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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-11 में सम्मिलित लघुकथाएँ

(1). आ० कांता रॉय जी 
रिश्ते की जकड़ / साथी

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" वह इतना सज धज कर मटकती रहती है दिन भर अनुज के सामने , क्या तुम्हें डर नहीं लगता है जरा भी ? "
" नहीं " कहते हुए वह थाली में से आलू उठा , अपनी सधी हुई अंगुलियों में फँसा ,चाकू से छीलने लगी ।
" तुमने देखा , वो कितनी फैशनदार है ! बिलकुल आजकल की लडकी ! "
" हाँ , देखा , तो ? "
" तो क्या ! अनुज पर अंकुश रखो जरा , फिसल सकते है वो ,उसके रूप के जाल में ! "
" नहीं ,वो नहीं फिसलेंगे कभी ,तुम निश्चिंत रहो , हमारे रिश्ते की जकड़ बहुत गहरी है और मुझे मेरे साथी पर पूरा यकीन भी है । "
" ओह ! फिर वही विश्वास ! रहो जैसे रहना है , तुमसे आज कुछ चाहिए , इसलिए आई हूँ "
" क्या ? "
" तुम्हारे झुमके , जो तुम्हें अनुज ने पहली रात के मिलन की निशानी के तौर पर दिए थे "
" वो तो नहीं दे पाऊँगी , तुम हीरे के फूल पहन लो आज "
" नहीं , मुझे वही वाली चाहिए "
"लेकिन वो तो अब मेरे पास नहीं है "
" क्यों , कहाँ गए ? "
" किसी से कहना नहीं, अनुज ने उसे उपहार में दे दिए है "
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(2). आ० रीता गुप्ता जी  
मनमीत

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“मैंने तो सब्जी में नमक बिलकुल सही डाला था, खुद चखा था मैंने बना कर. जरूर किसी ने मुझे डांट खिलाने हेतु बाद में मिला दिया” “मैं कहती रह गयी पर सासु माँ ने मेरी नहीं सुनी”
“पिताजी आयें थे, कितना मन था सावन में माँ के घर जाती पर ससुरजी ने मना कर दिया”
“इनको भी कोलकाता गए कितने दिन हो गए, जाने इनकी परीक्षाएं कब ख़तम होंगी”
“माली काका की बेटी रधिया भी अपने ससुराल चली गयी है”
“सासू माँ, बड़ी भाभी , मंझली भाभी, काकी, दीदी सभी दिन भर केवल गहने-कपडे, रसोई,बच्चों की ही बातें करती हैं”
“मैंने एक नयी कविता लिखी है सुनोगे ....”
अचानक घर आया हुआ राखाल ने अपनी बालिका वधु को कोने वाले कमरे के आदम कद दर्पण के सामने अकेले ऐसे बतियाते सुना तो उसका दिल भर आया.
“क्यूँ लख्खी मायके से आये इस दर्पण को ही अपनी कवितायेँ सुनाओगी, मुझे नहीं ? मैं भी तो तुम्हारा मनमीत हूँ.” राखाल को यूं अचानक देख लख्खी आश्चर्य मिश्रित लाज से गड गड गई, उसकी चोरी पकड़ी जो गयी थी.
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(3). आ० नीता सैनी जी 
पुरस्कार

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'' सर, पता चला है कि कविता प्रतियोगिता के निर्णायक आप हैं । आपने मेरी कविता तो पढ़ी होगी ? प्लीज, प्रथम पुरस्कार मुझे दे दीजिए।'' एक खूबसूरत कवयित्री ने मशहूर कवि और समीक्षक नागराज जी से कहा।
''निर्णय तो हो चुका है। मैं अब आयोजन समिति को अपना निर्णय भेजने वाला हूं।''
'' ओ हो ! तो यही बता दीजिए कि प्रथम पुरस्कार किसे मिलेगा ?''
'' वैसे बताना तो नहीं चाहिए , लेकिन बताए दे रहा हूं। प्रथम पुरस्कार आपके साथी मनोहर जी को मिल रहा है , जिनसे कविता लिखवाकर आप उनसे आगे निकलना चाहती हैं।''
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(4). आ० सुनील वर्मा जी 
ठग

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"देख तो जरा..कितना कमजोर हो गया है तू। क्या जरूरत है तुझे बाहर खाना खाने की, खुद के लिए कमरे पर ही बना लिया कर। इतना समय तो मिलता ही होगा तुझे।" माँ ने शहर में कमरा लेकर पढने वाले अपने बेटे नीरज से फोन पर कहा।
"माँ बनाता तो हूँ।"
"हाँ पता है मुझे कितना बनाता है। कितने चाव से तेरे लिए गाँव से देशी घी मँगवाया था, पर अभी जब कुछ दिन पहले मैं और तेरे बाबूजी शहर में तुझसे मिलने आये थे, तब देखा कि वो घी पड़ा पड़ा कैसे सडांध मार रहा था।" माँ ने मीठी झिड़की देते हुए कहा।
"माँ उस दिन मैने आपकी कसम खायी तो थी कि अब से मैं हमेशा खाना खुद बनाकर खाऊँगा। फिर आप विश्वास क्यूँ नही करती मुझ पर ? अब क्या इतना भी विश्वास नही रहा.." नीरज ने अपने शब्दों में माँ से लिपट जाने वाले भाव लेकर कहा।
बलिहारी हो जाने वाले शब्दों के साथ माँ ने भी फोन को चूमते हुए कहा "तुझ पर विश्वास नही करूँगी तो और किस पर करूँगी।"
"अच्छा माँ सुनो...वो कुछ रूपये चाहिए थे। कॉलेज का भी काम है और मुझे खर्चे के लिए भी चाहिए।" नीरज ने माँ का प्यार भरा मिजाज़ पढकर असली बात कही।
कुछ देर पहले बेटे पर गर्व करती माँ, खुद को ठगा सा पाकर मन को संयत करते हुए बोली "बेटा..मैं तेरी माँ हूँ। तेरे बचपन से तेरी पहली साथी, तुझे तुझसे भी ज्यादा जानने वाली। अभी तूने मेरी झूठी कसम खायी थी न !!"
"नही तो माँ.." नीरज संभलते हुए बोला।
"बेटा तू सबको बहला सकता है पर अपने माँ बाप को नही। सच तो यह है कि अगर तू खाना घर पर बनाता तो आटे के डिब्बे में हमने जो दस हजार रूपये रखे थे, वह तुझे हमारे वँहा से आने के अगले दिन ही मिल गये होते।" रूंधे गले से माँ की आवाज बाहर आयी।
फोन के दूसरी तरफ से आने वाली अपने माँ-बाप से अधिक समझदारी भरी आवाज, अब अपना विश्वास खोकर निशब्द हो चुकी थी।
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(5). आ० अर्चना त्रिपाठी जी 
बेवफा

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" आखिर बात क्या हैं? जब से लौटे हो अत्यंत गुमसुम रहते हो !" मित्र दिनेश से रमेश ने पूछा
" सोचा था पत्नी का पर्याप्त साथ मिलेगा, लेकिन ----- "
" लेकिन क्या ? भाभी तो एक समर्पिता हैं।"
" समर्पिता !" ख़्यालों के सागर में डूबते हुए बड़बड़ा उठे:
" ब्याह के पश्चात वह हमेशा साथ रहना चाहती थी।परन्तु अपनी जिम्मेदारियों की बेड़ियां उसकी बेबसी बना उसके ही पैरों में डाल दी। उसकी सहज बातों से भी मुझे चिढ़ होती।बड़े भैया-भाभी का स्वार्थी रवैया देख शायद मुझे डर था की झुकाव उसकी ओर हो गया तब परिवार का क्या होगा ? धीरे-धीरे उसने बच्चों और गृहस्थी में खुद को डुबो लिया और मैं निश्चिन्त होता चला गया।"
" अब शिकायत क्यों हैं ? उन्होंने तो सारी जिम्मेदारियां बड़ी कुशलता से निभाई हैं।"
" वो तो ठीक हैं, लेकिन अब अपना ही घर पराया लगता हैं।वह कागज-कलम में इतना व्यस्त रहती हैं की जैसे वही उसके साथी हैं।"
" तुम्हारे दिए अकेलेपन को सूद समेत लौटा रही हैं अब।"
" नहीं , मैं एक बेवफा से उर्मिला सी वफा की उम्मीद कर रहा था।"
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(6). आ० नीता कसार जी 
प्रवासी पिया

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दरवाजे पर दस्तक हुई अचानक रचनाबेन को देख माता पिता हैरान हो गये । नवविवाहिता बेटी ससुराल से पहली बार अकेली, ।
“ इतनी रात में तू अकेली कैसे ?”।
माँ ने बाँहें फैला कर उसे सीने से लगा लिया। वह फूट फूट कर रो पड़ी ।
“ तू रोना बंद कर फिर बता अकेली कैसे आई । अनिल कहाँ है ?”!
अनिष्ट की आंशका से माँ का मन काँप रहां था।
“ माँ मैं लुट गई, धोखा हुआ हमारे साथ “!
“जब विवाह के बाद अमेरिका अनिल के घर पहुंची तो उसके घर में कोई रौनक़ नही थी। स्वागत करने वाली अकेलीऔरत ने पूछा “ये किसे ले आया” उसने कहा कि 'तेरे लिए नौकरानी लाया हूं ‘'।
मेरे पांव तले जमीन खिसक गई । मुझे घर में क़ैदी की तरह रखा!मेरा पासपोर्ट छीन लिया!
“ फिर तू कैसे आई बेटा?”!
“एक बार वह मुझे सामान ढोने के लिये नौकरानी की तरह मॉल लेकर गया था ! वहां मुझे एक परिचित गुजराती भाई मिले !मैंने पहले से ही एक कागज में सब कुछ लिख कर रखा था।उसे दे दिया। गुजराती भाई ने मेरी मदद की, कुछ दिनों बाद वह पुलिस लेकर आया ! उसीने मुझे आजाद करा कर भारत भेजने की पूरी व्यवस्था की।
पिता ने अब उठकर बेटी को सीने से लगा लिया। दिल डूबा जा रहा था लाड़ली के भविष्य को लेकर पर होंठ बोल पड़े ।
"जीवनसाथी धोखेबाज़ हो सकता है माता पिता नही , तू सकुशल सुरक्षित आ गई ये कुछ कम नही” ।
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(7). आ० पवन जैन जी 
परिंदे

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लड़का बहू के लिए बड़ी शौक से पहली मंजिल पर एक कमरा बनाया,उसके सामने गमलों में फुलवारी लगाई,खुद रोज पानी सींचा। आते ही बहू ने ऐसे तेवर दिखाए कि वह ज्यादा दिन न झेल सकी और कूच कर गई मुझे अकेला छोड़ कर ।लड़का बहू ने बसा ली अपनी दुनिया किराये के फ्लैट में। झुकी हुई डाली अलग न हो जाए,अतः सींचता रहा पर वह सीधी न हुई ।हाँ उसमें जडें निकल आई,और छोड दिया पुराने खोखले तने को । दो परिंदे आये और बस गए फुलवारी के सामने।
"पापा रीना कह रही है कि आ जाओ यही पर बाबू भी अकेला रहता है ,आया के भरोसे।"
"तो क्या अब बहू मुझे आया बनाना चाहती है?"
"नहीं पापा,आया तो लगी है।आप के आने से घर में कोई तो होगा अपना।"
"तो क्या चौकीदार चाहिए ?"
"पापा आप तो नाराज हो जाते हैं।"
"देख बिना पैसे की नौकरानी तो चली गई,बहू ने तो उसकी कदर नहीं की ।"
"पापा आप भी उसे ही दोष देते हैं।"
"बेटा दोष नहीं दे रहा हूँ, बहू से कहना,कि अब उनका घरौंदा भी भर गया है और मिल गया है उन्हें अपने अनेक परिंदों का साथ।"
समय मिले तो देख लेना।
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(8). आ० जानकी वाही जी 
सखा 


" सुमि ! एक साल की ही तो बात है। पलक झपकते ही दिन फुर्र हो जायेंगें। इस तरह उदास रहोगी तो मेरा दिल अमेरिका में कैसे लगेगा।"
"आप नहीं समझोगे, पूरा घर आपके बिना सूना हो जायेगा।"
" अब तुम्हें ही घर ,माँ और पापा की देखभाल करनी है।और तुम ये अच्छे से कर सकती हो,मुझसे बेहतर ये बात और कौन समझ सकता है।"
" वो तो लूँगी पर ...।"
" पर क्या ? मुझे तुम पर पूरा विश्वास है । अगर कोई मुश्किल हो तो विनीत हैं न, मैंने उससे कह दिया है।"
" क्या विनीत ! पर आपके पीछे मैं उसकी मदद नहीं ले सकती।"
" क्यों नहीं ले सकती ? वह तुम्हारे बचपन का सखा है।"
"बचपन का सखा ?आप क्यूँ नहीं समझते कि ये द्वापर नहीं कलयुग है।"
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(9). आ० नेहा अग्रवाल जी
वनवास
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रसोई में काम करती सौम्या के कानों में एक बार फिर से अपने पापा के बेतहाशा गुस्से की आवाज आने लगी थी। सौम्या थोड़ी परेशान सी अपनी मम्मी से बोली।
" लगता है आज फिर पडोस के बच्चों की शामत आई हुई है, देखती हूँ जरा जाकर मैं। "
उम्मीद के मुताबिक पापा पडोस के बच्चों पर हद से ज्यादा नाराज हो रहे थे। आज एक बार फिर से बच्चों की गेंद हमारे आँगन में आ गई थी और पापा को यह बात बिल्कुल भी पसंद नहीं है। बच्चे मुंह लटका कर हमेशा की तरह वापस जाने ही वाले थे तभी सौम्या ने चुपके से अपने पापा के कानों में कुछ कहा। सौम्या की बात पर सोच में पड़ गए शर्मा जी ने आँगन में रखे गेंद से भरे बोरे को बच्चों के हवाले कर दिया। वनवास के खत्म होने की खुशी मे बोरे में रखी हर गेंद मुस्कुरा दी थी। साथी से मिलन अब असम्भव जो नहीं था ना।
रसोई में वापस आते ही माँ ने पूछ ही लिया।
"ऐसा क्या कह दिया।"
" कुछ नहीं माँ बस याद दिला दिया पापा को, अब आपके भी नाती पोते बड़े हो रहे हैं।"
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(10). आ० विजय जोशी जी 
धन का साथी

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आतंकी संगठन ने सरकार को खुली चुनौती दे डाली।
"अगर हमारे तीनों साथी रिहा नहीं किये, तो तुम सोच भी नहीं सकते, हम क्या कर सकते हैं?"
सरकार ने वही रटे रटाये, घीसे-पीटे डायलॉग जारी किये ।
"हम कोरी धमकियों से नहीं डरने वाले हैं। किसी को नहीं छोड़ा जायेगा।"
'यह देश की आन-बान और जांबाज सैनिकों की शहादत के सम्मान का प्रश्न है। '
आतंकियों ने सरकार को झुकने के लिए साम-दाम-डंड भेंद चोरों का पहार किया। कोर्ट पर दबाव बनाया। जिला कलेक्टर को अगवां कर लिया।
आनन-फानन में प्रभारी मंत्री ने मिटींग बुलाई। आप्रेश रिहाई की योजना बनवाई।
किन्तु -प्रशासनिक समन्वय और सूझबूझ से कलेक्टर बिना शर्त उनके चुंगल से बाहर हो गये। कोर्ट भी आपने फैसला पर अटल रही। आतंकी संगठन बौखला गया
"तो क्या हमारे साथी भारत की जेलों में ही बंधक रहेंगे?"
सारे देश में जश्न का माहौल बन गया। शहीद पूजन ,शहीद यात्रा के आयोजन हुए-
आतंकी सरगना बोला-" नहीं अभी एक रास्ता ' बाकि है।'' "धन का साथी" कोई तो होगा?
हमारे साथियों की रिहाई होगी।
'संगठन ने धन का हाथ बढाया।
जेलर ने साथ निभाया।'
सारे न्यूज चैनलों पर ब्रेकिंग न्यूज ' तीन अातंकी जेल से फरार, जेलर को तत्काल प्रभाव से निलम्बित किया। जाता है ।
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(11). आ० सतविन्द्र कुमार जी 
सच्चे साथी


-जी,जी साहब! जी अभी ज़नाब को ख़बर कर देते हैं।जय हिन्द सर।
थाने में मुंशी ने फ़ोन रखा।
"ज़नाब!हेड ऑफिस से फ़ोन आया है कि सरकार से अपनी मांग को लेकर प्रदर्शन कर रहे लोगों ने उग्र रास्ता अख्तियार कर लिया है।उनका एक दल बाजार में घुसकर लूटपाट कर रहा है।किसी दुकान में आग भी......."
मुंशी ने माथे से पसीना पोंछते हुए बोलते-बोलते साँस भरी।
"हालात ज्यादा बिगड़ न जाएं वहाँ तुरंत पहुंचने का आदेश है।"
अब एक सांस में बोल गया।
"हूँsssss।"
एस आई साहब ने बेफिक्री से सिर हिलाते हुए।
"ज़नाब!ऊपर से आदेश हैं वहाँ पहुँच कर मामला नियंत्रित करना है।जल्दी चलना बेहतर होगा।"
"अरे!चल पड़ेंगे अभी क्या जल्दी है?तू आराम से चाय पी फिर देखते हैं।"
"परर....ज़नाब....अ...पनी ड्यूटी तो...."
"अरे!ड्यूटी गई तेल लेने।यूँ बता जो लोग प्रदर्शन कर रहे हैं वो कौन हैं?किसके लिए ऐसा कर रहे हैं?"
"जी!हैं तो अपनी ही बिरादरी के और बिरादरी के हक़ में ही...."
"बस फिर!अपनी बिरादरी के लोग ही अपने सुख-दुःख के सच्चे साथी होते हैं।अब उन पर ही हमला बोलदें क्या?"
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(12). आ० सविता मिश्रा जी
दांत काटे की रोटी

..
'तुझे मन किया था न कि झूठा नहीं खाया कर किसी का फिर भी | एक ही पेप्सी की बोतल से चारो पिए जा रहें थे |"
पर माँ दादी तो हम सब भाई-बहनों को एक ही थाली में खिलाती थी | मना करो तो कहतीं कि जूठा खाने से प्यार बढ़ता है | हम भी आपस में अच्छे दोस्त हैं और चाहते हैं प्यार बढ़े | '
अपनी बेटी की लाश को देख उसके आस पास उसके उन्हीं घनिष्ठ मित्रों को न पा रश्मि ख्यालों में डूबी हुई थी |
पुलिस झकझोरती हुई पूछती है-" क्या पहचान रही हैं इस लड़के और लड़की को ?"
माँ की तन्द्रा टूटी , "हाँ इनसे तो मेरी बेटी की दांत काटे की रोटी थी |"
अधिकारी बोला-"इसी रोटी के चक्कर में ये और इनके दो और साथियों ने मिलकर आपकी बेटी का क़त्ल कर दिया |"
" मतलब, ये क्या कह रहें हैं आप | चारो में तो बहुत प्रेम था | " पिता आश्चर्य से बोले 
"हाँ होंगा पर एक नौकरी और ये चार | आपकी बेटी इन सब से तेज थी अतः ..|"
और मुकेश... ! आशंकित हो वो फिर बोले |
वो पढ़ने में कमज़ोर था अतः बच गया |
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(13). आ०  नयना(आरती)कानिटकर जी 
सच्चा साथी

हर बार  डाक्टर से स्नेहा  एक ही सवाल करती.कब तक ठीक होंगे?

"पता नहीं कुछ कह नही सकते.१ घंटा,१ दिन, १माह,१वर्ष कुछ भी हो सकता है.उनके शरीर के बाकी सारे अंग सुचारु रुप से काम कर रहे है.बस मस्तिष्क के कुछ हिस्से मे रक्त प्रवाह ठीक ना होने से ये सब हो रहा है.पेशेंट सर्जरी के हालात मे भी नही है."

किसी को पहचानते नही थे, ना बेटे को ना माता-पिता को.बस जब मैं हाथ थामती तो दो बूँदे आँखो से ढलक पड़ती.यही देख डाक्टर उम्मीद लगाते कहते--

"बेटा! वो लौट आएगा, ज़रुर लौट आएगा."

अस्पताल का वह  कमरा  वर्ष भर से उसका घर था. सभी से यथा संभव मदद मिल रही थी किंतु  वह भी स्वाभिमानी बार बार आखिर कब  तक...

एक उम्मीद स्वयं से की और सासु माँ की सहायता से बैंक परिक्षा की तैयारी कर एक्ज़ाम भी दे आयी.

तभी कमरे का फ़ोन घनघनाया.उधर से भाई की आवाज़ थी.

"दीदी! मुबारक हो तुम चुन ली गई हो. बस अब एक पायदान बची है इंटरव्यू.."

पुरा वाक्य सुने बिना ही दौडकर सुनील का हाथ थाम कानों मे खुश खबरी सुनाई.आँखो से ढलकने वाली बूँदे अश्रुधारा बन गई.

ईश्वर के आगे शीष झुकाने मुडी ही थी कि सालभर से बेजान  सुनील के हाथों मे हलचल हुई. झट हौले से हाथ थाम लिया 
गले लग गई सुनील के..मेरे जीवन के सच्चे साथी.

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(14). आ० रश्मि तरीका जी 
रोटी...

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रसोई में खड़ी ,साड़ी के पल्लू से आशिमा अपने आँसू पौंछती हुई , मन ही मन बड़बड़ाती जा रही थी कि अचानक समीर ने हाथों से बेलन लेकर उसे पीछे हटा दिया।
"मेरे हाथ पाँव सलामत हैं ,मैं अपना खाना खुद बना लूँगा।"
"समीर ,हद्द है ।नाराज़ तो मुझे होना चाहिए था...!
"तो और क्या करूँ ?यहाँ कारोबार में मन्दी के चलते इतने तनाव में हूँ और तुम्हें घूमने की पड़ी है।लेकिन तुम औरतों को क्या ? तुम तो हर महीने खर्चे के लिए हाथ फैला दोगी।"गुस्से के दबाव में आटे की लोई बेलन से चिपक गई।
"ये बार बार हाथ फ़ैलाने वाली बात क्यूँ कहते हो ?फिर तुम्हारी परेशानी देखकर ही मैं घर पर ट्यूशन लेने लगी हूँ ताकि चार पैसे आएँ ।तुम ही बताओ और मैं क्या कर सकती हूँ ?" अपने लहज़े में थोडा नरमी लाते हुए समीर के हाथ से बेलन ले रोटी बनाने लगी।
"तुम्हारी ट्यूशन से क्या होगा भला ? यहाँ कारीगरों की पगार भी बाकी है ।कहाँ से लाऊँ पैसे,समझ नहीं आ रहा।"
"सुनो ...यदि मैं ट्यूशन वाले बच्चों से छः महीने की फीस एडवांस में ले लूँ तो काम चल सकता है....।"आशिमा ने सोचते हुए कहा।
"वाह आशू ! मिनटों में परेशानी का हल !" आशिमा की बनी रोटी पर घी लगाते हुए समीर ने कहा।----------------------------------------------------
(15). आ० पंकज जोशी जी,
साथी - लाल सलाम !

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"अरे रवि बहुत दिनों बाद दिखे हो, कहीं बाहर गये थे क्या ?" कैम्पस में काफी समय बाद मिली बचपन की दोस्त आयशा ने उससे पूछा ।
"अरे कुछ नहीं बस यूं ही घर चला गया था ।"
"बड़ी अजीब बात है कल ही मैंने घर फोन किया था तो पता चला कि तुम कई महीनो से घर गये ही नहीं ।"
"अच्छा मेरी अम्मा तुम अभी चलो मुझे क्लास अटेंड करनी है और भी काफी काम है ।" कैंटीन से अपनी किताबें उठाते हुए चलने को हुआ।
"और यह साथ में तुम्हारे लड़की कौन है ? परिचय नहीं करवाओगे मेरा इससे ?"
"अरे यह तान्या है मेरी क्लास मेट और तान्या... यह है आयशा, खुश चलो चलते हैं ।"
"यह तुम बेगानो जैसा क्या सलूक कर रहे हो मेरे साथ, मैं कई दिनों से देख रही हूँ तुम मुझसे कन्नी काट रहे हो, ठीक से बात भी नहीं करते, यह क्या हुलिया बना रखा है तुमने ? लम्बे बाल, दाढ़ी, फ़टी जीन्स, कुर्ता, यह चप्पल, कंधे पर झोला और ये मुँह से कैसी अजीब सी बदबू आ रही है ? कैम्पस में लोग ना जाने तुम्हारे बारे में बातें कर रहे हैं , तुम्हे पता भी है ?"
"क्या कहते हैं मेरे बारे में ?"
"यही कि तुम किसी संगठन से जुड़ें हो ।"
"तो क्या मैंने कोई अपराध कर लिया?"
"देखो मैं तुम्हें कुछ समझाने का प्रयत्न कर रही हूँ कि ...."
इससे पहले की वह कुछ कहती तभी उसने उसे रोक दिया " देखो मैं अपना भला बुरा भली भांति समझता हूँ, तुम मेरी पैरेंट बनने की कोशिश ना करो । और तुम्हें यह अधिकार दिया किसने कि तुम मेरी इंकायवरी करती फिरो ?"
"क्या यह भी तुम्हे मुझे बताना होगा कि मैं तुम्हारी कौन हूँ ? चलो बैठो कार में पहले मैं तुम्हारा हुलिया बदलवा दूं फिर किसी अच्छे से रेस्त्रां में बैठ कर ढेर सारी बातें करेंगे ।"
"तुम पूंजीवादियों की यही समस्या है कि हर समय बात बात पर अपने पैसे की धौंस जमाते रहते हो ।"
"हैलो ! यह क्या बोल रहे हो हमारे बीच यह सब कहाँ से ? ..... "
तभी पीछे से आती हुई भीड़ के नारों में उसकी आवाज दब गई और रवि ने तेजी से अपना हाथ आयशा से छुड़ाया और लाल सलाम , लाल सलाम चिल्लाते हुए उसमे खो गया । पीछे रह गई तो आँसूओं से डबडबाई उसकी आँखे जिन्हें अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके बचपन का प्यार उससे इतनी दूर चला जायेगा ।
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(16). ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 
साथी

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कोर्ट में सीमा के नाम की आवाज लगते ही पति को दिन में तारे दिखाई देने लगे. अब उसे सजा से कोई बचा नहीं सकता. इस का उसे अहसास हो गया था. उस की इसी पत्नी ने उसे कई बार मना किया था. रिया के झांसे में नहीं आए. मगर वह नहीं माना था . उस का तर्क था कि रिया ऑफिस में नईनई लगी है. उसे काम नहीं आता है. इस कारण वह उस की मदद कर देता है.
“मगर उस फोटो को देखो. वह आप के साथ किस तरह अड़ कर खड़ी है. उस की निगाहें पढिए. मुझे उस के इरादे अच्छे नहीं लग रहे हैं. कहीं आप भी तो उस के चुंगल में तो नहीं जाना चाह रहे है ?”
“ अरे नहीं रे ! तू यूँ ही चिंता करती है.”
“ मैं चिंता नहीं कर रही हूँ. लोग कहते हैं इसलिए आप को समझा रही हूँ. मगर, आप के इरादे भी ठीक नहीं लग रहे हैं. कहीं आप भी उस का फायदा उठाने की सोच रहे हैं ?” सीमा ने याद दिलाया, “ उस रात भी आप काम के बहाने ऑफिस में रुके थे ?”
इस पर वह चिढ़ गया था ,” तुझे तो शक करने की बीमारी है.”
“ मैं शक नहीं कर रही हूँ. बता रही हूँ. कल से कुछ हो जाए तो मुझे मत कहना. तुम ने याद नहीं दिलाया था,” यह याद आते ही वह सहम गया.
अब उसे सजा मिलना तय थी. क्यों की उस की पत्नी ही रेप केस की मुख्य गवाह थी . इस कारण, दुनिया की कोई ताकत उसे बचा नहीं सकती. यह वह जान चुका था.
“ माय लार्ड ! अब इस केस की मुख्य गवाह यानि आरोपी की पत्नी का बयान सुन लीजिए. जिस ने खुद आरोपी को चेताया था कि वह रिया का नाजायज फायदा न उठाए.” यह सुन कर कोर्ट में सन्नाटा छा गया.
“ जी हूजूर ! वकील साहब सही फरमा रहे है....” सीमा अपने बयान दे रही थी. और इधर सीमा के पति को अपने अपराधी होने का पूरा एहसास होने लगा. अब उसे रेप के केस में सजा होना तय थी.
“ जज साहब ! रिया जैसी लड़की पद, पैसा और पोजीशन के लिए कुछ भी कर सकती है. आखिर एक फोन के बुलावे पर कहीं भी आ जाना इस के पेशा जो है. इसी से आप समझ सकते हैं कि मेरे पति बेक़सूर है. उन्हें जबरन फंसाया जा रहा है.”
यह सुनते ही सभी आवक रह गए.
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(17). आ० शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी 
"गुटबाज़ी"

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देश में गठबंधन सरकार के प्रयोग देखकर समाज में अपनी सत्ता और अधिक सशक्त करने के लिए 'बेईमानी' वाला सफल गुट 'ईमानदारी' के गुट से अपने में विलय करने या अन्दर या बाहर से समर्थन लेने की गुज़ारिश कर रहा था। इसके लिए उनके घटक दल भी आपस में वार्ता क्रम जारी रखे हुए थे। अपने पार्श्वचर घटकों 'सच्चाई' , 'नैतिकता' और 'आदर्श' के साथ 'ईमानदारी' वाला गुट ज़िद पर अड़ा था कि उन्हें ऐसी व्यावहारिकता, आधुनिकता और उपलब्धियां नहीं चाहिए कि उनका अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाये! सो उन्होंने उस गुट में विलय तो क्या समर्थन देने तक से मना कर दिया।

समाज में अपने परचम बुलंद करते साथियों 'झूठ', 'फरेब', 'भ्रष्टाचार' और 'अनैतिकता' के साथ 'बेईमानी' के गुट ने अपने अनुभवों, सफलताओं और सतत आधुनिक विकास के बारे में चर्चा करते हुए 'ईमानदारी' वाले गुट से कहा- "तुम्हारे गुट का अस्तित्व तो वैसे भी ख़तरे में ही है...क़िताबों में ही सिमट कर रह गये हो.... दरअसल समाज को सम्मोहित कर जलवे दिखाने के लिए कभी-कभार हमें भी तुम लोगों की भी ज़रूरत पड़ती है, सो हमसे ही जुड़ जाओ! हमारे साथ रहोगे तो तुम लोग भी फ़ायदे में रहोगे!"

"हरग़िज़ नहीं! आप जैसों से दूरी बनाए रखना ही हमारा उसूल है! हमारी आज भी अहमियत है! हम आज भी प्रासंगिक हैं... देखना, समाज में हमारी सत्ता का भी समय एक दिन आयेगा ही...देर है अँधेर नहीं!"

"आपके 'अच्छे दिन' कभी नहीं आने वाले... न तो हमारी तरह कभी आपको मीडिया कवरेज मिलेगा, न ही कभी आप हमारी तरह अपना उच्च तकनीकी विज्ञापन करवा पाओगे.... पूरे जनमानस पर कैसे छाओगे ?"- 'बेईमानी' के गुट ने 'ईमानदारी' के गुट पर व्यंग्य करते हुए कहा।

जब 'विलय' अथवा 'समर्थन' की बात पर कोई सहमति नहीं बन सकी, तो 'बेईमानी' के सफल गुट ने अपने एक ख़ास मित्र 'उपलब्धि'- गुट से मध्यस्थता करने की ग़ुज़ारिश की। शिखर वार्ताओं के ज़रिये अपने घटकों 'तात्कालिक उपलब्धि' , 'क्षणिक उपलब्धि' व ' 'उच्चवर्गीय उपलब्धि' वाले इस संगठन ने 'ईमानदारी' वाले गुट को अपने अनुभव सुनाते हुए 'मनाने' की भरसक कोशिश की, किन्तु दो टूक जवाब सुनना पड़ा-

"ग़रीबों की उपलब्धियों की परवाह न करने वालों का साथ हम भला क्यों दें!"- 'ईमानदारी' वाले गुट ने कहा- "समाज का निर्धन वर्ग ही तो हमारा सच्चा साथी रहा है!"

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(18). आ० तसदीक़ अहमद खान जी 
साथी (हमसफ़र )

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रात के ग्यारह बजे जैसे ही अहमद ने साथी मज़्मून पर नज़्म लिखने के लिए क़लम उठाई ,उन्हें  तन्हाई का एहसास सताने लगा | इस फ़ानी दुनिया में हमेशा साथ कौन निभा पता है। ... माँ ,बाप का साथ बरसों पहले छूट गया। ... बेटा  बहू  को लेकर परदेस चला गया। ... जो ज़िंदगी में जीवन साथी बन कर आई वह पांच साल पहले खुदा  को प्यारी हो गयी | अब सिर्फ बेचारी एक क़लम बची थी जो क़दम ब क़दम साथ चल रही थी , कहते हैं इंसान का साया भी उम्र भर का साथी है जो मरते दम तक साथ रहता है ,कम से कम इस बात का सुकून तो है कि उसके पास उसका साया और क़लम साथ है | अहमद यादों की दुनिया में खोये थे कि अचानक बिजली चली जाती है ,अहमद यह मंज़र देख कर घबरा जाते हैं ,अँधेरा होने से उन्हें अपना साया भी नज़र नहीं आता। ..... उन्हें अहसास होने लगता है कि साया भी साथ छोड़ गया। .. वह एक सहारा जाता देख अपनी क़लम को मज़बूती से पकड़ लेते हैं। ....... 
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(19). आ० मोहन बेगोवाल जी 
साथी

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दसवी कक्षा में साथ साथ पढ़े कुछ साथिओं ने इक दिन शाम साथ गुजारने की सलाह बनाई । बीते चालीस वर्षों में कुछ ही लोग इक दुसरे को मिले थे, मगर इक साथ आज ही इकठ्ठे हुए । अब तक कुछ लोग अपनी अपनी नौकरी से रिटायर हो चुके थे और कुछ रिटायर होने जा रहे थे । इन में से ज्यादातर लोग शहरों में आ कर रहने लगे थे ।
जो जगह मिलने के लिए निश्चित की गई थी, वहाँ पर इक फंक्शन चल रहा था । बाहर लगी होर्डिंग में दिखाया गया था कि किसी नई छपी किताब का विमोचन होने जा रहा है ।
जब हम लोग बैठे बीते दिनों की बातें कर रहे थे ,तो गुरमीत ने आते ही कहा, “पता है, यहाँ किस की किताब का विमोचन हो रहा है”,
“अपने रजिंदर की किताब का”, पर वह तो बाहर चला गया था।
हाँ, अब तो वह बहुत बड़ा आदमी हो गया है, शहर के कुछ लोगों के नाम होर्डिंग पर हैं, जो इस फंक्शन में आ रहें हैं ।
बातों बातों के बीच किसी ने कहा, हमें भी उसे मिलना चाहिए, आखर तो हमारा क्लास फेलो रहा है । फैसला ये हुआ कि सुरिन्दर उस के सब से करीब रहा है,वह उसको पहचान जायेगा । 
इस लिए पहले सुरिन्दर को मिलने के लिए कहा गया, तभी हम सभी को फंक्शन में हाजिर होना चाहिए । मगर जब सुरिन्दर हाल के गेट पर आया तो,गेट कीपर ने कार्ड दिखाने के लिए कहा, हाल में एंट्री कार्ड के साथ ही होगी । तो उसे लगा, मगर हम तो........... सुरिन्दर ने फिर कहा । आप कार्ड बिना अंदर नहीं जा सकते, गेटकीपर ने फिर कहा क्यूंकि जिन के पास कार्ड हैं , वही लोग अंदर जा सकते, सुरिन्दर ने अंदर देखा, वहाँ तो...... और रजिंदर को पहचानने की असफल कोशिश के बाद, वह मुड़ा और सभी साथिओं को इशारा किया और सभी धीरे धीरे बाहर की तरफ चल पड़े।
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(20). आ० सुधीर द्विवेदी जी 
 पल – छिन

गोरा रंग ,मोटी, बड़ी-बड़ी गहरी आँखे और चौड़ा चमकदार माथा। बस अंतर एक ही था उसके सपनों के राजकुमार की तरह उस लडके के मूँछे नही थी। मेज़ पर चाय-नाश्ते की ट्रे रखते हुए कुछ सोचते हुए, लड़की मन ही मन मुस्कुरा उठी। लड़का अपनें माता-पिता के साथ उसे देखने आया था।
“यह हमारी बेटी है ।" लड़के से परिचय कराते हुए माँ ने आँखों से इशारा किया तो लड़की ने चाय और नमकीन की प्लेट लड़के के सामनें कर दी । लड़का पहले थोड़ा झिझका ,फ़िर उसने प्लेट से नमकीन के कुछ दानें उठा लिए।
“लो बेटा थोड़ी और नमकीन लो..।' कहते हुए चौधराईन ने प्लेट में से कई चम्मच नमकीन जबरदस्ती लड़के के हाथ में रख दी। लड़की कनखियों से लड़के की तरफ़ देख रही थी तभी लडके ने उसकी तरफ देखा | नजरें मिलते ही लड़की ने सकपका कर नजरें फिर नीची कर लीं
"देखिए हमारा लड़का थोडा आधुनिक ख्यालों का है । अगर आप लोग इजाज़त दे तो यह आपकी बेटी से अकेले में बात करना चाहता है।" लड़के की माँ जरा झिझकते हुए बोली। चौधरी जी कुछ बोलते इससे पहले ही चौधराईन बोल पड़ी "हां हां क्यों नही ।"
माँ का इशारा पा लड़की, लड़के के साथ-साथ बगीचे में चली आई।
"हैलो .." लड़के नें पहल की। नजरें झुकाये हुए लड़की ने सिर हिला कर लड़के के अभिवादन का प्रत्युत्तर दिया। “ये मौसम मुझे बहुत अच्छा लगता है । और ..आपको..? लड़के ने बात बढ़ानें की कोशिश की। लड़की हाँ में सर हिलाते हुए हौले से मुस्कुरा दी।
“न जाने लोग शादी जैसा बड़ा डिसीज़न इतनी जल्दी कैसे ले लेते है ? भला चंद लम्हों की मुलाक़ात में कोई किसी को जीवन भर का साथी कैसे बना सकता है ?" लड़का अपनी हथेली में ली हुई नमकीन में से कुछ दाने हवा में उछालते हुए सर झटकते हुए बोला। लड़की अब भी लड़के के पीछे-पीछे ही चल रही थी।
"आप को कुछ नही कहना इस विषय में.. " लड़का अचानक ठहर कर ,पलटते हुए लड़की से बोला।
लड़की नें अपनी मुट्ठी हौले से खोल कर, लड़के के सामने कर दी।
"अरे इसकी क्या जरूरत थी?" लड़का,लड़की की हथेली से नमकीन उठाते हुए बोला तो लड़की, जवाब में फ़िर मुस्कुरा दी ।
“पर इसमें पड़े, मूँगफली के दाने कहाँ गये..?" लड़का नमकीन चबुलाते हुए बोला ।
“आपको तो मूँगफली पसन्द ही नही है न..?” लड़की, पहली बार लड़के कि आँखों में झांकते हुए बोली थी।
"आपको कैसे पता चला कि मुझे मूँगफली पसन्द नहीं है।" लड़का चौंकते हुए बोल उठा।
"साथी को समझने के लिए कुछ पल भी काफ़ी होते हैं।" लड़की ने लड़के द्वारा चुन कर, ज़मीन पर फेंके गए मूंगफली के दानों की ओर इशारा किया और लडके की आँखों में झांकते हुए एक बार फ़िर, मुस्कुरा उठी।
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(21). आ० डॉ टी आर सुकुल जी 
साथी
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मुहल्ले वालों ने अनेक वर्षों से किसी को न तो शर्मा जी के घर जाते देखा और न ही उन्हें किसी के साथ कभी कहीं भी आते जाते। वह अकेले ही अपने घर में रहते और प्रतिदिन प्रातःकालीन भ्रमण के लिये अवश्य 6 से 7 वजे के बीच मुहल्ले की ही सड़कों पर अकेले ही धीरे धीरे घूम कर अपने घर आ जाते। पड़ौसी उन्हें आदर से नमस्कार करते तो वे अपनी लाठी सहित दोनों हाथ जोड़कर उन्हें अपने मस्तक तक अंगूठों को छूने की स्थिति तक ले जाते और फिर हृदय के पास लाकर आगे की ओर सामान्य से अधिक झुककर प्रत्युत्तर देते। उनका मानना था कि वह किसी के शरीर को नमस्कार नहीं करते, उसके भीतर स्थित परमपुरुष को अपने मन और हृदय की शुद्धता से उचित मुद्रा के साथ करते हैं।
उनकी आयु को ध्यान में रख, उन्हें आदर करने वाले अधिकाॅंश लोग उन्हें सामने जाकर नमस्कार न कर दूर से ही प्रणाम करना उचित समझने लगे ताकि उन्हें अनावश्यक झुकने में कष्ट न हो। एक दिन प्रातः भ्रमण के समय, सामने से आते हुए एक यात्री ने मुहल्ले में किसी का पता पूछने की इच्छा से उन्हें नमस्कार किया। शर्माजी ने अपनी मुद्रा के साथ ज्यों ही लाठी सहित अपने दोनों हाथ जोड़कर प्रत्युत्तर देना चाहा कि उनके पैरों का संतुलन खो गया और वह नीचे गिर पड़े। यात्री ने अपना सामान तत्काल नीचे पटका और उन्हें सहारा देकर उठाते हुए कहने लगा-
‘‘ दादाजी ! इस अवस्था में प्रातः भ्रमण के समय अपने साथ किसी को ले लिया करें‘, ओह! व्यर्थ ही मेरे कारण आपको कष्ट पहुंचा‘‘
‘‘ नहीं , इसमें आपका कोई दोष नहीं और न ही इस लाठी का, वह तो मेरी ही असावधानी थी कि मैं अपने पैरों को संतुलन में नहीं रख पाया। भाई साब! पिछले सतत्तर सालों से अनेक ‘जीव‘ यथा समय साथ देने आते रहे और क्रमशः जाते रहे, अन्त में यह ‘निर्जीव‘ लकड़ी (अर्थात् लाठी) आयी और, मुझे इसकी निष्ठा पर पूरा विश्वास है कि वह मेरी अंतिम साॅंस तक साथ देगी।‘‘..... ...
कहते कहते शर्माजी आगे चलते गये और यात्री उनकी साधुता, सौम्यता और निर्द्वन्द्वता को मन ही मन प्रणाम करता अपने गन्तव्य की तलाश में आगे बढ़ गया। 
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(22). आ० समर कबीर जी 
"दोस्त"

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हरीश निगम और मोहन जोशी गहरे मित्र बन गए थे दोनों ही रिटायर्ड थे, ये दोनों रोज़ शाम को एक पार्क में मिला मिला करते थे और अपने दुःख दर्द एक दुसरे को सुना कर अपना मन हल्का कर लिया करते थे।

हरीश निगम रोज़ ही मोहन जोशी से अपने कुछ मित्रों का ज़िक्र किया करते थे और कहते थे, "इस वृधावस्ता में वही मित्र उनका सहारा हैं" एक दिन मोहन जोशी हरीश निगम के पीछे ही पड़ गए कि तुम जिन मित्रों का ज़िक्र करते हो उनसे मुझे भी मिलवाओ। हरीश निगम ने कहा, "कल तो मैं किसी आवश्यक कार्य से एक हफ़्ते के लिये बाहर जा रहा हूँ तुम अगले सोमवार को मेरे घर आजाना, मिलवा दूँगा"।

अगले सोमवार को मोहन जोशी हरीश निगम के घर पहुँच गए, कुछ देर गप शप करने के बाद मोहन जोशी ने कहा, "कहाँ है तुम्हारे वह मित्र ?" यह सुनते ही हरीश निगम की आँखें नम हो गईं और वह रुँधी हुई आवाज़ में बोले, "क्या बताऊँ यार ये सामने दीवार देख रहे हो ? यहाँ मेरा बुक शेल्फ़ था और इस में मेरी किताबें राखी थीं, जो मेरी सच्ची मित्र थीं, पत्नी के स्वर्ग वासी होने के बाद बहू का मुझ बूढ़े के प्रति उपेक्षापूर्ण व्यवहार चल रहा है, मेरे घर में न होने का फ़ायदा उठा कर उसने वह शेल्फ़ और किताबे कबाड़ी के हाथ बेच दीं।" यह कहते कहते हरीश निगम मोहन जोशी के काँधे पर सर रख कर फूट फूट कर रोने लगे
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(23). आ० प्रतिभा पाण्डेय जी 
‘मरुस्थल

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“क्यों राधा ,तूने तो कहा था निम्मी को काम करने भेज देगी मेरे पीछे से ,फिर क्या हुआ ? अभी तो दो महीने हैं उसकी बारवीं की परीक्षा केI तुम लोगों के साथ कितना भी कर लो पर तुम ..” दूसरी तरफ वाली ने बिना जवाब दिए फोन काट दिया I
वो सकपका गई ‘काम वाली की ये हिम्मत’ वाले भाव चेहरे पर लिए फोन को देखती रही कुछ देर I टेबल में आधे खाए पिज़्ज़ा और ब्रेड मक्खन फैले पड़े थे I
फोन बज उठाI सहेली का था “ हाँ निशा , बस अभी पहुँच रही हूँ I पूरा काम फैला है और राधा बाई ने छुट्टी मार रखी हैI आज मेरा करवा चौथ का व्रत भी है ..अरे नही. भूख वूख नहीं लग रही ,इस दिन की बात ही कुछ ऐसी है कि भूख प्यास सब भूल जाती हूँ मैं, चल बाद में बात करते हैं”I
फोन रखकर उसने शाम को पहनने वाली साड़ी का पैकेट उठा लिया जो वो ड्राई क्लीनर्स के पास से लाई थी I चाँद देखकर सुनील के हाथों व्रत तोड़ने का रोमांच अभी भी उतना ही था जितना शादी के पहले साल था I साडी को प्यार से सहेज कर फिर वापस रख दिया I
“मम्मा” सात साल की बेटी स्कूल से आ गई थी I
“तीन दिन खूब पिज़्ज़ा और ब्रेड खाए हैं ,बेटी और पापा ने , हैं ना ?”
“नहीं मम्मा वो निम्मी दिदी आई थी एक दिन तो खाना बनाने” I
“फिर “?
“पता नहीं ? मैंने तो मम्मा टेबल में खाना खाया था ,पर पापा ने दिदी को अपने कमरे में बुलाया खाना लेकर I पापा ड्रेस भी लाये थे दिदी के लिए”
“फिर” ? आवाज़ काँप रही थी अब उसकी
माँ के चहरे को देख बिट्टू सहम गई,I
“मुझे नहीं पता मम्मा ? दिदी फिर रोते रोते चली गई थी ,ड्रेस भी नहीं ले गयी i”
अचानक उसे लगा कि किसी मरुस्थल में वो बरसों से भूखी प्यासी घूम रही हैI पानी की पूरी बोतल गले के नीचे उतार कर भी गला सूखा था I आँखों से गालों में लुढका पानी और बोतल का पानी सब मिल जुल रहे थे उसके चेहरे पर I
, बिट्टू के सहमे चेहरे के पीछे से रोती हुई निम्मी का चेहरा झाँकने लगा था Iघबरा कर बिट्टू को पास खींच लिया उसने I
“ अरे बेटा, वो मम्मा सुबह से भूखी है ना इसलिए रोना आ रहा है I और मेरी बिट्टू भी तो भूखी है I चलो चलो बाहर चलते हैं और होटल में खाना खायेंगे बढ़िया वाला”I
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(24). आ० मनन कुमार सिंह जी 
साथी
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दो भिखारी आपस में लड़ रहे थे।बगल के सिपाही ने कहा, 'रे क्यूँ झगड़ रहे हो? एक यहाँ बैठो,एक वहाँ;फिर तो झगड़ा न होगा।माँगते रहो भीख,चाहे जितनी देर।' छूटते ही दोनों भिखारी साथ-साथ बोल पड़े,'सिपाहीजी, हम भीख माँगते हैं,आरक्षण नहीं।'
-क्यों, तुम्हे भी आरक्षण चाहिये क्या?
-काहे सिपाहीजी,हम अपुन देश के वासी
नहीं हैं का?', मोबाइल पर कुछ देखते हुए एक भिखारी ने सवाल दागा।
-हाँ भई, बात तो सोलह आने सच है। है कि नहीं?हमारे मन में भी तो आरक्षण के लड्डू फूटते रहते हैं न।',भिखारी का दूसरा साथी चहका।फिर वह इयर फोन का प्लग कान में लगा म्यूजिक की धुन पर झूमने लगा।
- पर अब हम इस घुड़दौड से अलग हो चुके हैं। बड़े- बड़े खिलाड़ी मैदान में हैं।आरक्षण की सवारी बड़ों के लिए है,हमें क्या? और पूछता भी कौनहै हमें?', एक भिखारी की आवाज खनकी।
-हाँ सर,वही तो मैं भी कहूँ। अब आरक्षण खैरात थोड़े ही है,यह तो स्टेटस सिम्बल हो गया है,सर। और लाज तो गई गाछ पर,तेल लेने।माँगना तब गर्हित था,अब भी है।पर आरक्षण माँगना तो इज्जत से जुड़ चुका है।शान कि बात है । कहेंगे कि हम आरक्षण वाले हैं,लोग डरेंगे भी।अब धर्म में वह धार कहाँ जिससे लोग डरते थे,लोक-परलोक के नाम पर? अब तो आरक्षण कहिये,बस लोग सहम जायेंगे। ', दूसरे भिखारी ने मोर्चा खोल दिया।
सिपाही अपनी पढ़ाई के जमाने में पहुँच चुका था।सोचने लगा कि कोई बुरा तो न था वह पढ़ने में।वैसे भी कोई न कोई नौकरी तो लग ही जाती।तब तो यह सुनना न पड़ता न कि नौकरी कोटा वाली है।यह कोटि वाला ठप्पा तो नहीं लगता। लग रहा था जैसे किसी ने उसे सरेआम नंगा कर दिया हो और वह लाज बचाने के लिए धरती में गड़ा जाता हो।वह कुछ बोल न पाया।पसीने माथे पर चुहचुहा
गये।
-क्या हुआ सिपाहीजी? कहाँ खो गये?
-अरे कुछ नहीं रे, वैसे ही कुछ याद आ गया था।
-चिंता मत करो सिपाही जी।हम अब आरक्षण की माँग नहीं करेंगे।वैसे ही बिना कुछ किये फल चाहनेवाले बहुत लोग हो गये हैं अपने देश में ।मिल भी जाता है सब कुछ वैसे ही यहाँ।
-छोड़ो, चलो अपना काम देखा जाये।', सिपाही बोला।
-हाँ हाँ, सिपाही जी....राम राम। हम तो वही राम साम मंगरू....हेहेहे।
-हाँ जी,राम राम।
सिपाही चलता बना।रास्ते में उसके दिमाग में कौंधा.......राम साम मंगरू.....अरे राम लाल और श्याम पांडे तो मेरे साथ पढते थे.....हाई स्कूल तक हम साथ थे ....प्रथम द्वितीय आते थे, मैं तो हमेशा तीसरे स्थान पर रहा।', मंगरू राम को याद आया।वह तेजी से वापस स्टेशन पहुँचा। दोनों भिखारी वहाँ नहीं थे।
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(25). आ० शशि बांसल जी 
वैधानिक साथी

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सुदीप को रवाना कर ऋचा 'डायनिंग टेबल' से जूठे बर्तन समेट ही रही थी कि उसे मोबाइल की सन्देश ध्वनि सुनाई दी ।
" अरे ! ये अपना मोबाइल कैसे भूल गए आज ? " उसने आश्चर्य से कहा और 'किसका सन्देश है', उठाकर पढ़ने लगी ।
" सॉरी डार्लिंग , आज नहीं आ पाऊँगी ।सास-ससुर आ रहे..."
" ये क्या कर रही हो ? मेरे मोबाइल को हाथ क्यों लगाया तुमने ? " तभी क्रोध और घबराहट के साथ पत्नी के हाथों झटके से मोबाइल छीनते हुए सुदीप चिल्लाया ।
" ये श्वेता कौन है ? "
" कss.. कौन श्वेता ? "
" वही... जिसका सन्देश है तुम्हारे मोबाइल में ।"
" मेरे ही दफ़्तर में काम करती है ।"
" हूँ... रिश्ता क्या है आपका उससे ? "
" साथी है बस ।"
" और मैं ...? "
" बंधन "
ऋचा के कानों से किसी कमजोर -मुश्किल घड़ी में माँ के कहे शब्द आ आकर टकरा रहे थे...
" प्रत्येक पुरुष को पत्नी और प्रत्येक स्त्री को पति तो सहज मिल जाता है , लेकिन साथी किसी विरले को ही मिलता है ।"
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(26). आ० राजेश कुमारी जी 
लँगोटिया साथी

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बाहर हॉल में मेहमानों का आना ज़ारी था एक दूसरे से परिचित परिवारों के मिलने मिलाने की औपचारिकताएँ भी साथ-साथ चल रही थी| दिन में आज शेखर को पदोन्नति के फलस्वरूप नई रैंक जो मिली थी उसी की ख़ुशी में इस भव्य पार्टी का आयोजन किया गया था| लगभग सभी मेहमान आ चुके थे बस इन्तजार था तो मुख्य अतिथि अर्थात शेखर के बॉस के आने का |
अन्दर शेखर दो बार गाँव से आये अपने पापा को बोल चुका था कि धोती कुर्ता न पहन कर उसकी खरीदी हुई पेंट शर्ट पहन कर हॉल में आये| पर पापा कह रहे थे कि अगर उसे उसके इस लिबास से शर्म महसूस होती है तो वो पार्टी में नहीं जाएँगे| इसी कशमकश के बीच किसी ने खबर दी कि उनके बॉस आ गए हैं | शेखर अपनी पत्नी को लेकर तुरंत हॉल में पँहुचे| पापा ने अपने को एक कमरे में बंद कर लिया |
शेखर ने आगे बढ़कर बॉस से हाथ मिलाया |
उसी समय पास में बैठे एक साधारण सी धोती कुर्ता पहने बुजुर्ग से बॉस ने परिचय करवाते हुए कहा “ ये मेरे पिता जी हैं आज ही गाँव से आये हैं मेरे आग्रह पर मेरे साथ यहाँ आये हैं वर्ना घर पर अकेले बोर होते ”|
शेखर ने आगे बढ़कर उनके पैर छुए और आशीर्वाद पाया| आत्मग्लानि के घड़ों पानी में भीगा सा शेखर तुरंत घर में अन्दर वापस आया और अपने पिता से माफ़ी माँगते हुए उसी लिबास में हाथ पकड़कर हॉल में लेकर आया |
बॉस के पिता से परिचय करवाने तथा उनके पास पापा को बिठाने के लिए अग्रिम पंक्ति में उनके पास जैसे ही शेखर पँहुचा सब यह देख कर दंग रह गए कि दोनों बुजुर्ग हाथ मिलाने के बाद हँसते हुए एक दूसरे से लिपट गए |
जब तक शेखर और बॉस कुछ समझ पाते पापा ने कहा “अरे शेखर बेटा ये तो अपना लँगोटिया साथी चरनु है आज भी बिल्कुल नहीं बदला " कहते-कहते ख़ुशी में हँसते-हँसते खाँसने लगे दोनों की आँखों का गीलापन भी सबको साफ़ दिखाई दे रहा था |
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(27). आ० तेजवीर सिंह जी 
पगली

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डॉ मलिक की पहली पोस्टिंग हरियाणा के एक छोटे से गॉव में हुई थी!चिकित्सालय के पास ही सरकारी मकान मिला था!अकेले ही थे!शादी अभी हुई नहीं थी! दोपहर में एक मरीज़ को देख कर लौट रहे थे कि मंदिर के चबूतरे पर पीपल के पेड के नीचे एक युवती अर्द्ध विक्षिप्त दशा में पडी थी!कुछ बच्चे उसके वस्त्र खींच कर ,उसेपत्थर मार कर परेशान कर रहे थे!डॉ मलिक जिज्ञासा और दयालुता वश उधर मुड गये!बच्चों को डांटा तो बच्चे बोले, "ये तो पगली है"!
"जो भी है पर तुम क्यों तंग करते हो"!
इतने में पगली चिल्ला पडी,"मैं नहीं तुम सब पागल हो,ईडियट"!
उसके मुंह से इंगलिश का शब्द सुन कर डॉ मलिक चौंक गये!
"तुम पढी लिखी हो"!
"यस आई एम पोस्ट ग्रेजुएट इन कैमिस्ट्री "!
डॉ मलिक भौचक्के हो गये!इतनी शुद्ध और स्पष्ट इंगलिश सुनकर!डॉ मलिक उसे समझा बुझा कर अपने साथ चिकित्सालय ले आये!उसके ज़ख्मों पर मरहम पट्टी करा दी!
गॉव में खबर फ़ैली तो कुछ लोग आगये!
"डॉ साहब, यह क्या मुसीबत उठा लाये"!
"यह कोई मुसीबत नहीं, एक पढी लिखी लडकी है"!
"वह तो हम भी जानते हैं,पर आपको इस का इतिहास नहीं पता"!
"तो बताइये इसके अतीत के बारे में"!
"इसने एक मुसलमान से शादी की थी तो गॉव की पंचायत ने इसे सज़ा दी थी!इसका जोडीदार तो डर कर भाग गया "!
"क्या सज़ा दी थी इसे पंचायत ने"!
"आप यह सब छोडो, क्यों पड रहे हो इस पचडे में"!
बीच में लडकी बोल पडी,"इनको बताने में शर्म आती है, मैं बताती हूं!पंचायत ने मेरे घर को आग लगा दी और मेरे परिवार को गॉव छोडने का आदेश दे दिया, पुलिस ने भी इनका साथ दिया "!
"इतना जघन्य कृत्य, आप ऐसा कैसे कर सकते हैं"!
"डॉ साहब, हमारी मानो, इसे यहां से विदा करो नहीं तो आप भी पंचायत के कोप भाजन बनोगे"!
"देखो भाई, यह एक मरीज़ है, मैं इसे इस हालत में यहीं रखूंगा, जो होगा देखूंगा"!
डॉ मलिक ने बाद में लडकी को समझाया,"तुम शिक्षित हो, यहां क्यों जीवन बर्बाद कर रही हो!शहर चली जाओ!इस ज़िल्लत से तो पीछा छूटेगा"!
"डॉ साहब,मुझे मेरे साथी का इंतज़ार है, वह यहीं आयेगा , और अवश्य आयेगा"!
“ चलो ठीक है, यदि तुम्हें ऐसा लगता है कि तुम्हारा साथी आयेगा तो अवश्य इंतज़ार करो!जब तुम्हारी यह आश टूटने लगे तो मुझे अपना साथी समझ लेना”!
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(28). आ० रतन राठौड़ जी 
लेन-देन

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नाश्ता उपरान्त सेवानिवृत किशन बाबू ने अपने पुराने कागज़ात और फ़ाइल बहुत ही उदास मन से संभाले। आज भी उनको रोज़मर्रा की तरह उम्मीद कम ही थी काम हो जाने की।
"आजकल आप बहुत परेशान रहते है, शाम को भी देरी से घर आते है?" पत्नी रमा ने परेशान पति से पूछा।
"हाँ तो, नहीं आऊँ घर? कही मर जाऊँ जाकर?" लगभग खीजते हुये बोले।
"अरे आप तो नाहक ही ग़ुस्सा हो गए, मैं तो...." पत्नी का कथन पूरा होता कि किशन बाबू बीच में ही बोल उठे, " मैं तो....क्या? नाराज़ न होऊं तो क्या करूँ? एक माह से हाऊसिंग बोर्ड दफ्तर के चक्कर काट रहा हूँ, सिर्फ आश्वाशन पर आश्वाशन ही मिल रहे है। कभी साहब नहीं, कभी बाबू जी छुट्टी पर है, कभी फ़ाइल नहीं मिल रही है, आज कंप्यूटर खराब है, कभी सर्वर डाउन है...सालो ने वरिष्ठ नागरिक को भी तंग कर रखा है। आश्वाशन में जीते रहो बस!!.....पर मज़ाल है आश्वाशन का एक भी अक्षर टस से मस हो जाएं।"
" प्रजातंत्र है, पूरे पाँच बरस सरकार भी तो यही करती है।....आप तो एक माह में ही घबरा गये।" हँसते हुये पत्नी बोली।
"मुझे गुस्सा आ रहा है और तुम हँस रही हो।" उन्होंने पत्नी को उलहना दी।
" हाँ सच कह रही हूँ। सारी उम्र आप बस नौकरी ही करते रहे, कभी कुछ लेन-देन सीखा नहीं।" पत्नी ने कहा।
" मतलब क्या है तुम्हारा? सारी उम्र मैं गधा बना रहा।"
" जी यह बात नहीं है। पर आज आपका काम हो जायेगा।"
" अच्छा, वो कैसे?" फटी आँखों से उन्होंने पत्नी की और देखा।
"आप साहब के चपरासी को एक बड़ा पत्ता टिका देना, कहना भैया यह बच्चों की मिठाई के है, फिर कभी आपको आश्वाशन नहीं मिलेंगे, जीवन साथी हूँ इसलिए कह रही हूँ आपको परेशान देखकर।" पत्नी ने सुझाव देते हुये कहा।
राम किशन जी मुस्कुराते हुये घर लौटे, उनके जेहन में सुबह की तकरार अभी ताज़ा थी किन्तु जीवन साथी के लिए मन पसंद की मिठाई खरीदकर, उन्हें लेन-देन समझ आ चुका था।
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(29). आ० डॉ वर्षा चौबे जी 
साथी

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रोज की तरह आज भी दरवाजे के बाहर से टकटकी लगाए देखते रहे और जाने लगे सिस्टर से टकरा गए
"ओह सारी बेटा"
"कोई बात नहीं बाबा,वह बोली"|
विनोद आगे जाने लगा तो बोली "बुरा न माने तो एक बात पूछूं बाबा"|
"हाँ ,बोलो|
साथी.....
",ये कौन है क्या रिश्ता है आपका इनसे?
"जहाँ तक इनके परिवार की जानकारी है ,इनके पति है नहीं और इकलौता बेटा जो हर माह अस्पताल की फीस जमा कर फोन पर जानकारी ले लेता है,धीरे धीरे सब रिश्तेदारों का आना भी छूट गया |और फिर करें भी क्या आकर कोमा में है ये तो| "आखिर आज सुधा सिस्टर से रहा न गया एक ही सांस में सब कह गई|
मुस्कुरा कर विनोद ने उसके सिर पर हाथ रखा और आकर आटों में बैठ गए|
आँखों से गिरे आँसुओं में सीता का चेहरा छिलमिला गया "मानों फिर कह रही हो,"अगर में अस्पताल में रहूं और कोई मुझे कोई आए या न देखने ,तुम आओगे न"..
आँसुओं को हाथ में समेटते हुए विनोद बुदबुदाया "देख मैं आ गया एक बार आँख खोल मेरे साथी"|
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(30). आ० चंद्रेश कुमार छतलानी जी
भिखारी

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वो भिखारी सूर्य उगते ही शहर के सबसे बड़े विश्वविद्यालय के बाहर जाकर खड़ा हो गया| उसे विश्वास था, परीक्षाओं के चलते वहां से अच्छी भीख मिल जायेगी|
इतने में कुछ छात्रों का एक दल नारे लगाता हुआ आया, "विश्वविद्यालय प्रशासन हाय-हाय! हमारी मांगें पूरी करो, कठिन प्रश्नपत्र के बोनस मार्क्स दो|" नारे लगाते वो दरवाजे के एक तरफ बैठ गये|
यह देख भिखारी हैरान हो गया|
फिर छात्रों का एक और दल आया, वो भी नारे लगा रहे थे, "हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहिये, लोकतंत्र की यह मांग है|", चिल्लाते हुए वो दरवाज़े के दूसरी तरफ बैठ गए|
भिखारी अब हँसने लगा|
फिर छात्रों का एक अन्य दल नेताओं के साथ आया, और वो दरवाजे के ठीक बाहर खड़े होकर नारे लगाने लगे, "कुलाधिपति से मांग है, छात्र अतिरिक्त गतिविधियाँ नहीं करें| बिना अनुमति गतिविधि करने वाले दण्डित हों|"
भिखारी की हँसी और भी तेज़ हो गयी|
इतने में विश्वविद्यालय के कुलपति की गाड़ी सनसनाती हुई आई, वो तुरत-फुरत में बाहर निकले और हर दल से शांति की मांग करने लगे|
यह देख कर तो वो भिखारी कहकहे लगाने लगा|
कुलपति के इशारे पर वहीँ खड़े एक पुलिसकर्मी ने उस भिखारी को डंडा दिखाते हुए कहा, "ऐ, भाग यहाँ से... हँस तो ऐसे रहा है जैसे यूनिवर्सिटी तेरी है?"
अब हँसी भिखारी के चेहरे पर फ़ैल गयी, उसने हथेली को ऊपर की तरफ कर, अपना हाथ उन सभी की तरफ किया और लगभग चिल्लाते हुए कहा, "ये पढ़े-लिखे गुरूजी, बच्चे और सारे नेता मेरे ही तो साथी हैं...."
कहते-कहते उसकी हंसी की तीक्ष्णता बढ़ गयी|
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(31). आ०  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी 
साथी
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कार्यालय की व्यस्तता के कारण मैं संवेद के पिता की अंत्येष्टि में नहीं पहुँच सका अतः शाम को लौटते समय संवेदना जताने मैं उसके घर पहुंचा I घर अन्धकार में डूबा था I मैंने दरवाजे पर दस्तक दी I कुछ पल के इन्तजार के बाद दरवाजा खुला I सामने इमरजेंसी-लाईट लिए भावशून्य संवेद की माँ खडी थी. 
मैंने घबराकर पूंछा –‘ माँ जी आप ---?
‘आओ बेटा --- अभी-अभी लाइट गयी है I जीवन की तरह घर में भी अँधेरा है i’
मै उनके साथ ड्राईंग रूम तक गया I इमरजेंसी –लाईट में मैंने संवेद के पिता की टेबल-साइज फोटो देखी, जिस पर चढ़े फूल कुछ मुरझा से गए थे I अंकल के बारे में कुछ पूंछना चाहता था पर हिम्मत नहीं पडी I
‘माँ जी आप अकेली हैं क्या ---? मेरा मतलब बाकी सब लोग कहाँ गए ? संवेद, भाभी और बच्चे,m कोई नहीं दिख रहा I ‘- मेरे मुख से संवेदना में इतना ही निकला I
‘वह घाट से लौटा तो बहुत अपसेट था I इसलिए उसने ‘वेव’ में सिनेमा देखने का प्लान बना लिया I अब सब लोग वही से खाना खाकर लौटेंगे I’- माँ की आखों से अविरल आंसू बह रहे थे I मुझे आश्चर्य हुआ I संवेद पर कुछ क्रोध भी आया I ऐसे मौके पर भी यह हृदयहीनता !
‘माँ जी मुझे अंकल के लिए दुख है I मैं समझ सकता हूँ कि जीवन-साथी का बिछड़ना कितना असहनीय है पर ---?’
‘पर क्या बेटे, जो छोड़कर चले गये वह जीवन-साथी कैसे हुए ? साथी तो मेरे ये आंसू हैं जो जन्म से मेरे साथ हैं और अंत तक मेरे साथ रहेंगे I मैंने हमेशा इन्हें अपना आत्मीय माना है मेरे लिये ये सिर्फ पानी की बूँद मात्र नहीं अपितु मेरा जीवन-संबल हैं I इस साथी के रहते मुझे कोई फ़िक्र नहीं I मैने आंसू बहाना और पीना दोनों सीख लिया है और संवेद को भी यह बात अच्छी तरह समझा दी है I अब किसी को मेरी चिंता करने की आवश्यकता नही है I ‘
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(32). आ० अन्नपूर्णा बाजपेई जी
सच्चा साथी 

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"अरे रुको रुको !" अनीता ज़ोर से चिल्लाई , "उससे हाथ मिलने जा रहे हो , जबकि तुम्हें पता है कि तुम एच आई वी पीड़ित हो । कितनी बार मना किया है तुम्हें कि कहीं न जाया करो , लेकिन तुम हो कि मानते ही नहीं " बड़बड़ाते हुये अनीता लगभग घसीटते हुये उत्पल को अंदर ले गई ।
उत्पल ने समझाया , "ऐसा नहीं है हाथ मिलने से कभी एड्स नहीं फैलता और न ही कहीं बाहर आने जाने से , और समय रहते पता चल जाए तो उसका इलाज भी संभव है और तुम हो कि बेवजह सनक जाती हो । "
"वो जो भी हो , मैं नहीं चाहती कि लोग तुम्हें लेकर ताने मारे । " अलमारी साफ करते हुये अनीता बोली ।
अचानक एक लिफाफे पर उसका हाथ पड़ा उसने खोलकर देखा तो अवाक रह गई उसके हाथ से सारे कागज छूट कर जमीन पर गिर पड़े । एड्स का शिकार उत्पल नहीं वो खुद थी और पिछले एक महीने से उत्पल घर मे बिना वजह बैठे थे ।
उत्पल ने कहा ," मैं तुम्हें ये सम्झना चाहता था कि ये कोई लाइलाज बीमारी नहीं है समय रहते पता चलने पर इसका इलाज संभव है । तुम आम इंसान की तरह सारे काम कर सकती हो । जैसा कि अब तक कर रही थी । "
अनीता बड़े सम्मान से अपने पति की ओर देखती रह गई ।
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(33). आ० राहिला जी 
सर्वगुण सम्पन्न

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रमा के मन में सैंकड़ो सवाल और क्रोध ,किसी ज्वालामुखी के गर्भ की भांति उबल रहे थे।राजेश को भी उसकी मनोस्थिति का कुछ -कुछ भान हो चला था।परन्तु,वो नई नवेली दुल्हन होने का मान रखे हुये थी।लेकिन रात में एकांत पाकर वो खुद को रोक ना सकी ।
"आप जानते है राजेश!मैंने कभी पढ़ाई के साथ समझौता नहीं किया।इसलिये आज मैं सफलता के इस मुक़ाम पर हूं।लेकिन आपकी नजर में मेरी उपलब्धियों के कभी कोई मायने नहीं रहे।सगाई के बाद जब भी हमारे बीच बात हुई,आपके पास अपनी भाभी की तारीफ़ो के अलावा कोई बात नहीं होती थी।यहां तक कि उनसे तुलना करके आपने मेरा कई बार मखौल भी उड़ाया।मैं मानतीं थीं,कि मैं गृहकार्य में दक्ष नहीं हूं लेकिन आपकी बातों से मुझे कितनी तकलीफ होती होगी आपने कभी इसकी परवाह नहीं की । फिर मैेंने भी ठान लिया,कि मैं भी किसी से कम नहीं हूं और आप सोच भी नहीं सकते कि इतने कम वक्त में मैंने गृहकार्य में दक्ष होने के लिये क्या-क्या मुश्किलें नहीं उठाई होंगी । लेकिन पिछले दो दिनों से जो देख रही हूं, वो क्या है?"बता सकते हो?
"मुझे मॉफ कर दो रमा !अगर तुम्हें मेरी बातों ने इतना दुःख पहुंचाया है तो। और तुम्हारी तारीफ़ में, मैं क्या कहूं कि कितना खुश हूं तुम्हारे जैसा साथी पा कर । और मैं जानता था तुम में बहुत सारी खूबियां है ,सिवा गृहकार्य में दक्ष होने के । लेकिन हमारा परिवार पहले से ही भाभी के रूप में एक फूहड़ बहू को बरदास्त कर रहा था । और मैं नहीं चाहता था कि गृहकार्य में तुम भी...."उसने ये कहते -कहते नजरें झुका लीं।और कुछ देर की चुप्पी के बाद वो फिर बोला-
"भाभी की झूठी तारीफ़ के लिये मुझे मॉफ कर दो ,मेरी’सर्वगुण सम्पन्न !’"
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(34). आ० वीरेन्द्र वीर मेहता जी
जिंदगी

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"भाई! जरा चौक वाले डॉक्टर के क्लीनक चलना है।" कहते हुए वो दोनों बाते करते हुए रिक्शे में बैठे गए।
"इनकी बातो से लग रहा है जैसे पति पत्नी से सहमत नहीं है पर इसका मन रखने के लिए साथ चला आया है।" यही सब सोचते हुए रिक्शेवाले ने रिक्शे को चौक वाले रस्ते पे डाल दिया।
धूप से बचने के लिए एक हाथ में छाता और दूसरे हाथ से छाती को दबाये साथ बैठे पति को लक्ष्य कर पत्नी कह रही थी। "अब उम्र के ढलते दौर में जब बीमार शरीर हर घड़ी परमात्मा के बुलावे के डर के साथ जी रहा है, ऐसे में भी हर पत्नी की तरह मैं भी जग से सुहागन ही विदा होना चाहती हूँ लेकिन....।"
"वो ठीक है, पर देख बुधिया! मेरी बीमारी पर अब पैसा लगाना पानी में रेत डालने जैसा ही है।" पति ने उसकी बात को बीच में ही काट दिया।
"कैसी बात करते हो जी! डॉक्टर ने कहा है कि इस दवाई से तुम बिलकुल ठीक हो जाओगे।" उसने पति को हौसला देने की कोशिश की।
"कैसी दवाई कैसा डॉक्टर? अब अमरता का वरदान तो लेकर आये नहीं, ये तो बस तेरे प्यार का अमृत है बुधिया! जो मुझे जिंदा रखे हुए है।" पति के होठों पर फीकी हँसी आ गयी।
रिक्शेवाला भी अपनी किसी बात को याद कर मुस्कराने लगा।
इधर बुधिया भी पति की बात पर मुस्कराई पर जल्दी ही गंभीर हो गयी। "न जी ये तो हमारा मोह है जो हम जिंदगी से जुड़े बैठे है।"
"मोह ही सही लेकिन हम बूढ़ो का साथ बना रहे तो अच्छा, वर्ना बच्चों द्वारा छोड़े हम बूढ़ो में से एक साथी के चले जाने के बाद तो जिंदगी श्राप ही बन जानी है।" पति भी गंभीर हो गया।.........
करड़...करड़... करता रिक्शा अचानक ही रुक गया।
"क्या हुआ ?" पति-पत्नी ने सम्मलित आवाज में पूछा।
"कुछ नहीं बाऊजी, जरा चैन उतर गयी है।" रिक्शावाला नीचे उतर चैन चढ़ाने में लग गया।
"हां भई! "रिक्शेवाले की ओर देखते हुए पति कहने लगा। "दोनों पहियों में से किसी की भी कड़ी उतर जाए तो रिक्शा बेचारा चलेगा भी कैसे ?"
"हाँ बाऊजी! जिंदगी और रिक्शे में शायद यही फर्क होता है।" कहता हुआ रिक्शे वाला अनायास ही फूट फूट कर रोने लगा।
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(35). आ० बबिता चौबे जी

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"बचाओ , बचाओ ....."

वो दर्द से बिलबिलाती हुई प्रदूषित गन्दगी की दलदल में धँसी हुई पुकार रही थी । उसका पूरा बदन दलदल में डूबा हुआ था , केवल मुंह बाहर था । चेहरे पर गन्दे कीड़े रेंग रहे थे , चाहते हुये भी उन कीड़ो को नही हटा पा रही थी । सांसे जबरन ही मानों चल रही थी । आस - पास की गन्दगी और उसके साथ और कई तरह के कीड़े भी बहकर आ रहे थे। न चाहते हुए भी वह जीवित थी क्योंकि , वो मुक्त होना चाहती थी , पर असहाय होकर छटपटा रही थी । किन्तु कुछ बोलने से डर रही थी क्योकि मुख खोलने से वो कीड़े मुह में जाने लगते थे।
अतीत मे वह बहुत सुन्दर हुआ करती थी ! त्रेता , द्वापर और सतयुग मे एक सौदर्यमयी नवयौवना थी । राज चलाती थी । पर अब अपाहिज होकर , चरित्रहीनता , भ्रष्टाचार , फरेब के हाथो की कठपुतली होकर रह गई थी !
वह पुकार रही थी , "सुनो सुख देव , चन्द्र शेखर , भगत सिंह,बिस्मिल, गर तुम पुनर्जन्म ले सकते , तो लो और बचा लो मुझे । बचाओ इन कीड़ो से । आज बार बार पुकार रही हूँ । बहुत दुखी हूँ ।
आ जाओ मुझे बचाने , कौन हूं मै ? नही पहचाना क्या ?
ओह ! मेरा दुर्भाग्य ! राम ,रहीम, नानक , के इस देश भारत देश की बेईमानी भ्रष्टाचार फरेब की गर्त मे निरंतर सडने को मजबूर आज की मै राजनीति हूँ । इस दलदल से उबरने के लिए मुझे सच्चे साथी की जरूरत है ।
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(36). आ० सीमा जी 
साथी

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ज तान्या की माँ, मै उसकी कक्षा अध्यापिका और प्रधानाचार्य तीनों ऑफिस में बैठे सोच रहे की के.जी.की इस मासूम बच्ची का स्कुल आना कैसे बन्द करे?
ज से छः महीने पहले निशा को पता चला की उसकी बेटी के दिल में छेद है।डॉक्टर ने कहा था -"घबराने की ज़रूरत नही है सुराख़ बहुत छोटा है उम्र के साथ अपने आप भर जायेगा।"
र दिन पहले तान्या के नाक से खून बहने लगा और डॉक्टर ने कहा अब ऑपरेशन करना पड़ेगा।दस दिन बाद उसका ऑपरेशन है।
न्या जो इस सबसे अनजान है।स्कुल की छुट्टी नही कर सकती,अपनी माँ से लड़ती है कहती है-"आप समझते नही हो!मेरी परीक्षा है मै अभी छुट्टी नही लगा सकती।"
ब निशा उस मासूम को क्या कहे?उसके लिए इन दस दिनों तान्या को घर पर रोकना माने उसके दिल को दर्द देना ही होगा।
चानक प्रिंसिपल मैडम बोली-"ऐसा करते है,दो दिन के अंदर इन सब बच्चों की परीक्षा ले लेते है।परिणाम आने पर तो छुट्टी होनी ही है। ऐसा करो सब अभिभावकों को डायरी में कारण के साथ पूरी बात लिख दो बच्चों का रिविज़न हो जायेगा और तान्या आराम से ऑपरेशन करवाने जा पायेगी।"
गले दिन तान्या के सारे नन्हे साथी तैयार थे,अपनी हाँ के साथ।
ज परीक्षा के परिणाम का दिन है।तान्या का नाम बोर्ड पर लिखा है वो कक्षा में पहले नम्बर पर आई है। बच्चे अपने माता-पिता के साथ आये है।सब तान्या और उसकी माँ से मिलना चाहते थे।
न्या ने कहा-"माँ,थोड़ी देर रुको ना!हम झूला झूलकर आते है।कोई कुछ कहता उससे पहले उसके नन्हे साथी बोले-"नही,बाहर गर्मी है हम तो यहीँ बैठकर खेलते है।"
च्चे खेल रहे है और हम दुआ कर रहे है जैसे हमने इस बच्ची का साथ दिया वैसे ही ईश्वर भी...
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(37). आ० डॉ बृजेश कुमार त्रिपाठी जी 
बेरहम साथी


वार्ड के बाहर कॉरिडोर में दर्द से चीखती वृद्धा।
दो दिन पहले उसके अज्ञात परिजन उसे हॉस्पिटल छोड़ गए थे।
फीमर के कम्पाउंड फ्रैक्चर का केस।
चेहरे की शालीनता और विगत समृद्धता उसके दर्द को असीम बना रही थी।दवा को खरीदने में असमर्थ वृद्धा सरकारी दवाओं को अपनी अलमारी में संचय करने वाले जूनियर डॉक्टरों की आँखों में खटक रही थी।
एक सर्द रात मे.......
जिलाधिकारी ने गंगाबैराज के पास दर्द और सर्दी से कांपती उसी वृद्धा को बेहोशी की हालात में पाया।जानकारी करने पर एक रिक्शेवाले ने स्वीकार किया कि मात्र सौ रुपये ले कर वह इसे यहाँ छोड़ गया था।जूनियर डाक्टर तो ऐसा अक्सर करते रहते हैं।
तब से जूनियर डॉक्टर आन्दोलन पर हैं।
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(38). आ० गणेश बागी जी
साथी
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“बाबूजी, कितनी बार कहा कि दरवाजे के सामने खड़ा यह बरगद का पेड़ कटवा दीजिये, पर आप है कि सुनते ही नहीं.”
“नहीं बेटा, यह पेड़ बहुत पुराना है और तुम्हारे दादा जी ने लगाया था, मेरा बचपन इसकी छाँव में बीता है.”
“किन्तु बाबूजी समूचे घर का लुक इस पेड़ के कारण ख़त्म हो जाता है.”
“ऐसा नहीं है बेटा इस पेड़ के कारण ही सामने की सड़क से आने वाली गन्दी हवायें सीधे घर में नहीं आती.”
“बाबूजी, मैं ये सब नहीं जानता, मैंने लकड़हारों को बुलवा लिया है आज ही यह पेड़ कटेगा.”
पेड़ और बाबूजी की सांसे शाम होते होते कट गये. दरवाजे पर पहरेदारी करती खांसती आवाज सदा के लिए खामोश हो गयी थी.
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(39). योगराज प्रभाकर
साथी
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पूरा शहर धू धू कर जल रहा थाI दोनों तरफ के दंगाईयोँ के धार्मिक नारे वातावरण में ज़हर घोल रहे थेI ढूँढ ढूँढ कर एक दुसरे की 
संपत्तियां जलाई जा रही थीं, निर्मम हत्याएँ की जा रही थींI दंगाईयोँ का एक दल बस्ती के बाहर बने एक घर की तरफ बढ़ ही रहा था कि दूसरा टोला भी वहां आ पहुंचाI कोई नहीं जानता था कि घर किसका था, इसलिए दोनों तरफ के दंगाइयों ने उसे घेर लियाI दीवार के ऊपर से झाँक कर देखा तो सभी सकते में आ गए। अंदर एक विचित्र ही नज़ारा था; आँगन में केवल एक युवा दम्पत्ति था, उनमे से एक नमाज़ पढ़ने में व्यस्त था तो दूसरा आरती में। जिसे देखकर अचानक नारों की जगह ख़ामोशी ने ले लीI दोनों दल किंकर्तव्यविमूढ़ एक दूसरे की तरफ देखने लगे, हाथ में पकड़ी मशालों की लौ भी शर्मिंदा हो उठी। उनकी यह हालत देख कर एक वरिष्ठ दंगाई आगे आया और दोनों दलोँ के मुखियों के कंधे पर हाथ रख कर बोला:
"यह हमारी इज्जत का सवाल है, इसलिए इस गंभीर समस्या का समाधान हमें मिलजुल कर ही करना होगा।"
"मगर कैसे?" सैकड़ों प्रश्नचिन्ह दंगाईयों की आँखों में उभर आए। 
"इसका एक ही हल है, एक दल तेल छिड़केगा और दूसरा दल आग लगाएगा।"
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(40). आ० विनय कुमार सिंह जी 
साथी.

" दुर्र, दुर्र, कहाँ चला आया फिर से| ये पिल्ला भी ना, एक दिन दो रोटी क्या खिला दिया, पीछे ही पड़ गया", शर्माजी ने अपनी पुरानी छड़ी से दुत्कारा पिल्लै को और कमरे में घुस गए| गाँव का छोटा सा घर जिसमे कभी वो अपनी पत्नी और बच्चे के साथ रहते थे, लेकिन आज उस कमरे में बच्चे और पत्नी की सिर्फ तस्वीर ही थी| 
" देखो जाना तो मुझे ही है पहले, तुम तो अकेले भी बिता लोगे| आखिर ये गाँव और इतने साथी हैं तुम्हारे यहाँ, मेरा तो लेदेकर एक तुम हो और दूसरा ये दमा जो साथ नहीं छोड़ता", पत्नी की कही बात याद आने लगी उनको| धीरे धीरे सब साथी बिछुड़ने लगे थे, कुछ अपने बच्चों के साथ बाहर चले गए तो कुछ अकेलेपन को नहीं झेल पाये और सदा के लिए चले गए| 
" देखो, किसी जानवर को क्यों नहीं पाल लेते हम, निःस्वार्थ भाव से साथ देते हैं| मेरे मायके में तो दो दो कुत्ते थे जो सालों बाद भी जाने पर इस तरह लिपट जाते थे जैसे हमेशा साथ रहे हों", पत्नी की बात फिर जेहन में घूम रही थी| लेकिन पता नहीं क्यों उनको हमेशा से चिढ थी कुत्तों से| अक्सर दुआर पर कुत्ते कहीं भी मल करके चले जाते थे और उसको साफ़ करते समय वो उनकी सात पुश्तों को कोसते थे| 
" चाहे जो हो जाय, मैं कुत्ता नहीं रखूँगा| गाँव क्या इंसानों से खाली हो जायेगा कि कुत्ते साथी रहेंगे", और वो हमेशा नकार देते थे पत्नी की बातों को| 
कमरे में मन नहीं लगा तो फिर बाहर निकले शर्माजी| उनको आभास हुआ, पिल्ला फिर से पीछे चल रहा था| पिछले एक हफ्ते से, उनके लगातार दुत्कारने के बावजूद, हमेशा उनके आगे पीछे घूम रहा था वो| दुआर पर पड़ी कुर्सी पर बैठ कर वो सोच में डूबे ही थे कि उसी पिल्लै ने उनका पैर चाट लिया| शर्माजी ने चौंक कर देखा, उनको लगा कि पत्नी ने ही उसको भेज दिया है अकेलापन काटने के लिए| उन्होंने प्यार से उसके ऊपर हाथ फेर दिया और अब उनको भी लगने लगा कि उनका एक साथी मिल गया है|
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(41). आ० मुज़फ्फ़र इक़बाल सिद्दीक़ी
बिदाई

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" सहकर्मी कभी भी आपके बहुत अच्छे दोस्त नहीं हो सकते। " ये बात अपनी जगह सही हो सकती है। लेकिन उनसे दोस्ती निभाना भी उतना ही ज़रूरी है ,जितना उनके साथ रहना। ये बात एम के शर्मा को जब पता चली जब उनका बिदाई का समय नज़दीक आने लगा। यकायक उनके स्वभाव में परिवर्तन आने लगा। अपने समकक्ष सहकर्मियों से दोस्ताना बात करते ,और अपने अधीनस्थ से बड़प्पन के साथ हमदर्दी दिखाते। लेकिन अब वक़्त बहुत आगे निकल चुका का था। उनकी ये सारी बातें लोग सहज स्वीकार नहीं कर रहे थे। 
कॉन्फ्रेंस हॉल में एम के शर्मा के बिदाई के सम्मान में आयोजन किया गया था। बारी बारी से सभी वक्ताओं ने उनकी तरक़्क़ी और कर्तव्य निष्ठां की मुक्त कंठ से प्रशंशा की। पूरा हॉल भर गया था। केवल पीछे की सीटें खाली पड़ीं थीं ,जो उन लोगों के लिए रखी गईं थीं जिनके साथ काम करके ,शर्मा जी ने पदोन्नतियाँ पाईं थीं। और फिर मुड़ कर कभी पीछे नहीं देखा था। लेकिन आज वह चाहते थे कि उनके सभी साथीगण इस पार्टी में उपस्थित हों। और इसे गरिमामय बना दें। 
अब तक पार्टी ख़त्म हो चुकी थी। उन्हें ऑफिस से लेने के लिए ,उनके बेटे बग्गी की सवारी और डी जे लेकर आये थे। शाम को भी घर पर एक भव्य पार्टी का आयोजन था। जिसमें उन्होंने अपने चिर परिचित लोगों को आमंत्रित किया था। 
शर्मा जी जैसे ही बग्गी पर बैठे ,डी जे ने भी शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। लेकिन शर्मा जी के मनः पटल पर तो वह खाली कुर्सियां और उन सहकर्मियों के चेहरे याद आ रहे थे। जिनके महनतों ने उनके तरक़्क़ी के रास्ते हमवार किये थे। जिन्हें उन्होंने बड़े चाव से बुलाया था। अब आत्मावलोकन का समय भी गुज़र चुका था। शर्मा जी सोच रहे थे , "मैं अपनी तरक़्क़ीयों के नशे में अपने उन साथियों को कैसे भूल गया ?"
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वाह... इस बार 41 साथी संकलन में...सभी सम्मान्य गुरूजन, वरिष्ठजन व सहभागी रचनाकारों को हृदयतल से बहुत बहुत बधाई प्रदत्त विषय को सक्रिय सहभागिता द्वारा परिभाषित व सिद्ध करने के लिए। लघुकथा गोष्ठी-11 के सफल आयोजन और संकलन प्रस्तुति के लिए व मेरी लघुकथा को संकलन में स्थापित करने के लिए सम्मान्य मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी को हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद।

हार्दिक आभार भाई उस्मानी जी, इस सफलता का श्रेय पूरे ओबीओ परिवार को जाता हैI  

41 रचनाओं का आना और उनपर चर्चाओं का दौर , कार्यशाला की सार्थकता पूर्ण हुई । सुखद है यह सब । संकलन की बधाई सभी मित्रजनों को ।
आद गुरुजन व् एडमिन पैनल ,कृपया इस संकलन में मेरी रचना "रोटी " का परिवर्तित व् संशोधित रूप स्वीकार कर स्थान दीजिये। आभार

रोटी ....
रसोई में खड़ी ,साड़ी के पल्लू से आशिमा अपने आँसू पौंछती हुई , मन ही मन बड़बड़ाती जा रही थी कि अचानक समीर ने हाथों से बेलन लेकर उसे पीछे हटा दिया।
"मेरे हाथ पाँव सलामत हैं ,मैं अपना खाना खुद बना लूँगा।"
"समीर ,हद्द है ।नाराज़ तो मुझे होना चाहिए था...!
"तो और क्या करूँ ?यहाँ कारोबार में मन्दी के चलते इतने तनाव में हूँ और तुम्हें घूमने की पड़ी है।लेकिन तुम औरतों को क्या ? तुम तो हर महीने खर्चे के लिए हाथ फैला दोगी।"गुस्से के दबाव में आटे की लोई बेलन से चिपक गई।
"ये बार बार हाथ फ़ैलाने वाली बात क्यूँ कहते हो ?फिर तुम्हारी परेशानी देखकर ही मैं घर पर ट्यूशन लेने लगी हूँ ताकि चार पैसे आएँ ।तुम ही बताओ और मैं क्या कर सकती हूँ ?" अपने लहज़े में थोडा नरमी लाते हुए समीर के हाथ से बेलन ले रोटी बनाने लगी।
"तुम्हारी ट्यूशन से क्या होगा भला ? यहाँ कारीगरों की पगार भी बाकी है ।कहाँ से लाऊँ पैसे,समझ नहीं आ रहा।"
"सुनो ...यदि मैं ट्यूशन वाले बच्चों से छः महीने की फीस एडवांस में ले लूँ तो काम चल सकता है....।"आशिमा ने सोचते हुए कहा।
"वाह आशू ! मिनटों में परेशानी का हल !" आशिमा की बनी रोटी पर घी लगाते हुए समीर ने कहा।
( मौलिक व् अप्रकाशित)

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित 

शुक्रिया आद सर।आशा करती हूँ आपको रचना का संशोधित स्वरूप अब सही लगा होगा।
सम्मान्य मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी, विनम्र निवेदन है कि संकलन में 17 वें स्थान पर स्थापित मेरी लघुकथा में मेरे मूल भाव को बरकरार रखते हुए सुझावों के अनुसार कुछ परिमार्जन करने की कोशिश की है। अवलोकनार्थ प्रेषित है, यदि यह पिछले प्रयास से बेहतर हो, तो इसे प्रतिस्थापित करने की कृपा करें, अन्यथा वही रहने दीजिएगा।-


"गुटबाज़ी" - (लघुकथा)

देश में गठबंधन सरकार के प्रयोग देखकर समाज में अपनी सत्ता और अधिक सशक्त करने के लिए 'बेईमानी' वाला सफल गुट 'ईमानदारी' के गुट से अपने में विलय करने या अन्दर या बाहर से समर्थन लेने की गुज़ारिश कर रहा था। इसके लिए उनके घटक दल भी आपस में वार्ता क्रम जारी रखे हुए थे। अपने पार्श्वचर घटकों 'सच्चाई' , 'नैतिकता' और 'आदर्श' के साथ 'ईमानदारी' वाला गुट ज़िद पर अड़ा था कि उन्हें ऐसी व्यावहारिकता, आधुनिकता और उपलब्धियां नहीं चाहिए कि उनका अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाये! सो उन्होंने उस गुट में विलय तो क्या समर्थन देने तक से मना कर दिया।

समाज में अपने परचम बुलंद करते साथियों 'झूठ', 'फरेब', 'भ्रष्टाचार' और 'अनैतिकता' के साथ 'बेईमानी' के गुट ने अपने अनुभवों, सफलताओं और सतत आधुनिक विकास के बारे में चर्चा करते हुए 'ईमानदारी' वाले गुट से कहा- "तुम्हारे गुट का अस्तित्व तो वैसे भी ख़तरे में ही है...क़िताबों में ही सिमट कर रह गये हो.... दरअसल समाज को सम्मोहित कर जलवे दिखाने के लिए कभी-कभार हमें भी तुम लोगों की भी ज़रूरत पड़ती है, सो हमसे ही जुड़ जाओ! हमारे साथ रहोगे तो तुम लोग भी फ़ायदे में रहोगे!"

"हरग़िज़ नहीं! आप जैसों से दूरी बनाए रखना ही हमारा उसूल है! हमारी आज भी अहमियत है! हम आज भी प्रासंगिक हैं... देखना, समाज में हमारी सत्ता का भी समय एक दिन आयेगा ही...देर है अँधेर नहीं!"

"आपके 'अच्छे दिन' कभी नहीं आने वाले... न तो हमारी तरह कभी आपको मीडिया कवरेज मिलेगा, न ही कभी आप हमारी तरह अपना उच्च तकनीकी विज्ञापन करवा पाओगे.... पूरे जनमानस पर कैसे छाओगे ?"- 'बेईमानी' के गुट ने 'ईमानदारी' के गुट पर व्यंग्य करते हुए कहा।

जब 'विलय' अथवा 'समर्थन' की बात पर कोई सहमति नहीं बन सकी, तो 'बेईमानी' के सफल गुट ने अपने एक ख़ास मित्र 'उपलब्धि'- गुट से मध्यस्थता करने की ग़ुज़ारिश की। शिखर वार्ताओं के ज़रिये अपने घटकों 'तात्कालिक उपलब्धि' , 'क्षणिक उपलब्धि' व ' 'उच्चवर्गीय उपलब्धि' वाले इस संगठन ने 'ईमानदारी' वाले गुट को अपने अनुभव सुनाते हुए 'मनाने' की भरसक कोशिश की, किन्तु दो टूक जवाब सुनना पड़ा-

"ग़रीबों की उपलब्धियों की परवाह न करने वालों का साथ हम भला क्यों दें!"- 'ईमानदारी' वाले गुट ने कहा- "समाज का निर्धन वर्ग ही तो हमारा सच्चा साथी रहा है!"

[मौलिक व अप्रकाशित]

यथा निवेदित तथा प्रतिस्थापित 

त्वरित प्रतिक्रिया,अनुमोदन व संकलन में प्रतिस्थापन हेतु आदरणीय मंच संचालक महोदय श्री योगराज प्रभाकर जी आपको हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद।

बहुत बहुत बधाई आ योगराज सर एक और बेहद सफल गोष्ठी के लिए| आपकी ऊर्जा का ही परिणाम है कि ये आयोजन लगातार सफलता के नए आयाम स्थापित कर रहा है| अगले अनेकानेक सफल कार्यक्रमों के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ 

हार्दिक आभार भाई विनय कुमार सिंह जीI 

आदरणीय  योगराज प्रभाकर जी , लघुकथा के इस मासिक आयोजन में इस बार पिछले बार से ज्यादा उम्दा और बेहत्तर लघुकथाएं आई है. एक तरह से कहे तो यहाँ लघुकथाओं का स्तर पहले से बेहतर हो रहा है. यह आप के मार्गदर्शन और यहाँ  आयोजन में साहित्यकार साथियों द्वारा बढचढ कर भाग लेने तथा  बेबाक टिप्पणी करने एवं  उचित मार्गदर्शन देने का परिणाम है कि आयोजन उम्दा से उम्दा होता जा रहा है. यह सब आप की मेहनत का प्रतिफल है. जिस की वजह से यह आयोजन बेहद लोकप्रिय हो रहा है. शुक्रिया आप का  और आप के मार्गदर्शन का. आभार सभी साथियों का.

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लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
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"आदरणीय ज़ैफ़ जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
11 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"आदरणीय ज़ेफ जी, प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद।"
11 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"//जिस्म जलने पर राख रह जाती है// शुक्रिया अमित जी, मुझे ये जानकारी नहीं थी। "
11 hours ago
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
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अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"शुक्रिया ज़ैफ़ जी, टिप्पणी में गिरह का शे'र भी डाल देंगे तो उम्मीद करता हूँ कि ग़ज़ल मान्य हो…"
12 hours ago
Zaif replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
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12 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-173
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी, समयाभाव के चलते निदान न कर सकने का खेद है, लेकिन आदरणीय अमित जी ने बेहतर…"
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