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पूरा अधूरा वायदा

पूरा अधूरा वायदा

शब्दों के अभाव में कहे-अनकहे के

कढ़वे अन्तराल में

पार्क में पत्थर के बैंच को साक्षी बना

आसान था कितना

हम दोनों का अलविदा के समय कह देना ...

" हो सके तो भूल जाना  तुम  मुझको "

" तुम  भी ..."

उस शाम के मेघों की वाणी में कुछ था, कुछ कहा

अत: वायदा वह पूरा हो न सका, न तुमसे, न मुझसे

रुँधी हुई ज़िन्दगी में भुलाने के असफ़ल प्रयास में

स्मृतिओं  के धुँआते खंडहर के ढरते-भुरते मिनार में

आदतन यंत्रबद्ध क्यूँ चले आते हैं कष्ट-ग्रस्त

ख्यालों में कदम तुम्हारे, कभी कदम हमारे

दुहराने वही पुरानी कहानी, सुनाने कोई नए फ़साने

पीड़ा की रातों में विरह की गूँजती हवाओं में

रात-बेरात  अतीत की मरी आत्माओं में

समय की पुरानी हवेली में धुँए को ठेलती

बेकाबू चाँदनी को  अकुलाई आँखों में थाम

क्या ढूँढती हो जाकर दबे पाँव तुम बार-बार 

मैं नहीं हूँ उस धुँए में कहीं

न हूँ मैं अब धुँए के उस पार

सुना है यह भी कि आँसू भरे नेह की

अन्तर की बारिश में भीगी, देती हो दुआएँ

आधी-आधी रात  अँधियारे आसमान तले

उदास, गहरे खारे पानी में डूब-डूब

भर्रायी आवाज़ में दुहराती हो

मेरी कविताओं के उदास ग़मगीन शब्दों को

खोजती हो पंक्ति दर पंक्ति स्वयं को उनमें

पर ग़लत हो, अब नहीं हो कहीं तुम उनमें

समा सकती थीं कहाँ  हमारी सनातन भावनाएँ

प्राण-प्रिय,  हमारे स्नेह की उदभासित आत्माएँ

स्मृतिओं के अकुलाते ख़्यालों के  आलिंगन में

कि अब समाई हैं  हमारी परस्पर पावन-श्रद्धाएँ

सूक्ष्मतम से सूक्ष्मतम रहस्यात्मक तन्मात्राओं-सी

भावनाओं की सम्मोहक  स्वप्निल मधु-छाया में

-----------

विजय निकोर

{मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on February 24, 2016 at 11:37am
ऐसे वायदे कभी कहाँ पूरे होते है । रेंगते रहते है कभी काले साँप की तरह , आत्मा पर , बदन पर , नीला करते हुए उनको अपने असर से या कभी रूई के फाये से सहलाते रहते है अंतर्मन को धीरे - धीरे और दे जाते है शीतल चंदन सी राहत मन को ।
मन को बाँधकर कहाँ से कहाँ ले गई है आपकी इस प्रस्तुति ने । शब्दों की ऐसी लहरें , भावनाओं की तरंगों को आपने यहाँ एक ऐसी अद्वितीय गति प्रदान की है कि पढते हुए पाठक भी उन भावनाओं में गोता लगाने को जैसे मजबूर हो उठता है ।
बहुत बहुत बधाई आपको आपकी इस अनुपम रचना के लिए आदरणीय विजय निकोर जी ।

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