आदरणीय लघुकथा प्रेमिओ,
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रवि जी, बस यही पंक्ति मुझे कहनी थी जिसके इर्द गिर्द मैंने ये कथा बुनी. धन्यवाद प्रेषित करती हूँ.
आज तक कोई विभीषण पैदा नहीं हुआ.वाकई यह सच है.
हाँ, उच्च विचार होते हुए भी विभीषण को हमेशा गलत ही समझा जाता रहा.जी धन्यवाद.
रामायण का सन्दर्भ ले , आपने बढिया लघुकथा रची . ऐसी न जाने कितनी ही कथाये , लघुकथाए इस दिव्य ग्रन्थ में निहित है . यह आवश्यक है कि इनसे आने वाली पीढ़ी परिचित हो .. दादी -नानी ,माँ अपने बच्चों को इसीलिए रामायण की कथाये सुनाती आई है कि नव-पीढ़ी इनमे निहित अर्थ को समझे . आपके इस सद्प्रयास के लिए दिली बधाई स्वीकारे आदरणीया !
आदरणीय सुधीर जी आपकी टिप्पणी ने उत्साह वर्धन कर दिया.
धन्यवाद नीता जी.
आपको सार्थक लगी प्रस्तुतीकरण. धन्यवाद आदरणीया.
पौराणिक सन्दर्भ को विषय बनाकर बेहद सुन्दर लघुकथा रची है है आ० रीता गुप्ता जी, बधाई प्रेषित हैI आपको ऐसा प्रयोग करते देख मन बेहद प्रसन्न हैI मैं पूर्व में बी ही निवेदन कर चुका हूँ कि लघुकथा का अंत बेहद महत्वपूर्ण होता हैI इसे बहुत चुस्त और आँखें चौंधिया देने वाला याविचारोत्तेजक होना चाहिएI लेकिन आप ने अंत में विभीषण से “लेक्चर” दिलवा कर तथा अनावश्य विवरण देकर लघुकथा को कमज़ोर कर लियाI
// मैंने भाई-भतीजावाद से परे देशहित का सोचा. मेरा देश अक्षुण रह गया और देवाशीष पा अमरत्व भी पा गया ",
सजल नयनों से विभीषण ने अपनी आखरी सफाई देनी चाही परन्तु तब तक स्वार्थ और अहंकार ने महापंडित की सारी पंडिताई को धता बताते हुए प्राणों का हरण कर लिया था. अग्रज की निष्प्राण-ठठरी सन्मुख विभीषण किमकर्तव्यविमूढ़ हो काल की गति समक्ष अबूझ ही रह गए.//
यह पंक्तियाँ निहायत अनावश्यक हैं I
हार्दिक बधाई आदरणीय रीता गुप्ता जी!पौराणिक विषय पर अच्छी प्रस्तुति! यह भी सत्य है कि विभीषण ने कोई छल नहीं किया था! वह तो बेचारा मजबूरी में राम के पास गया था क्योंकि रावण ने उसे लात मार कर लंका से निकाल दिया था!
हाँ आप बिलकुल सही कह रहे हैं. वह अंत तक रावन के पैर पकड़ समझाना ही चाह था. पर विनाश काले विपरीत बुद्धि, रावण ने उसे निकाल ही दिया. उसने भाई का विरोध किया था देखा जाये तो देश का नहीं. धन्यवाद वीर जी.
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