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पिघली हुई आँच

कुछ ऐसी ही 

पीली उदासीन संध्याएँ

पहले भी आई तो थीं

पर वह जलती हुई भाफ लिए

इतनी कष्टमयी तो न थीं

दिल से जुड़े, चंगुल में फंसे हुए

द्व्न्द्व्शील असंगत फ़ैसलों पर तब

"हाँ" या "न" की कोई पाबंदी न थी

"जीने" या "न जीने" का

साँसों में हर दम कोई सवाल न था

अनवस्थ अनन्त अकेलापन

तब भी चला आता था

पर वह दिल के किसी कोने में दानव-सा

प्रतिपल बसा नहीं रहता था

परम्परा और नियम

कहे और अनकहे शब्द और व्यवहार

अनगिनत द्व्न्द्व्शील तथ्यों की ओट में

तब ऐसे लड़खड़ाते तो न थे

बर्फ़ीली दर्दीली पीली हुई उदास शाम

को जीवन-यथार्थ की तुलना दे कर

कितनी सरलता से कह दिया था तुमने

"समय को शायद यही मंज़ूर था "

मुझको लगा कि उसी एक पल में

मेरे आत्म-विश्वास की तनी हुई रग

कुम्हला गई, कट गई सहसा

और लगा

कि उसी एक धुंधले मटमैले पल में

उस "समय" ने सीने पर मेरे

पिघला हुआ आँच-भरा लोहा उढ़ेल दिया

तब से उस घबराई अश्रुपूर्ण शाम की 

अंगारी अकुलाहट

दर्दीली संज्ञाएँ लिए 

मेरे सीने से चिपकी रही है

----------

विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by vijay nikore on January 3, 2016 at 6:33pm

//बेहद भावपूर्ण रचना उत्तरार्ध पर बहुत ही संवेदनशील होती हुई गहरी बात कह जाती है//

कविता की भावनाओं को छूने के लिए आपका हर्दयतल से आभार, आदरणीय शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी। 

Comment by vijay nikore on January 3, 2016 at 6:28pm

आदरणीय समर जी, आपका हार्दिक आभार। मनोबल बढ़ाते रहें।

Comment by vijay nikore on December 24, 2015 at 5:28pm

//  बहुत ही गहन भावाभिव्यक्ति को आपने शब्दों में चित्रित किया है //

मान देने के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय सुशील जी।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 24, 2015 at 11:16am

परम आदरणीय भाई विजय जी , इस रचना पर नमन l


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Comment by rajesh kumari on December 23, 2015 at 7:13pm

हर प्रस्तुति की तरह शानदार रचना बहुत से गहन भावों को समेटे हुए |हार्दिक बधाई आ० विजय निकोर जी |

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on December 21, 2015 at 8:16pm
बेहद भावपूर्ण रचना उत्तरार्ध पर बहुत ही संवेदनशील होती हुई गहरी बात कह जाती है। हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय विजय निकोर जी ।
Comment by Samar kabeer on December 14, 2015 at 10:39pm
जनाब विजय निकोरे जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Sushil Sarna on December 14, 2015 at 1:26pm

तब से उस घबराई अश्रुपूर्ण शाम की
अंगारी अकुलाहट
दर्दीली संज्ञाएँ लिए
मेरे सीने से चिपकी रही है

वाह आदरणीय वाह ..... बहुत ही गहन भावाभिव्यक्ति को आपने शब्दों में चित्रित किया है। हार्दिक बधाई स्वीकारें इस उत्कृष्ट प्रस्तुति के लिए।

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