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आज़ाद कोई नहीं , सब डोर से बंधे हैं --- डॉ o विजय शंकर

बंधे सब डोरियों से हैं,
ये अलग बात है कि
किसकी डोर , मूलतः , किसके हाथ है ।
कोई अपनी डोरी में बस थोड़ी सी ढील चाहता है,
अपने साथ वाले की डोर बस थोड़ी टाइट चाहता है ।
किसी की खींच ली गई , किसी को ढील मिल रही है ,
किसी की फंस गई है , उनकी फंसी थी,निकल गई है ।
अब किसी को क्या कहें , जिस के हाथ अपनी डोर है ,
वही उसे दबाए बैठा है ।

चाहतें ऐसी ऐसी , उसकी डोर मेरे हाथ आ जाए ,
मेरी डोर काश यहाँ से छूटे , उसके पास पहुँच जाए
उनके तो हाल ही निराले हैं, अपने ही उनकी डोर ऐसी
कसना चाहती हैं कि बस , पूरे वश में रहें उनके ।
वैसे तो कहना है उनका कि वे किसी लायक नहीं हैं ,
वो महान है कि घास डाल दी उन्होंने ,
वरना हैं तो वे पूरे निठ्ठले के निठ्ठले ।
लेकिन फिर भी उनकी सोच है , क्या कहने उसके ,
उनको लगता है कि विश्व की समस्त नारियां छोड़ के
अपना अपना सारा काम-काज बैठी हैं बस डोरे लिए हुए
उनके निठ्ठले पे डालने के लिए ।
अब उनकों कौन समझाए , वही सबको समझाती हैं कि
वो टाइट न रखें तो क्या क्या न हो जाए ॥

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Dr. Vijai Shanker on February 18, 2015 at 8:43am
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, आभार , आपकी परख एवं बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 8:16pm

आदरणीय विजय भाई , रिश्तों की डोर होती ही ऐसी है , लोग हमारी पकड़ मे रहें पर हम खुद स्वतंत्र रहें । एक सच्चाई बयान की है आपने , बधाई आपको ॥

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 17, 2015 at 10:50am
सबसे अदृश्य डोर तो उसकी है, और उसके ही हाथों में है , रचना को स्वीकार करने के लिए आभार, प्रिय जीतेन्द्र जी , बधाई के लिए ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 17, 2015 at 10:37am

एक अदृश्य डोर का बहुत सटीक चित्रण किया है, आपने रचना में. जो है तो जीवन के मायने, न मानो तो बंधन. प्रस्तुति पर बहुत-बहुत बधाई आदरणीय डा. विजय जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 17, 2015 at 10:15am
प्रिय मिथिलेश जी, बस यूँ ही, लिख रहा था , लिखता चला गया , आपको अच्छा लगा , जानकर बहुत अच्छा लगा , आभार , बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद , सादर।
Comment by Dr. Vijai Shanker on February 17, 2015 at 10:14am
आदरणीय हरी प्रकाश दुबे जी, बस यूँ ही, लिख रहा था , लिखता चला गया , आपको अच्छा लगा , जानकर बहुत अच्छा लगा , आभार , बधाई हेतु ह्रदय से धन्यवाद , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 1:38am

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, डोर के माध्यम से विभिन्न परिस्थितियों में नियंत्रण शक्ति और उसके प्रभाव क्षेत्र पर सुन्दर कविता, हार्दिक बधाई निवेदित है. 

Comment by Hari Prakash Dubey on February 16, 2015 at 7:23pm

बंधे सब डोरियों से हैं,
ये अलग बात है कि
किसकी डोर , मूलतः , किसके हाथ है ।..... बहुत सुन्दर आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, हार्दिक बधाई !

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