो
2122 1212 212

सच का कोई नहीं ख़रीदार अब
दोस्त इक बार बात यह मानो तो
आँखे खोलो ये सच कबूलो दुनिया
ज़िन्दगी साज़ होगी तुम मानो तो

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

रदीफ़ः आए
221 2121 1221 212

वो आए ज़िन्दगी में कि हँसने लगे गुलाब
सावन बहार आयी सुकूँ दिल वो जो आए

प्रोफ़ चेतन प्रकाश चेतन

तरही ग़ज़ल ः
22 22 22 22 22 2

ख़ुशफ़हमी में रहने वाले अबभी हैं
जुगनू जैसे मस्त जियाले अब भी हैं

मस्ती करके रोने वाले अब भी है
आवारा बन जीने वाले अब भी हैं

लेकर क़र्ज़ पिलाने वाले अब भी हैं
घर का दिया बुझाने वाले अब भी हैं

अपने ख़ूं से रौशन चराग़ दर करते
शाम ढले घर आने वाले अब भी हैं

किसको दोस्त कहें और किसको दुश्मन हम
आस्तीन में रहने वाले अब भी हैं

दर-ब-दर घूमते नौजवान पढ़ लिखकर
बहलाने फुसलाने वाले अब भी हैं

बोल बोलकर मीठे चेतन धकियाते
हँस-हँस कर बतियाने वाले अब भी हैं

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
एक गीतः

रिमझिम रिमझिम बरसा सावन
हरषाई आँगन खुशहाली
समा गया धरती जो जल है
खेत जुते हँसती भू आली

खूब पौध लगाओ धरा तुम
जल - थल जीवन हरियाली

कोयल बोल रही है कू-कू
मानो घोल रही वो मधु प्याली
सारा आलम मस्ताया है
भँवरा डोल रहा है डाली

गुलशन में अब फूल खिले हैं
हँसती हर मंदिर की थाली

मेघ झरे मधुरा-मन डोले
याद सताए बैठे ठाली
उठा फोन मोबाइल वो तो
रोती - हँसती मतवाली

प्रेम-ज्वार वो उठा यकायक
मेघ करे अब झोली खाली

होती मान-मनौवल फिर जो
भेंट प्रिया कि तीज हरियाली
हुआ सुहावन प्रिय का फेरा
नहीं जरूरी आँसू घड़ियाली

तुम भी सखी कहीं मिल जाओ
जख़्म हरे कर जाओ आली

लगे अभी हम जिन्दा है प्रिय
जल - थल जीवन हरियाली

मौलिक एवम् अप्रकाशित

रिज़्क रोटी वो मादरे वतन सबका हुआ है
जन्मा इक ख़्वाब ले यहाँ रहन सबका हुआ है

जब अलग कुछ नहीं बता रहा बाक़ी वो क्या है
फिर जुदा क्यों वो रास्ता सहन सबका हुआ है

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

दोहावलीः

अपना भारत एक है, यहाँ विविध आचार ।
गाँवों मे जब बाढ़ है, शहर होत व्यापार ।।

लोक सभा जब हो चुके, कुल चुनाव सम्पन्न ।

तैयारी.. होने .. लगी, भारती.. उपचुनाव ।।

हुई अभी अधिसूचना , रुके कार्य सरकार ।
बनते-बनते पुल रुका, जनता है बेज़ार ।।

कोई भी सुनता नहीं, पीड़ा गाँव गरीब ।
उपचुनाव ही खास है, चाहे मरे अदीब ।।

उम्मीदवार जो करे, अब साष्टांग प्रणाम ।
वही बनाएगा तुम्हें, अपना सही गुलाम ।।

बतलाकर प्रतिनिधि तुम्हें, सौ ..करवाये काम ।
बेनामी.... ठेका... छुटे, मिले माल हर शाम।।

काम हुए कुछ कागजी, सारा माल हराम ।
मिलकर... ठेकेदार से, खूब लड़ेंगे जाम ।।

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

मौलिक व अप्रकाशित

गिरहबंद कत्अः
122 122 122 122

तेरे प्यार से घर बसा चाहता हूँ
तुझे बा र हा देखना चाहता हूँ
बहारों में फूलों के डेरे लगे हैं
हमेशा रहूँ प्यार तेरा ही जानाँ
मेरी सादगी देख क्या चाहता हूँ

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

रू ब रू साथ रह सके न तेरे
होसला साज़ रख रहे न तेरे
कर्ज़ तेरा उतार सकते थे हम
ज़िन्दगी ..पासवाँ बने न तेरे

1212 1122 1212 22

तुम्हारे हाथ में रक्खा है क्या डराने को
मिटा दी तुमने वो हस्ती हमें मिटाने को

तराने रोज़ नये गाते ठग रिझाने को
बदलते रंग वो गिरगिट हमें लुभाने को

वो लुत्फ़ अब नहीं आता उन्हें फसाने में
लगाते आग हैं आशिक वफ़ा मिटाने को

बचा खुचा वो भी अख़लाक़ नवजवाँ भूला
न जाने क्या हो गया आशना ज़माने को

उजाड़ क्यों रहे हो तुम हरी भरी बस्ती
लगेगा वक़्त तुम्हें गाँव फिर बसाने को
एक शेरः

ख़ुदा का तू कहीं दरवेश भारती गर था
हुआ ये क्या मेरे रहबर तेरे फ़साने को

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

ये जो ज़ख़ीरा भी तूने सनम ज़मीं जोड़ा
बचेगा क्या मिरे हमदम तुझे दिखाने को

जो बात बात पे यह दिल दुखाते हो यारो
मिलेगा क्या तुम्हें मौक़ा सदा रुलाने को

कि मुसकुरा ते थे सब लोग जाने-अनजाने
ज़रा सी देर में क्या हो गया ज़माने को

जुनूनी वो रहे दहशत मुरीद ख़ार-ए-चमन
कि दे रहे सदा रहबर उन्हें बुलाने को

जो आप आतंकी को कह रहे शहरी
फ़ज़ा बिगाड़ते हो सिर्फ़ वोट पाने को

हमारे दोस्त ही चेतन हुए खिलाफ सभी
पता नहीं हुआ क्या है अभी ज़माने को

मौलिक एवम् अप्रकाशित

जगत से जाति पूछते, बतलायें खुद आप ।
दत्तात्रेय ..ब्राह्म्ण.. हैं,या कि झूठा प्रलाप ।।

उम्र गुजरी थी अकेले दिल वो मक़तल आ गया
आख़िरश हम रहे बंदी मुमकिना पल आ गया
आबशारो थे बसेरे रह रहे हम गाँव थे
आग पानी में लगी ऐसी कि दरिया जल गया

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

अल्लामा इकबाल

तरही ग़ज़ल
2122 2122 2122 212

ख़त लिखा जो आख़िरी वो दिलरुबा मौजूद है
देख वो दिल पर मेरे अब तक लिखा मौजूद है

बारहा आती क़ज़ा ज़िन्दा रहें हम मौत में
रुह कभी मरती नहीं है, जा ब जा मौजूद है

ज़िन्दगी कब जोड़ तेरा मुन्तज़िर हर शख़्स है
हारती ..जाती.. वफ़ा पर ..दब दबा मौजूद है

बढ़ता जाता है तशद्दुद मज़हबी दुनिया अभी
फिर मुसलमाँ और यहूदी मसअला मौजूद है

आशनाई अब फँसाना जान प्यारी हो गयी
आशिक़ी ज़िन्दा है लेकिन हर दग़ा मौजूद है

दिल दुखाते लोग लेकिन ज़िन्दगी गाती रही
वज्ह सारी है यही चेतन मज़ा मौजूद है

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

वृक्ष हुए हैं दर ब दर, पर्वत खर पतवार
नदी ..बहाती है धरा, बाँध हुए दरकार

जलावतन जंगल हुए, बाढ़ रही घर मार
झर-झर गिरे पहाड़ हैं, धरती हाहाकार

तरही ग़ज़ल
2122 1122 1122 22

हो सके वस्ल किसी दिन बुला ले मुझको
मेरे हमदम कहीं आगोश छुपा ले मुझको

चाहता हूँ तहे दिल से अब बुला ले मुझको
अपनी आँखों के दरीचे में बिठा ले मुझको

तू सनम भाग्य है मेरा न हो पाऊँगा जुदा
अपने हाथों की लकीरों में सजा ले मुझको

तुझसे मिलने की तमन्ना है बहुत जान मिरी
वस्ल हो जाए कभी ख्वाब बुला ले मुझको

तन्हा हूँ रात अभी ख़्वाब मिरे टूट गए
तीरगी दिल में रवाँ है कि बुला ले मुझको

मौज़ मस्ती नहीं ये इश्क़ जुनूनी मेरा
भूल ने वाले कहीं तू न गँवा ले मुझको

लोग चेतन हुए बेज़ार सनम दुनिया हैं
बदहवासी हुई तारी कि भगा ले मुझको

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन
गिरहबंद क़त्अः

2122 1212 22
बाद जाने के तेरे घर महके
जा ने जाँ मन मेरा नज़र महके
तेरी ख़ुश्बू बसी वजूद में है
शाम के बाद फिर सहर महके

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

रक्षा बंधनः सार छंद

काले - काले बादल छाये, कुहु-कुहु कोयल बोले।
कजरी गाये सजनी बहना, बँधवा ...राखी.. भोले ।
इन्तजार करे हैं दोनों ही, हो भावुक मन उसका ।
साजन भगिनी भाई बहना, आयेगा कुछ झिझका।

रक्षा बन्धन त्यौहार रँगीला, बाँधे ... राखी ...बहना।
रात रसीली सहज बिछौना, सजनी-साजन गहना।
रंग बिरंगी... उड़ें...पतंगें , लाल हरि औ पीली ।
हलकी हलकी चलें हवायें, रुत होते... हरियाली।

आ गई है मौज बच्चों की, करते हल्ला - गुल्ला।
खाते ...खीर ...मलाई.. हैं, गप करते रसगुल्ला ।
शाम ...ढले वो... मेले - ठेले, गाँव बजे शहनाई।
खूब सजी महफिल चौपालों, सबने कजरी गाई।

प्रोफ. चेतन प्रकाश चेतन

एक ग़ज़लः
221 1221 1221 122
मक़तल वो इदारा बना झाँका नहीं जाता
क़ातिल ने किया ज़ुल्म वो देखा नहीं जाता
ईमान हो जिसका उसे सबसे मिली इज़्ज़त
"इज़्ज़त को दुकानों से ख़रीदा नहीं जाता"
तमगे मिलें मसनद से शहीदों की ही बेवा
दौलत के मरीज़ो को बुलाया नहीं जाता
हालात अभी मुल्क़ के बेहतर वो नहीं हैं
वो फ़र्ज़ सियासत तो सिखाया नहीं जाता
बंगाल तो इज़्ज़त ख़वातीनों की नहीं है
कानून वो बदहाल जो भुलाया नहीं जाता
हालत बुरी ममता की जो सरकार वहाँ है
क्यों अब भी तो मसनद को गिराया नहीं जाता
ताले लगे हैं मुँह पे शरीफ़ों के अभी हैं
चेतन खुली आँखो से भी देखा नहीं जाता

आदरणीय Chetan Prakash जी आदाब।
ग़ज़ल के प्रयास पर बधाई स्वीकार करें।

1212 1122 1212 22/ 112

मुझे तो यार वो बहस-ओ मुबाहिसों बचना,
रहूँगा मुब/ तिला घर औ/ र रार से / डर ना / है ।
कृपया सानी की बह्र जाँच लें

मुझे तो दूर ही रहना अभी सियासत है
उलझना है नहीं दुश्मन उसे कुतरना है ।

उला और सानी के अंत में ' है ' की वज्ह
से तक़ाबुल-ए-रदीफ़ैन दोष हो रहा है।

सुझाव~

मुझे तो दूर है रहना अभी सियासत से

तुम्हारे चश्म-ए-तर का हूँ रहतवारा जानाँ
" तमाम उम्र मुझे डूब ना उतरना है" ।

रहतवारा का अर्थ?

आदाब, आदरणीय, अमित जी, देर आयद दुरुस्त आयद आपने मेरी
प्रस्तुति पर ध्यान देकर मार्ग-दर्शन किया, आपका हृदय से आभारी हूँ।

रहूँगा मुब/ तिला घर औ/ र रार से / डर ना / है ।
कृपया सानी की बह्र जाँच लें
आ. 




























आदरणीय, सुशील सरना जी,नमस्कार, पहली बार आपकी पोस्ट किसी ओ. बी. ओ. के किसी आयोजन में दृष्टिगोचर हुई। स्वाभाविक है,आयोजन की नियमावली को आपने कदाचित नहीं पढ़ा और, न ही नियमानुसार प्रस्तुति दी है । आदरणीय, वस्तुतः आपकी प्रस्तुति प्रथम द्ष्ट्या अस्वीकार्य है । शेष संयोजक महोदय, आपको बताएंगे अथवा निर्देशानुसार पुनः प्रस्तुति देने का आदेश दे सकते हैं। शुभातिशुभ !














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