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कल सोते सोते

मेरी बांह को अश्रू से भिगोते
मेरे लाल ने जगा दिया
सकते में ला दिया
फ़िक्र होने से पहले
अचरज से भरा दिया
मेरे पूछने से पहले
बोला भरभरे गले से
"तुम कभी मरना मत माँ"
मैं अवाक
निर्वाक
मेरे कुछ बोल पाने से पहले
पुनः सप्रयास
आवाज़ को सधा कर
थोड़ा ज़ोर लगा कर
मुझे ज़ोर से चिपटा कर
आश्वश्त सा बोला
"पर मरना ही पड़ा तो भी क्या
मैं यहीं रखूंगा इसी घर में
औरों की तरह जलाऊंगा न कभी
तुमसे दूर जाऊंगा न कभी
तुम्हारे बिन रह पाऊंगा न कभी
क्योंकि जानती हो तुम माँ
बहुत बहुत प्यार है मुझे तुमसे माँ "
मैं फिर अवाक
फिर निर्वाक
कोई शब्द नहीं निकाल पायी
अंक भर भींच लिया
तकिया सींच दिया
दोनों  निःशब्द 
शब्द बुनते रहे
धड़कने सुनते रहे
अपना अपना श्रेय चुनते रहे
धीरे धीरे  पंख फैलाती
थप थप थप थपथपाती
स्वप्न लोक से परी आयी
उसके अश्रू को चुरा लिया
धीरे धीरे मेरी भी
डबडबायी नज़रों ने समझ दिखाई
कल परसों नरसों बरसों तक घूम आयी
अब के मेरी मुस्कराने की बारी  थी
बच्चे तो जल्दी बड़े  हो  ही जाते हैं न !!!
मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment

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Comment by amita tiwari on March 27, 2016 at 6:09pm

भावों को मान देने का हार्दिक आभार

Comment by रामबली गुप्ता on March 27, 2016 at 1:51pm
वाह क्या बात है भावपूर्ण रचना

कृपया ध्यान दे...

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