घर आँगन की राज दुलारी,
प्यारी चुनमुन गौरैया
कभी अकेले कभी झुंड में
करती है ता ता थैया ।।
चोंच दबाकर तिनका तिनका,
अपना नीड़ बनाती है
फुदक फुदक कर घर आँगन के,
कीड़े चट कर जाती है।।
कभी नाचती कभी झगड़ती
इधर इधर बलखाती है
छोटे छोटे पर है लेकिन,
कभी पकड़ ना आती है।।
खपरैलों के बाँस झरोखे,
उसको लगते प्यारे हैं
कंकरीट के महलों ने तो,
उसके वास उजाड़े हैं।।
अब न कहीं मुंगेर बचे हैं
और न कहीं झरोखे हैं
चित्रों में गौरैया दिखती,
सब नवयुग के धोखे हैं।।
उजड़ गए सब बाग बगीचे,
और न दिखती गौरैया।
यादों में बस सिमट रही वो,
चेतो जल्दी से भैया।।
मौलिक व अप्रकाशित
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गौरैया जगत की बढ़िया सैर कराती बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
आद0 शेख शहज़ाद उस्मानी जी सादर अभिवादन। रचना पर आपकी उपस्थिति और प्रतिक्रिया के लिए आभार
बच्चों की प्रिय चिरैया पर बढ़िया रोचक और गेय कविता के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद और आभार आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी।
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