पिघली हुई आँच
कुछ ऐसी ही
पीली उदासीन संध्याएँ
पहले भी आई तो थीं
पर वह जलती हुई भाफ लिए
इतनी कष्टमयी तो न थीं
दिल से जुड़े, चंगुल में फंसे हुए
द्व्न्द्व्शील असंगत फ़ैसलों पर तब
"हाँ" या "न" की कोई पाबंदी न थी
"जीने" या "न जीने" का
साँसों में हर दम कोई सवाल न था
अनवस्थ अनन्त अकेलापन
तब भी चला आता था
पर वह दिल के किसी कोने में दानव-सा
प्रतिपल बसा नहीं रहता था
परम्परा और नियम
कहे और अनकहे शब्द और व्यवहार
अनगिनत द्व्न्द्व्शील तथ्यों की ओट में
तब ऐसे लड़खड़ाते तो न थे
बर्फ़ीली दर्दीली पीली हुई उदास शाम
को जीवन-यथार्थ की तुलना दे कर
कितनी सरलता से कह दिया था तुमने
"समय को शायद यही मंज़ूर था "
मुझको लगा कि उसी एक पल में
मेरे आत्म-विश्वास की तनी हुई रग
कुम्हला गई, कट गई सहसा
और लगा
कि उसी एक धुंधले मटमैले पल में
उस "समय" ने सीने पर मेरे
पिघला हुआ आँच-भरा लोहा उढ़ेल दिया
तब से उस घबराई अश्रुपूर्ण शाम की
अंगारी अकुलाहट
दर्दीली संज्ञाएँ लिए
मेरे सीने से चिपकी रही है
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विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित
Comment
//बेहद भावपूर्ण रचना उत्तरार्ध पर बहुत ही संवेदनशील होती हुई गहरी बात कह जाती है//
कविता की भावनाओं को छूने के लिए आपका हर्दयतल से आभार, आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी।
आदरणीय समर जी, आपका हार्दिक आभार। मनोबल बढ़ाते रहें।
// बहुत ही गहन भावाभिव्यक्ति को आपने शब्दों में चित्रित किया है //
मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।
परम आदरणीय भाई विजय जी , इस रचना पर नमन l
हर प्रस्तुति की तरह शानदार रचना बहुत से गहन भावों को समेटे हुए |हार्दिक बधाई आ० विजय निकोर जी |
तब से उस घबराई अश्रुपूर्ण शाम की
अंगारी अकुलाहट
दर्दीली संज्ञाएँ लिए
मेरे सीने से चिपकी रही है
वाह आदरणीय वाह ..... बहुत ही गहन भावाभिव्यक्ति को आपने शब्दों में चित्रित किया है। हार्दिक बधाई स्वीकारें इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए।
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