दर्द भरी गहरी पुकार
हमारा रिश्ता
एक ढहा हुआ मकान ...
तुम बदले
तुम्हारे इमान बदले
मेरे सवाल, और
तुम्हारे उन सवालों के जवाब बदले
सुना है
इमान का अपना
अनोखा चेहरा होता है
सूर्य की किरणों-सा अरुणित
बर्फ़ीली दिशाओं को पिघलाता
आसमान को भी पास ले आता है
उसी अरुणता को
अपने "आसमान " को
तुम्हारे इमान को
मैं तुम्हारी आँखों में देखती थी
मेरे अस्तित्व का पोर-पोर खुल जाता था
खिल जाता था
तुम्हारे स्नेह के कंधे पर माथा टिकाए
एक पूरा युग बीत जाता था
पर अब भीतर कोई उजाड़ कुछ अजीब
खालीपन के भारीपन के बीच
मैं भटक जाने से डरती
ढहे हुए मकान के मलबे के नीचे
दबी पड़ी
आयु की रात के कुहरे में
करवट भी नहीं ले पाती
विरह की स्याह-खाई में सो नहीं पाती
हमारा वह परस्पर-गुंथन
साँसों की स्वरसंगति में उलझन
और हमारी बातों में कसैला अन्तराल
ऊपर अँधियारा आसमान
तुम्हारा बदला हुआ इमान ...
मेरे लिए यह सभी
बड़े-बड़े सवाल बने खड़े हैं
उलझे सवालों में उलझा मुरझाया रिश्ता
काली-काली-पहचानी उदास गलियों में
हमारी छटपटाती छायाएँ
मेरी दर्द भरी गहरी पुकार
पर है अब इन सब सवालों से बड़ा
एक और अनदिखा सियाह सवाल ...
मैं जीऊँ
कि न जीऊँ ?
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विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आप मेरी रचना पर आईं, और प्रतिक्रिया दी, आपका हृदयतल से आभार, आदरणीया प्राची जी।
सराहना के लिए आभारी हूँ, आदरणीय लक्ष्मण जी।
रचना की सराहना से मुझको मान देने के लिए आभार, आदरणीय हरि प्रकाश जी।
रचना की सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय समर जी।
सराहना के लिए हार्दिक आभार, आदरणीय सतविंदर जी।
मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
बधाई
आ० भाई विजय निकोर जी सुन्दर रचना हुई है हार्दिक बधाई l
// अंतर्मन की वेदना को आपकी कलम ने मार्मिकता की स्याही से अपने शब्दों में बहुत ही खूबसूरती से कागज़ पर उकेरा है//
इस उदार प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।
आदरणीय विजय सर ,बहुत ही शानदार रचना है, हार्दिक बधाई, सादर !
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