सुधीजनो,
दिनांक - 8 जुलाई' 13 को सम्पन्न हुए महा-उत्सव के अंक -33 विषय "प्रकृति और मानव" की समस्त रचनाएँ संकलित कर ली गयी हैं. इस बार महोत्सव में 32 रचनाकारों ने अपनी रचनाओं को विविध प्रकार की छंदबद्ध व छंद मुक्त दोनों ही विधाओं में (यथा दोहा, कुंडलिया, घनाक्षरी, हायकू, मुक्तक, नवगीत, अतुकांत आदि में) प्रस्तुत कर आयोजन को सफल बनाया.
यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिरभी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
डॉ० प्राची सिंह
मंच संचालिका
महा-उत्सव
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1.श्री अरुण कुमार निगम जी
दोहन है अपार
लाये विपदा
मानव करे
कुदरत के साथ
क्यों छेड़छाड़?
मानव करे
जब है खिलवाड़
आपदा आए
पेड़ कटाव
ग्लोबल वार्मिंग है
बढती जाये
ना करो यार
विपदा यूँ तैयार
करले प्यार
रोक दोहन
कर वृक्षारोपण
हरियाली ला
लगालो पेड़
रोको धरा कटाव
करो बचाव
लगाओ पेड़
कुदरत से प्यार
प्रलय टालो
रोको कटाव
प्रकृति का बदला
टल जायेगा
कटाव रुके तो पानी रुके, कुपित नहीं होंगे भगवान
बरखा रानी छम छम बरसे, ख़ुशी मनाएगा इन्सान
रूद्र ,सोन ,बद्री, केदार में , भोले शंकर करें विश्राम
हँसते गाते यात्रा करते, होकर आते चारों धाम
ओजोन की परत बचा लो ,रक्षक छतरी है बदहाल
गलोबल वार्मिंग को हटा दो ,धरती को करके खुशहाल
पेड़ लगालो धरा बचा लो ,देदो कुदरत को संकेत
खिल जायेगी उजड़ी धरती ,लहलहाएंगे तभी खेत
पर दानव भी मन बसत, ले विध्वंश सकार ।
ले विध्वंश सकार, स्वार्थ के वशीभूत हो ।
भू पर हाहाकार, काल का कुटिल दूत हो ।
उगे शीश पर श्रृंग, बढ़ा ले इच्छा-आकृति ।
रुके सृजन-निर्माण, तोड़ दे हरदम नव-कृति ॥
कुदरत रत रहती सतत, सिद्ध नियामक श्रेष्ठ ।
किन्तु नियामत लूटता, प्राणिजगत का ज्येष्ठ।
प्राणिजगत का ज्येष्ठ, निरंकुश ठेठ स्वारथी ।
कर शोषण आखेट, भोगता मार पालथी ।
बेजा इस्तेमाल, माल-संसाधन अखरत ।
देती मचा धमाल, बावली होकर कुदरत ॥
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(1)
देखा मानव भूल ने, रचा पुनः इतिहास,
शिव शंकर के द्वार फिर, जन्मे कालीदास,
जन्मे कालीदास, काटते हैं अब गिरि को,
देख न पाए मौत, नीर से थी गिरि घिरि को,
कुदरत को दें दोष, लांघकर खुद ही रेखा,
बनी मानवी भूल, हादसा सबने देखा ||
(2) वीर/आल्हा छंद
बहती नदिया बाग़ बगीचे, कुदरत की ये ही पहचान |
धरती को तो सुन्दर सुन्दर, तूने बना दिया भगवान |
लोभी मानव घात करे पर, जाने कैसा है नादान |
नदियाँ रोकी तरुवर काटे, संकट में हैं सबके प्राण |
अकूत सम्पदा प्रकृति में है, आये हरदम सबके काम |
गिरिवर को जो किया खोखला, पाया है उसका परिणाम |
कुदरत ने जो नेमत बख्शी, कोई चुका सके क्या दाम |
प्रदूषण स्तर सर के ऊपर, भुगत रहे हैं सब अंजाम |
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5.डॉ ० प्राची सिंह जी
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
धर्म-ग्रन्थ में पूजित अवयव
सदा प्रकृति के तूने रौंदे,
गर्भ धरा का किया खोखला
खड़े स्वार्थ के किये घरौंदे,
कण-कण सौदा कर प्रकृति का, मूर्ख! समझता खुद को ज्ञानी...
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
तू एक अंश मात्र प्रकृति का
अहंकारवश क्या करता है ?
लय विस्मृत कर तारतम्य की
पथ में स्वतः शूल गढ़ता है,
जल-थल-नभ का तोड़ संतुलन, फिरता ले आँखें बेपानी...
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
उद्योगों नें धुएँ उगल कर
प्राणामृत में नित विष घोला,
परिणति यह उप-भोग वाद की--
संसाधन हर छान टटोला,
अंतहीन दोहन है, प्रकृति, मूक सहे कब तक मनमानी...
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
रक्षण छतरी ओज़ोन परत,
तार - तार तूने कर डाली,
धरती का सीना कर छलनी
वृक्ष उजाड़े, बन कर माली,
प्रकृति माफ करे फिर कैसे, समझी बूझी ये नादानी...
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
हर अवयव से छेड़ छाड़ की
तूने मौसम का रुख मोड़ा,
जलवायु बदल जो बदली ऋतुएँ
साथ प्रकृति तक ने छोड़ा,
आज तभी धर रूप रौद्रतम लीले जीवन-रंग निशानी
रे मानव! तू क्यों लिख बैठा सर्वनाश की अमिट कहानी ?
सावन का मस्त महीना ,घिर आये हैं बदरा
रिमझिम फ़ुहार मनभावन ,मनमयूर है डोला
कोयल ने तान सुनाई ,पपीहे ने पिव पिव गाई
सात रंग के इन्द्रधनुष ने ,नभ में घटा फैलाई
प्रकृति के इन मनहर दृश्यों ने ,मानव मन है लुभाया
पर उसने इस वरदान का ,क्या है मोल चुकाया
कंद-मूल ,फ़ल-फूल और भोजन ,मानव कहाँ से लाता
शुद्ध वातावरण और निरोगी काया ,बिन प्रकृति क्या पाता
दूषित कर इस प्रकृति को ,मानव ने तांडव मचाया
कैसी दोस्ती की प्रकृति से ,कैसा ये फ़र्ज़ निभाया
धूल-धुआं और पेड़ कटाई ,क्यूँ करते हे मानव
प्रकृति का संतुलन बिगाड़ के ,क्यूँ बनते हो दानव
हरे भरे क्यूँ पेड़ काट कर ,पर्यावरण वीरान बनाते
कल कल बहती नदियों को ,क्यूँ प्रदूषित कर जाते
मानव जीवन चक्र तो ,प्रकृति से ही प्रवाहित होता
वो तो है दाता औ रक्षक ,मानव क्यूँ भक्षक बन जाता
मानव जीवन जहाँ से शुरू होता ,वहीँ उसका अंत हो जाता
मिट्टी का ये मानव देखो ,मिट्टी में ही मिल जाता
पोलीथीन का उपयोग करो न , न नदी तालाब तुम पाटो
खनिज द्रव्यों का कर संरक्षण , जंगलों को तुम न काटो
प्रकृति के नियमों से ,जो तुम करोगे छेड़खानी
वो दिन अब दूर नहीं ,जब पड़ेगी मुँह की खानी
पुरखों द्वारा प्रदत धरोहर ,जो संरक्षित न कर पाओगे
अपनी भावी पीढ़ी को ,क्या वातावरण तुम दे जाओगे
(2)
जब भी प्रकृति ऋतु बदलती ,लगती बड़ी सुहानी
प्रकृति से मानव रिश्तों की ,सुनलो सभी कहानी
शरद ऋतु की धूप सुनहरी , मधुरस घोले आती
गर्मी की तपती दोपहरी , अंगारे बरसाती
वर्षा की फ़ुहार जगाती , मन में जीवन ज्योति
हरियाली में बिखर रहे हों , जैसे नभ से मोती
बादल ,बिजली ,सूरज किरणें ,सागर ,सरिता ,झरने
जब तक मर्यादा में रहते , लगते बड़े सलोने
मानव को गोद में ले प्रकृति , माँ सा लाड जताती
धन धान्य से समृद्ध करती , स्नेह सुधा बरसाती
मानव करता खिलवाड़ प्रकृति से , नई तकरीबें लाकर
विजय गीत वो गातें हैं , वैज्ञानिक प्रगति बता कर
वातावरण प्रदूषित करते , नष्ट हो रही ओज़ोन लेयर
बाँध रहे वो नदियों को , और काट रहे हैं जंगल
नित नूतन आविष्कार , नित नूतन अनुसंधान
नए नए प्रयोगों से करते , प्रकृति का अपमान
प्रकृति का प्रकोप भयंकर , उत्तराखण्ड दर्शाता
अतिवृष्टि ,अनावृष्टि ,भूस्खलन , सब तहस नहस कर जाता
नदियों की सुंदर उर्मियाँ भी , दानवी बन जाती
जल प्रलय लाकर के वो कहर बरपा जाती
प्रकृति सारी सुख सुविधाएँ देकर , करती हमें माँ सा प्यार
नहीं उचित क्या मानव भी करे उससे , पुत्रवत् व्यवहार
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7.सुश्री राजेश कुमारी जी
(1)
दोहे (हास्य व्यंग )
सच्चाई पर चढ़ गई ,झूठी कपटी भीड़
झीलें कौवों से अटी ,सत हंसों से नीड़||
सागर नदियों में मिले,घन बरसायें आग |
टर्र टर्र मानव करे ,मेढ़क खेलें फाग||
जला रहे पटबीजने ,ऊँचे भव्य मकान |
खोद रही अब चींटियाँ ,कोयले की खदान||
अब छिपकलियों से सजे ,लाल-लाल कालीन|
राज यहाँ गिरगिट करें ,लगे बहुत शालीन||
मधुशाला में बैठ के ,मद्य पी रही मीन|
नागिन की फुफकार पे ,नाच रही है बीन ||
दादी चढ़ी पहाड़ पर ,लेकर कुन्टल भार|
खड़ा युवक ये सोचता ,मुश्किल चढ़ना यार||
जहां तहां करके खनन ,भू पट दिए उघाड़ |
अब अंतर में खींचती , रो ले मार दहाड़||
कब तक मानव स्वार्थ का ,सहती रहती वार|
झेल सके तो झेल अब ,प्राकर्तिक तलवार ||
हे दम्भी मानव तुझे ,कब होगा आभास |
नहीं कभी तेरी प्रकृति ,तू है उसका दास||
(2)एक अतुकांत रचना
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8.सुश्री कुंती मुखर्जी जी
प्रकृति! तुम ही आनंद, तुम ही चिरंतन.
जड़ चेतन पाते तुमसे रूप,
तुम ही से अरूप,
तुम ही सब कारणों का कारण
मोह माया का चक्र परिवर्तन.
हे सुभगे!
तुम ही हो सृष्टि प्रक्रमण.
मानव तुम्हारा ही अंश सम्भूत
तुम्हारे ही गुणों का है धारक.
पाता तुमसे सौंदर्य अपार,
रहता वह प्रकृतिस्थ जब तक.
जब मानव का लोभ प्रबल
हुआ नियमों का उल्लंघन
तब-तब तुमने किया आघात
उसके वर्चस्व पर आक्रमण.
मानव भयभीत चकित होता,
शिक्षा देकर तुम होते शांत,
तुमसे है जीवन -
तुममें ही विनाश क्रम
तुम ही सत्य हो, तुम ही सनातन.
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9. श्री लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी
(1)
ईश्वर की ही देन है, अनुपम यह संसार,
अभिवादन प्रभु का करे,जिनसे यह उपहार |
प्रकृति बहुत उदार मना,वसुधा देती धान,
वसुधा ही पर सह रही, मानव का अपमान |
प्रकृति मनुज को गोद में, देती रही प्रसाद,
बदले में हम दे रहे, दिन प्रतिदिन अवसाद |
खोद खोद हम दे रहे,वसुधा को ही घाव,
फिर भी वसुधा स्नेह से, रखती है सद्भाव |
हम तो पहरेदार थे, उजड़ न पावे छाँव,
सोये फिर क्यों बेखबर,जाकर अपने गाँव |
प्रकृति मनुज से चाहती, केवल सद्व्यवहार ,
तभी मनुज को दे सके, हरा भरा संसार |
(2)कुंडलिया छंद
पनघट खाली हो रहे, रहा नही अब नीर,
इधर बाढ़ से दूर तक,दिखे न नदियाँ तीर |
दिखे न नदियाँ तीर,जलमग्न है थल सारा
गिरी मनुज पर गाज,प्रकृति से मानव हारा
उत्तरकाशी गाँव, बन गए जैसे मरघट
बचा न कोई प्राण, रह गए सुने पनघट |
नदिया सब बेहाल है, नहीं मनुज का ध्यान,
वृक्ष सभी अब कट गए, नहीं रहे खलिहान |
नहीं रहे खलिहान, रहे किसान अब भूखा
प्रकृति का नहीं ध्यान,गाँव में पढता सूखा
समझे न संकेत, मनुष्य गया क्यों सठिया,
रोजी रोटी भूख, सभी दे सकती नदिया |
(3)मुक्तक
तोड़ी है विश्वास की, देख मनुज ने डोर
खुद चोरी में लिप्त हो, कहे अन्य को चोर |
प्रकृति दे भरपूर हमें,करने को उपभोग
खोद खोद मनुज करे, वसुधा को कमजोर |
बुद्ध गया में बम फटे, किसको देवे दोष
मनुज देखता ही रहा , किया बैठ संतोष |
धीरे धीरे उठ रहा, खुद पर से विश्वास
नियति सदा भरती रहे,समय समय पर जोश
क्रूर नियति करती रहे,अपना कुटिल प्रहार
प्रकृति केदारधाम में, दिखा चुकी व्यवहार
पर्वत करके खोखले, करे नियति से आस
प्रभु की माला पहन कर, करे छद्म प्रहार |
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10. सुश्री आरती शर्मा जी
(1)
मानव प्रक्रति की गोद में
खेले खेल अनेक
कभी बिगाड़े कभी सवारें
प्रक्रति तेरे रूप अनेक
अपनी पर आ जाये तो
करे वार पर वार
बहा ले जाए तीर्थ भी
क्या बद्री क्या केदार
खोल दे गर दिल का खजाना
तो कर दे मालामाल
अंकुर फूटे बंज़र से
लहराएँ खेत खलिहान
माँ जैसी है सहनशीलता
बाप सा लाड-दुलार
भाई की तरह रक्षा करे
बहन की तरह प्यार
न छेड़ो व्यर्थ इसे तुम
चलने दो अपनी चाल
समय गति धीमी सही
प्रक्रति बहुत बलवान
(2)
पक्षी करते कलरव जहाँ पर
नदियाँ बहती कल- कल
मधुर संगीत झरने सुनाते
बहती पवन अनवरत
धरती देती धन-धान्य
ज़ल देता है जीवन
अग्नि देती ताप तन को
पवन देती है श्वसन
प्रकृति की रचना में
मत कर तू अवरोध
नहीं बाद पछताना है
जब प्राण जायेंगे छुट
पांच तत्वों का बना पुतला
क्या गरीब क्या अमीर
मिटटी में मिल जायेगा
पांचो तत्व विलीन...
(3)
धरती ढो रही बोझ पाप का
अम्बर कैसे सींचे नीर
मेघ रो रहे बादल गरज रहे
देख सर्वनाश मानव का
मानव करता अपने मन की
धरती का दिया सीना चीर
पवन में दुर्गन्ध मिलाई
जलधारा में भी विष
बर्फ पिघल गई
देख ताप पाप का
वृक्ष बहाये नीर
प्रकृति ही मांगे स्वरक्षण
मानव दे दो थोड़ी भीख
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11.सुश्री गीतिका वेदिका जी
(1)
ओ गर्भस्थ प्रिये शिशु मेरे
तेरे पिता संग स्वप्न सजाऊँ
सुत! इक मधुरम कल देखूँ!
अथवा यह भीषण मंजर उफ़
कम होते जंगल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
देखी नदियाँ प्यारी प्यारी
थार हुयी जातीं है सारी
विकट मनुज अब हुआ शिकारी
जीवन निधि की मारा मारी
कैसे तुझको सच बतलाउँ
सर्व नाश के पल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
मन की करता हर कीमत पर
वाह रे तू मानव मनमौजी
अपने सुख हित ले आता है
नित्य नई इक टेक्नॉलोजी
धुँआ उगलती चिमनी, उफ्फो!
जहरीले बादल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
नदियाँ रोकी बांध बनाते
क्या विकास के ये पैमाने
फिर क्यों हाहाकार मचाते
जब कुदरत देती है ताने
मनुज जाति पे संकट लाती
भू कम्पित हल चल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
माँ के पोषण का विकल्प है
दूध बनाने वाले चूरण
लाज दूध की कौन बचाये
हर बच्चा माँ-ऋण से उऋण
पैसो में मिलती कोखो पर
भाड़े के ही फल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
धुला दूध का कौन यहाँ है
हम क्या, पिछले भी रजवाड़े
कुदरत के हित किया न कुछ भी
लेकिन बनते काज बिगाड़े
सुरा पात्र के बने अनोखे
कलुषित शीश महल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
नहीं रही अब असली नस्लें
दवा युक्त आईं है फसलें
अजब दवा के गजब नमूने
रात चौगुने तो दिन दूने
कुदरत का धन धान्य लुप्त
अब नकली ही चावल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
क्या तेरे हित शेष धरा पर
हे! गर्भस्थ! सच सुनो, मेरे
हुआ प्रदूषित वायुमंडल
औ विषाक्त ये साँझ सबेरे
हुयी राम की गंगा मैली
किसी विधि पावन जल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
जो करते उपभोग हम सभी
कुदरत का कच्चा पदार्थ है
नत हो कब लौटाया हमने
किया सिद्ध ही मात्र स्वार्थ है
तो फिर प्रकृति न्याय करेगी
चहुँ दिश जल ही जल देखूँ!
कैसे मधुरम कल देखूँ!
(2)
हे! प्रकृति, हम बने सहृदय
दे सवाँर,
वह ज्ञान हमें दे!
सृजना और प्रलय की देवी
निज ममता का दान हमें दे!
क्यों यह प्रलय रागिनी आई
क्यों धरती पर विपदा लायी
मृत देहें, करुणा, पीड़ा हा!
कुछ तो बोल, निदान हमे दे!
दे सवाँर, वह ज्ञान हमें दे!
कहलाये जो अटल, हिल गये
सुन्दरता के चिन्ह धुल गये
जलप्लावन ले गया बहा कर
कौन दिशा, संज्ञान हमें दे!
दे सवाँर, वह ज्ञान हमें दे!
,
हम ही तेरे दोषी मात!
घाती तेरे यह भी ज्ञात
भुगत रहे हम, क्षमा मागंते,
दया निधे! अनुदान हमें दे
दे सवाँर, वह ज्ञान हमें दे!
पुनः पनप कर घात करेंगें
प्रगति सर्वोपरी मानेगें,
अच्छा हो यदि चेत जाएँ हम,
अब सच की पहचान हमें दे!
दे सवाँर, वह ज्ञान हमें दे!
हे प्रकृति, हम बने सहृदय
मानवता का गान हमे दे!
दे सवाँर, वह ज्ञान हमें दे!
___________________________________________________________
12.श्री राज कुमार जिंदल जी
गंगा की दृग डोर से, बॅधे हरित-गिरि कोर।
शिव जी सूखे भाव से, ताके नभ की ओर।।
ताके नभ की ओर, शिखा पर चांद सॅवारें।
सिर दर्दी का जोर, पीर की गंग उतारें।।
भूत-प्रेत-बेताल, डाकिनी तांडव नंगा ।।
*मानव - शिव बेहाल, रूठ गई अचल गंगा।।
(2)कुण्डलिया
मानव-प्रकृति पूरक हैं, रवि-रश्मि संग जान।
प्रकृति सहज नम्र रूप है, मनु मन कटु-पाषान।।
मनु मन कटु-पाषान, स्वयं को ईश समझता।
कई वर्ष के कार्य, यहॅा पल में कर हॅसता।।
प्रक़ृति मन्द पर सौम्य, जन्में जीव-जड़-माधव।
स्वार्थी - शोषण कौम, बड़ा उत्पाती मानव।।
(3)दोहे
हरे-भरे मन मोहना, तीर्थ केदार नाथ।
भक्त दर्शन को उमड़े, गंगा भई कुपाथ।।1
बड़ी भयावह रात थी, पर्वत पानीदार।
सुबह सबेरे जल प्रलय, डूब गए केदार।।2
हाहाकार खूब मची, शिव जी के दरबार।
दर-दर भक्त भटक रहे, भूख-प्यास की मार।।3
सोए भक्त डूब मरे, दफन हुए तत्काल।
जीवित जन रोते रहे, विकल भय महाकाल।।4
जीवित लाश ढोय रहे, आश न छोड़े साथ।
मुर्दा दफन कफन बिना, मिला न कंधा-पाथ।5
नदिया या सैलाब था, सागर गय घबराय।
हरहर-गिरि-जन-कार ठगे, डगमग कर बह जाय।।6
बेटा बाप को खोज रहा, बाप पुत्र को हाय!
बिटिया आने हाथ गही, तके राह पिउ-भाय।।7
सुखद केदार हाट में, चन्दन-केसर-फूल।
मोल-भाव आकाश में, ढूंढ़े मिले न फूल।।8
दुःख के मेघ फट गए, जटा गए बिखराय।
रोती गंगा बह चली, संत जना बिलखाय।।9
धर्म-मोक्ष की बात थी, मन ने किया विचार।
लोभ-मोह-तप छोड़ कर, रमे शरण केदार।।10
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प्रिय विन्ध्येश्वरी जी
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