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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-50 में शामिल सभी लघुकथाएँ

(1) . महेंद्र कुमार जी
ट्रॉली की समस्या
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सालों पहले पूछा गया सवाल आज सच बनकर उसकी ज़िन्दगी के सामने खड़ा था। “रेलवे ट्रैक पर एक अनियन्त्रित ट्रॉली तेज़ गति से आ रही है। जिस ट्रैक पर ट्रॉली आ रही है उसपर पाँच व्यक्ति इस प्रकार बंधे हैं कि हिल भी नहीं सकते। आप वहीं लीवर के पास खड़े हैं। अगर आप लीवर खींच देंगे तो ट्रॉली दूसरे ट्रैक पर चली जाएगी। पर समस्या यह है कि उस दूसरे ट्रैक पर भी एक व्यक्ति बँधा है। आप क्या करेंगे? बिना कुछ किए पाँच लोगों को मर जाने देंगे या लीवर खींच कर एक की जगह पाँच को बचाएँगे?” सवाल ख़त्म होते ही सबसे पहले उसने उत्तर दिया, “वैरी सिम्पल प्रोफेसर! मैं एक की जगह पाँच को बचाऊँगा।” आज वही छात्र पटरियों के बीच लीवर के पास खड़ा था और ट्रॉली सचमुच उसकी तरफ़ आ रही थी। उसे जल्द ही कोई फ़ैसला लेना था। 

एक साँस में शराब की बची हुई बोतल ख़त्म करने के बाद उसने उस पटरी की तरफ़ देखा जहाँ पाँच लोग बंधे थे। उन्हें देखते ही वो चौंक गया। उनमें से एक उसकी प्रेमिका थी। उसने फिर से वही दोहराया, “मुझ शादीशुदा औरत से प्यार करके तुम्हें क्या मिलेगा? किसी अच्छी लड़की को ढूँढो और उससे शादी कर लो। दो लोगों के मिलने से अगर सौ लोगों को तकलीफ़ पहुँचे तो ऐसे मिलने से न मिलना बेहतर।” और उसने फिर से वही सोचा, ‘बलि हमेशा प्यार करने वाले की ही क्यों ली जाती है?’ 

उसने दूसरी वाली पटरी की तरफ़ देखा। वहाँ पर उसकी माँ बँधी थी। उसे यक़ीन नहीं हुआ। ‘ये कैसे हो सकता है? माँ तो मर चुकी है।’ पर उसका चौंकना अभी और बाक़ी था। माँ के पास ही उसके पिता जी बैठे थे जो माँ की रस्सियाँ खोलने का अथक प्रयास कर रहे थे। ‘पर पिताजी ने तो ख़ुदकुशी कर ली थी?’ 

उसका सर चकरा गया। उसने फिर से दूसरी वाली पटरी की तरफ़ देखा। वहाँ उसका दोस्त खड़ा था। वो हमेशा की तरह चिल्लाया, “तेरी माँ तेरा हाल देखकर सदमे से मर गई और तेरे पिता ने इस ग़म से फाँसी लगा ली कि तू एक शादीशुदा औरत से प्यार करता है। पर उसने क्या किया? एक बार तेरा हाल तक न पूछा? उसके घरवालों को तुम दोनों के बारे में पता क्या चल गया उसने डर के मारे तुझसे रिश्ता ही ख़त्म कर लिया?” उसने दोनों हाथ अपने कानों पर रख लिए पर फिर भी उसकी आवाज़ आती रही। “तू बेवक़ूफ़ है और वो ख़ुदगर्ज़। उसे मालूम था कि तुझ फटेहाल के साथ उसे बदनामी के सिवा कुछ नहीं मिलेगा। इसीलिए उसने अपने पति और बच्चों को चुना, तुझे नहीं। अभी तो तू सिर्फ़ पागल हुआ है अगर तू मर भी जाए तो उसे कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा।” 

ट्रॉली बिल्कुल पास आ चुकी थी और समय बेहद कम था। उसने अपना हाथ लीवर पर रख दिया। इससे पहले कि वो लीवर खींचता उसने आख़िरी बार माँ की तरफ़ देखा। इस बार उधर सिर्फ़ उसकी माँ ही नहीं बल्कि कुछ और लोग भी बंधे थे जिनकी शक्ल हू-ब-हू उसके जैसी थी। उसने दूसरी पटरी की तरफ़ देखा। उधर अब पाँच नहीं बल्कि पूरा ज़माना बँधा था। उसमें हर वो शख़्स शामिल था जिसके कारण वो आज अकेला था चाहे वो उसकी प्रेमिका के घरवाले हों या उसके यार-रिश्तेदार। 

समय लगभग ख़त्म हो चुका था। उसने अपना हाथ लीवर से हटा लिया और ट्रॉली उस तरफ़ बढ़ गई जिधर पाँच लोग बंधे थे। 
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(2) . भूपिंदर कौर जी
(i) स्मृति
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कोयल की कूक में उसे मन में उठती हूक भी साफ़ सुनाई दे रही थी। आज वृद्धाश्रम में उसे पूरा साल होने को आया है। यदा-कदा उसे देखने उसके बहू बेटा आ जाता हैं और दिखावटी प्रेम की रसमी फुहार से तनिक मन को शांति देते हुए कहते हैं कि माँ बस कुछ और देर और घर में थोड़ा सा काम चल रहा है हो जाने दो फिर हम पहले जैसे साथ ही रहेंगे। अरे हाँ याद आया अब तो इस साल घर में ख़ूब आम लगे होंगे सुना है इस साल फल बहुत आया है। देखो शायद फल देखकर ही उन्हें मेरी घर वापसी की इच्छा जाग जाए। अभी वह सोच रही थी कि उसके कानों में आवाज़ पड़ी। अम्माँ चलो अब घर हमारे साथ आम का पेड़ भी तुम्हारे स्पर्श व प्यार का इंतज़ार कर रहा है। घर लौटाने के लिए पूरा परिवार ही उसे मनुहार कर रहा था और वह सुखद एहसास में खो........। 
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(ii). इन्सानियत

एक घंटा पहले सोनू का एक्सीडेंट बीच सड़क में ट्राली से टकरा के हुआ। कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया। तड़पता हुआ आखरी साँस गिन रहा था। वहीं दूसरी तरफ़ सुअर के बच्चे को अकेला जानकर कर कुत्तों ने घेर लिया था। माँ उसकी थोड़ी दूर थी पर उसकी आवाज़ और चीख़-पुकार सुनकर वो एकदम दौड़ी आई और अपने बच्चे को बचाने की नाकाम कोशिश करने लगी जिसे देख और पास ही चर रहीं गाय और भैंस भी बच्चे को बचाने के लिए सब एकजुट हो दौड़ पड़े और उन्होंने हिम्मत करके कुत्तों को बहुत दूर भगा दिया था। अब बच्चा अपनी माँ के पास सुरक्षित हो सुख की साँस ले रहा था। 
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(3) . अर्चना त्रिपाठी जी
(i) दोगला
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“क्यों? मज़ा नहीं आया? लगता हैं नीरस हो गया हैं मुझसे तुम्हारा मन” प्रतिदिन के निलय के राग को पुनः सुन विनीता के तनबदन में आग लग गई विक्षिप्त सी बड़बड़ाने लगी:
“ना जाने तुमने भी क्या सोच रखा था? ब्याह किया तो सारी दुनिया ने तुम्हें सिर पर बैठा लिया। आवश्यक ही नहीं आरामतलबी के सामान से घर सुसज्जित हो गया। और पढ़ीलिखी मैं, बनकर रह गई माटी की गुड़िया। धीरे-धीरे तुम्हारे प्रेम स्नेह के शब्द मुझे गाली लगने लगे क्योकि तुम भी उँगली उठाते थे मगर चाशनी में डुबो के!” आज उसने फ़ैसला कर लिया दो-टूक बात करने का
“निलय, जो तुम हमेशा हमारे अंतरंग क्षण को उस रात के साथ तोलते हो मुझसे बर्दाश्त नहीं होता। मुझे लगता हैं तुम गाली दे रहे हो।” 
“जो मुझे सच लगता हैं, वही कहता हूँ।” 
“निलय्य्य!! क्या बक रहे हो? वो मेरी ज़िंदगी की स्याह रात थी जिसे अनदेखा कर कर ही तुमने मुझसे ब्याह किया था।” 
“नहीं कर सकता अनदेखा, उस समय मैं भी नारी मुक्ति के झंडे तले नाम कमाना चाहता था जिसका मौक़ा मुझे मिल गया था।” 
“ओह!! और नहीं बर्दाश्त कर सकती तुम जैसे दोगले को। उन पांचों ने मेरा चिरहरण एक बार किया लेकिन तुम हर पल कर रहे हो।” 
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(iii). नया पैतरा

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बेटी श्रेया को सरप्राइज़ देने पहुँची रेवती को बेडरूम में युवक और उसकी अस्तव्यस्तता सारी कहानी बयान कर गया था। 
“माँ, आप शाश्वत को लेकर परेशान हो?” बूत बनी रेवती से श्रेया ने सवाल कर ही दिया। 
“सुनिए, मैं और शाश्वत लिव इन रिलेशनशिप में हैं। यही हमारी वक्ति ज़रूरत भी हैं।” 
“वक्ति ज़रूरत? ये सब कुछ नहीं हैं बल्कि स्वयं की ग़लती पर पर्दा डालने के शब्द हैं। बेहतर हैं कि तुम दोनों शादी कर लो।” 
“नहीं, माँ हम किसी भी बंधन में नहीं बंधना चाहते। फिर ऐसे रहने में कोई परेशानी भी नहीं हैं।” 
“कैसे समझाऊं तुझे!” बड़बड़ाती रेवती अपने में ही खोती चली गई। अलग नहीं थे उसके विचार श्रेया से और उस समय नारी मुक्ति का झंडा भी बड़ी तेज़ी से फरफरा रहा था। सबकी राय और भय को परे कर वह भी चल पड़ी नारी मुक्ति की राह पर। तीसरी बार गर्भपात करने का सुझाव वह बर्दाश्त नहीं कर पाई और परिणामस्वरूप वे नदी के दो किनारे हो गए थे। 
“माँ, फिर कहाँ गुम हो गई आप?” 
बेटी की आवाज़ सुन प्रत्यक्ष में रेवती बेटी को समझाने का प्रयास करने लगी, “लिव इन वैगरह कुछ नहीं हैं, यह स्त्री को छलने के लिए पुरुष का नया पैतरा हैं।” 
“ऐसा नहीं हैं माँ, यह आपका मुझे लेकर अत्यधिक प्रेम और भय हैं।” 
“अगर ऐसा नहीं हैं, तब ना ही कोई श्रेया पितृविहीन होती और ना ही कोई स्त्री रखैल।”

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(4) . मोहन बेगोवाल जी
(i) कल आज नहीं
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जब भी घर में मैं अपने बाप के बारे में बात करता, तो इक अजीब-सा माहौल बन जाता कई बार तो बच्चे मेरी बात की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देते, तब मुझे लगता, मैंने कोई अनहोनी बात कह दी हो, ऐसा होने बाद मैं अक्सर ही उदास हो जाता हूँ और मेरी ये उदासी फिर कई दिन तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती। 
आज तो हद हो गई, छोटे बेटे का ग़ुस्सा सातवें असमान पर था और उसकी ज़ुबान आग उगलने लगी थी, मेरी ये बात सुन कि “आज कल के बच्चे तो...?।” 
उनकी कही बात जगह मैंने अपने बाप की बात कहने की कोशिश की थी। 
“बस अपने बाप के बारे ही तो कहा था, उस ने अनपढ होते हुए भी हम सभी भाई बहनों को पढ़ाने की कोशिश की थी। 
हमारे लिए रहने को घर बनाकर दिया, अब समाज में जो हमें रुतबा है उन्ही की बदौलत है और इनका भी जो उसका नाम सुनना भी पसन्द नहीं करते। 
पर पता नहीं, क्यूँ मेरे बाप के बारे सुनना क्यों नहीं चाहते, क्याँ ऐसे से उनके मन में हींन भावना पैदा होती है। 
“क्या मेरे बाप की मेहनत और जैसे उन्होंने ज़िन्दगी को गुज़रा क्या मुझे बात नहीं करनी चाहिए?” 
क्याँ उन राहों की बात करना पाप है, जिन पर चल हम इस महल्ले के आलीशान घर में रह रहें हैं और बेटों को अच्छे कालजों में पढ़ाई कराई थी। 
क्या बुज़ुर्गों का इतिहास उनके जाने के साथ ही दफ़न कर देना चाहिए.। 
पर जब उस दिन छोटे ने कहा था “अगर पुरानी बातें दफ़न करंगे तो तभी नया ख़याल दिमाग़ आएगा।” 
“तभी तो नई बातें आएँगी”, यही बात बेटे ने इक बार फिर कही। “
“अगर नई बातें होगी तो तभी नई तब्दीली आएगी।” 
“आज कल नहीं और कल होने वाला आज नहीं बन सकता।” मगर ...
आज मुझे भी ये महसूस हो रहा था कि ऐसा तभी होता है, “जब मैं कहता हूँ कि मेरे बाप के समय ऐसा होता था, ऐसा तो कभी नहीं हुआ करता था, तो आज ख़ुद ही मुझ को जवाब मिल गया था। अब समय वह नहीं रहा तो समय तब्दीली का दूसरा नाम है, अगर आज उस तरह का काम तुम करके दिखाएँ जब नहीं हीं सकता। 
“पर सवाल तो ये भी है, बहुत कुछ तो वैसा ही चल रहा है, जैसा सदियों से चलता रहा है, तो क्या ऐसा भी पुराना होना चाहिए जो नए से टकराने से हमेंशा ही डरता रहा है, तभी तो बीते के साथ प्यार पालता है।” और मैं बेटे के चेहरे से अपने सवाल का जवाब ढूंढ़ने लगा। 
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(ii).जख़्मी सपने
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आज कल बाहर के मुल्क जाने के रुझान ने हमारे शहर भी लपेटे में ले लिया है। 
यही सुनने को मिल रहा है, कोई यहाँ रह कर, करे भी तो क्या पढ़ने के बाद भी ढंग की नौकरी न ही तनखाह मिलती है। 
फलाईट पकड़ने को हर कोई तैयार खड़ा हैं और इसके लिए हर तरह की जायज़-नजायज़ कोशिश हो रही है। 
बच्चे तो क्या आज कल माँ-बाप भी यही चाहते हैं बच्चे किसी तरह बाहर के मुल्क सेट हो जाएँ। ख़ासकर मध्य वर्गीय परिवार तो यही निशाना पाल रखा है। 
सुनीता को भी घर में अक्सर ऐसा ही सुनने को मिल रहा था, यहाँ तो कुछ नहीं? सुनीता पढ़ने में होशियार थी, और दोस्तों के कहने पर उस ने भी आइलेट्स के बैंड प्राप्त कर रखे थे...। 
मगर पढ़ने जाने के लिए तो पैसे भी चाहिए और वो भी डालरों में, जो उसके माँ-बाप के पास नहीं था, मगर उसके माँ-बाप भी चाहते कि सुनीता किसी तरह़़? 
जब यहाँ का पैसा डालर में तब्दील होता है, रुपये की क़ीमत डालर के मुकाबले तो कुछ नहीं रह जाती। 
रौशन ने इक दिन सुनीता के बाप बख़्शीश से कहा, “देख तेरी लड़की बहुत होशियार और इस ने आइलेट्स भी किया है, हम आपकी लड़की के लिए वीजा, पढ़ाई के लिए फीस के लिए पैसा लगाने को तैयार हैं। आप अपनी लड़की का रिश्ता मेरे बेटे से कर दो” 
बख़्शीश ने इक दम कहा, “पर ये कैसे हो सकता है?” आप अपनी लड़की को बाहर भेजना चाहते हैं, मगर इस लिए पैसा तो चाहिए। 
बख़्शीश ने घर आकर बात की, “ऐसा ही तो होता है, आजकल।” 
घर वाली ने कहा, “कोई बात नहीं, सुनीता ने विवाह तो उसे बाहर जाने के लिए करना है.” 
“ये तो कागज़ी विवाह होगा, वहाँ जा कर ये कोई अच्छा-सा लड़का देख विवाह कर लेगी। यही तो बस करना है ... उसको और सुनीता को बाहर भेजने के लिए। 
“ऐसा उसको अपनी लड़की के लिए करना होगा”, बख़्शीश हैरान होने लगा। 
कुछ दिनों में ही विवाह हो गया, कोर्ट से भी इसका प्रमाण पत्र प्राप्त कर लिया गया वीजा और फ़्लाइट की टिकटें भी बुक हो गई. अचानक ही इक शाम पहले अचानक ही रौशन के घर से चीके आने लगी, दबी ज़ुबान में हर कोई कह रहा था ये कैसे हो गया..........? 
लड़के ने ऐसा क्यों किया? हर इक की ज़ुबान पे था। 
उसकी आत्म हत्या पर सभी लोग हैरान थे, इक ने कहा, “कहाँ जाना चाहता था, उसको
पर ऱौशन भेजना चाहता था, कह सके कि मेरा बेटा भी बाहर गया है और भेज दिया। “ये ख़बर सुनीता के घर भी पहुँच गई और उसका सपना भी ज़ख़्मी हो चुका था। 
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 (5) . शेख़ सहजाद उस्मानी जी
“नंगों की होड़-दौड़!”

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(i)-दौर या दौरा :
दर्शक ने प्रतिभागियों व सहभागियों की गतिविधियां देखकर अपने साथी से कहा, “समारोह का ड्रेस-कोड भले साड़ी ही क्यों न हो, जिस्म उघाड़ने की गुंजाइश और विधाओं की कलायें हर एक के पास हैं!” 
साथी ने मुस्करा कर कहा, “हर इनसान, हर प्रतिभागी और हर सहभागी की नज़र और नज़रिए में फ़र्क तो है ही! .. नंगेपन की होड़ और दौड़ से स्वयं को न रोकने का दौर भी तो है न!” 
...
(ii)-मानसिकता :
एक युवा दर्शक ने प्रतिभागियों व सहभागियों की गतिविधियां देखकर अपने युवा साथी से कहा, “ऐसे समारोह देखकर एक ही बार में देश-विदेश की औरतों के जिस्म की वैरायटी बाख़ूबी समझ में आ जाती है, है न!” 
उस साथी ने मुस्कुरा कर कहा, “फ़ैशन, वस्त्र-व्यवसाय, अंधानुकरण और औरतों की ही नहीं, मर्दों की ज़हनियत भी बाख़ूबी समझ में आ जाती है दोस्त!” 
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(iii)-हमाम (हम्माम) :
एक शिक्षा-व्यवसायी बनाम आधुनिक शिक्षक से उसके दोस्त ने कहा, “सुना है कि तुम्हारे इकलौते बेटे के बॉडी-बिल्डर बनने के बाद तुम्हारी इकलौती जवान बेटी भी एक नामी जिम में कसरत करने जाने लगी है!” 
“तो!” 
“तो क्या? कुछ तो संस्कृति, धर्म और अपने कुटुम्ब की लाज का ख़्याल रखोगे या नहीं?” 
“पहले अपने गिरेबाँ में झांको मियाँ! गटर के कीड़े तो हो नहीं! ज़माने की दौड़ में तुम और तुम्हारा परिवार भी कहीं-न-कहीं, किसी न किसी तरह से शामिल दिखाई देगा तुम्हें!” 
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(iv) .‘अवलोकन व मूल्यांकन’ 
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एक मशहूर चित्रकार द्वारा सृजित एक पेंटिंग पर आधारित विश्लेषणात्मक चर्चा का नवीनतम आयोजन था। सभागार में प्रबुद्धजन उस चित्रकार के साथ ही उस बड़े से चित्र के समक्ष विचारमग्न थे। चित्र में हरा-भरा जंगल था या बाग़ान। बीच में कच्चे रास्ते पर कमर झुकाए एक बुज़ुर्ग लाठी के सहारे आगे की ओर बढ़ा चला जा रहा था। उपस्थित हर दृष्टि के साथ भिन्न नज़रिया था :
“गांधी जी अत्याधुनिक ऑर्गेनिक वस्त्र पहने हुए अपने डिजिटल वतन की तरक़्क़ी का मुआयना करने निकले हैं!” एक बुद्धिजीवी ने कहा। 
“अपनों से ही प्रताड़ित बुज़ुर्ग सुख-शांति की तलाश में वॉकिंग करता हुआ साधना के लिए कहीं जा रहा है!” दूसरे ने कहा। 
“नहीं भाई, ये समस्याओं और परिवर्तनों से बोझिल अपना ही लोकतांत्रिक देश है! विकसित देशों का मुआयना कर रहा है! डील्स की जुगाड़ में है अपने वतन की ‘विरासत और सम्पदा’ रूपी लाठी के सहारे!” एक प्रबुद्ध युवा उद्योगपति ने पूरे विश्वास और आस्था के साथ अपनी छाती तानकर कहा। 
“मुझे तो भैया ये अपने योग-विशेषज्ञ प्रतीत हो रहे हैं! औषधीय-वृक्षों और जड़ी बूटियों के भण्डार की जाँच-पड़ताल पर निकले हैं अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए!” एक सुयोग्य योग-शिक्षक ने कहा। 
तभी एक पुरस्कृत एन.जी.ओ. के समाज सेवी ने अपनी चुप्पी तोड़ते हुए कहा, “भाईयो, सच तो ये है कि यह डिमेंशिया या अल्ज़ाइमर्स जैसे सिंड्रोम से पीड़ित बुज़ुर्ग है, जो अतीत में खोकर विशाल भवनों और कारख़ानों में हरे-भरे पेड़ देख पा रहा है और बड़े सवेरे शौच आदि के लिए कोई नदी तलाश रहा है!” 
इस तरह कइयों ने अपने पक्ष विश्लेषण करते हुए रखे। चित्रकार भौंचक्का सा रह गया। उसको अपने द्वारा ही बनाई सामान्य पेंटिंग में अपने ही मुल्क और दुनिया के सारे दृश्य नज़र आने लगे। उसकी भी एक राय बनी। माइक संभालते हुए, सबको शुक्रिया अदा करते हुए अब उसने कहा, “दरअसल यह कम उम्र में बूढ़ी सी हो चुकी नई पीढ़ी है, जो ‘अत्याधुनिक उच्च शिक्षा, डिजिटल दुनिया और फ़ैशन’ रूपी लाठी के सहारे ‘बढ़िया पैकेज वाले बड़े ओहदे, धन व ऐश्वर्य’ आदि की तलाश में घर-परिवार व धर्म-संस्कृति से पलायन कर देश-विदेश के ‘तकनीकी और औद्योगिक’ जंगल में भटक रही है!” 
अब सबकी निर्जल आँखें पुन: उस चित्र पर गहराई तक घुसी जा रहीं थीं। 
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(6) . मनन कुमार सिंह जी
(i) चीख़ का उत्सव
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प्रतापी राजा देश के रिवाज़ के अनुसार जनता द्वारा फिर राजा चुन लिया गया। राज-पद के आकांक्षी अन्य लोग खिन्न हुए। क़ानून के स्थापित राज में हत्याएँ होने लगीं। मारा गया शख़्स कभी राज-पक्ष का होता, तो कभी कोई विरोधी या बेहशतगर्द। आज राजतिलक के पहले का जलसा हो रहा है। ख़ूब कोलाहल, शोर-शराबा है। बालाएँ नृत्य कर रही हैं। सिंहासनारूढ़ होने के पूर्व मनोनीत राजा समर्थक जनता को संदेश दे रहा है। लोगों की बाँछें खिली हुई हैं। उधर बिल्लू की गोली लगने से जीवन-लीला समाप्त हो चुकी है। उसकी घरवाली को राजा की दूती सँवरी ढ़ाढस बँधा रही है.... “जाने दो मालकिन, बिल्लूजी स्वर्ग सिधारे हैं। राजमुकुट सही सिर पर सुशोभित कराने में उनका योगदान अविस्मरणीय रहेगा। राजा ने ख़ास उनके सत्कार्यों की याद दिलाने के लिए मुझे यहाँ भेजा है।” 
-बहुरिया, यह ढ़ोल-मृदंग अभी बंद करा दो। बहुत सालती हैं इनकी आवाज़ें “, बिल्लू की पत्नी बोली। 
-नहीं मालकिन, ऐसा मत कहिए। यह तो जनता का अपमान होगा, बिल्लूजी का भी। 
-कैसे? 
-यह बिल्लूजी की जीत है, मालकिन। इसे नहीं रोका जा सकता। आप ख़ुद को संभालिये। 
-मैं तो अपने अरमानों को थाम चुकी हूँ, सँवरी। तुम सब अपने उछाह को थाम सको, तो थाम लो। जाओ। यह ख़ुशी हमेशा थोड़े ही मिलती है। किसी के अरमानों की चीख़ का उत्सव ऐसा ही होता है, सँवारो! हाहाहा......हाहाहा! 
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(ii). पुनश्च
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सत्तासीन कबीले ने नई जीत का जश्न मनाया। विज़िट कबीले हार पर मंथन करने लगे। हार की वजहों में ख़ानदान परस्ती पर ज़्यादा उँगलियाँ उठीं। हुआ कि कबीले नए लोगों के सुपुर्द किए जाएँ। संगठन मज़बूत हों। जन-आकांक्षा-आधारित कार्य प्राथमिकता में रहें। प्रतिनिधियों के भाषणों से लगता जैसे प्रदेश के अलावे कबीलों में भी जनतंत्र दस्तक देने लगा है। एक कबीले ने हार का ठीकरा समूह के सिर फोड़ा। सरदार बचा रहा। फिर दूसरे, 
तीसरे कबीले यथाक्रम चलते रहे। सरदारनी वाले कबीले में ऐसी चर्चा होती ही न थी। अतः, वहाँ चुप्पी क़ायम रही। हाँ, सबसे पुराने पर लुप्तप्राय कबीले से पुरज़ोर आवाज़ें आतीं.....सरदार ने पराजय का ज़िम्मा अपने सिर लिया है। यह उनकी महानता है....कोई कहता कि हार हम सबकी है...। फिर हुआ कि समय की नजाकत को देखते हुए नेतृत्व-परिवर्तन लाज़िमी है। तब आवाज़ें आने लगीं कि कुछ समय में नए नेतृत्व की पहचान कर ली जाए, फिर पुराने को छुट्टी दे दी जाए। फिर समवेत स्वर में लोग चिल्लाने लगे कि यदि वर्त्तमान नेतृत्व बदला, तो फिर कबीला तितर-बितर हो जाएगा। इस ख़ानदान का बड़ा योगदान है इस कबीले के निर्माण में और प्रदेश की आज़ादी हासिल करने में भी। जनता के लोग मूक-बधिर-से थे। वे अपना निर्णय दे चुके थे। कुछ बच्चे शोर मचा रहे थे--
फिर वही बात, फिर वही बात! 
तेरे घर अँधेरी रात, अँधेरी रात!! 
उस कबीले के लोग कहते, “पुनश्च, पुनश्च दासोहं”। 
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(7) . बबीता गुप्ता जी
निर्णय

देश की सरहद पर अचानक दुश्मनों द्वारा हमला किए जाने के कारण छुट्टी पर गए सैनिकों तुरंत पोस्ट पर हाज़िर होने के आदेश प्रेषित कर दिये गए.
सायरन की आवाज़ सुनते ही सभी सैनिक अपनी ड्यूटी स्थल पर प्रस्थान कर गए, चारों ओर अरफा-तरफ़ी मची हुई थी, दिल दहला देने वाली गोला बारूदों की आवाज़ें आसमान को फाड़े जा रही थी. घायल सैनिको को उपचार के लिए कैंप की ओर ले जाया जा रहा था और शहीद हुए सैनिको को राजकीय सम्मान के साथ राष्ट्रीय झंडे में लपेट कर घर पहुचाने की व्यवस्था की जा रही थी, साथ ही सरकार की ओर से शहीदों के परिवार के लिए राहत राशि की घोषणा की गई.
टेलीवीजन पर चल रहे समाचार को देख नलिनी को पुरानी यादों में खड़ा कर दिया. वो, तिवारी जी के पड़ोस में अपने फ़ौजी पति, धीरज के साथ रहती थी. मिश्रा जी का बेटा धीरज फ़ौज में था, वो भी आदेश मिलते ही सरहद पर देश की रक्षा के लिए अपनी पत्नी नलिनी और दूध मुंही बच्ची पीहू को, मुझसे देख-रेख की कहकर चला गया था. धीरज ने अपनी मर्ज़ी की शादी करने पर, उसके घर वालों ने अपने से बेदखल कर दिया था.
आज तड़के सुबह सरकारी आदमी द्वारा तार नलिनी को दिया, तो उसके पढ़ते ही वही चक्कर खाकर गिर पड़ी. धीरज के शहीद होने की ख़बर हवा की तरह पूरे गाँव में फ़ेल गई और पता लगते ही धीरज और नलिनी के माँ-बापू भी सब कुछ भूलकर एक पैर पर दौड़े चले आए.
पूरे राजकीय सम्मान के साथ धीरज का अंतिम संस्कार किया गया। तत्पश्चात नलिनी के पिताजी, उसके पिताजी के सामने आग्रह पूर्वक कह रहे थे,-‘नहीं हो तो कुछ दिनों के लिए मैं अपनी बेटी को घर ले जाना चाहता हूँ’ . ‘
‘अरे आप कैसी बातें करते हैं! वो हमारी बहूँ हैं. नातिनी हमारे घर की रौनक हैं, वो काही नहीं जाएगी.’ 
‘लेकिन साहब, दोनों अकेली कैसे रहेगी? वहा भैया-भाभी हैं, मन लगा रहेगा.’ 
‘वाह! साहब जी आपने अपना सोचा. हमारी बिटिया कुछ दिनों बाद ससुराल चली जाएगी. फिर हम बुड्डे – बुड्डी को कौन सहारा हैं.’ 
दरवाज़े के पीछे खड़ी दोनों का अचानक से उत्पन्न असीम स्नेह को देख सोच रही थी, अनायास ये नफ़रत में प्यार का गुड़ कैसे समा गया? अपनी खीचा-तानी सुन उसका सब्र टूट गया और सामने आकर किसी के साथ ना जाने का मन जता दिया .
‘पर, बेटी, क्या हम तुम्हारे कोई नहीं हैं?’ नलिनी के पिताजी ने याचना भरे लहज़े में कहा.
‘उस दिन आपका ये अधिकार कहा चला गया था, जब ससुराल से ठुकराने के बाद मैं, आपके पास आई थी.जब आपने ससुराल ही तेरा घर हैं, कहकर मुँह छिपा लिया था.’ 
अपने श्वसुर की तरफ़ मुतालिब होकर बोली, ‘और पिताजी आपने तो कलंकिनी कहा था, आज कैसे गृहलक्ष्मी बन गई?’ 
दोनों नलिनी की बात सुन, सिर झुका, आगा-पीछा सब भूलकर, साथ चलने का आग्रह करने लगे. बात पूरी सुने बिना नलिनी तपाक से बोली, ‘कही यह मोह सरकार के दान ने तो नहीं जागृत कर दिया?’ 
दोनों अपने मन के चोर पकड़े जाने पर, लड़खड़ाती जुवान से कहने लगे, ‘कैसी बात करती हो? हम तो तुम्हारे अपने...........’ 
‘मुझे किसी की ज़रूरत नहीं, ज़िंदगी की सच्चाई का पाठ सीख लिया हैं, ख़ुद निर्वाह कर लूँगी।’ अपना अंतिम निर्णय सुना अंदर चली गई.
विचारों में खोई नलिनी की तंद्रा पीहू की आवाज़ ने तोड़ी, नज़र उठाकर देखा, तो मिलिट्री की ड्रेस पहने पीहू खड़ी मुस्करा रही थी, उसमें धीरज की परछाई..देख आँखें एसजेएल हो गई, उसे अपने निर्णय पर कोई पछतावा नहीं, फख्र था.
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(8) . आसिफ जैदी
‘क्या लाया’ *
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सवेरे उसकी पत्नी की चीख़ने चिल्लाने, कोसने की आवाज़ ने उसकी नींद उड़ा दी पता नहीं रात देर कब नींद लगी थी, सोचने लगा अब मैं क्या करूँ, पत्नी के ताने, लोगों के सवाल, क्या ख़ुद से लड़ूं, मैं तो जीवन भर का मज़ाक बनकर रह गया, ‘हे भगवान! मुझे इतना मूर्ख क्यों बनाया के अपनी क़बर ख़ुद खोद ली’। 
हुआ युूं के रामू बढ़ाई ने परिवार को पालते हुए तंगी से लड़ते हुए बड़ी मुश्किल से पंद्रह सौ रुपया जमा किया था, कि एक दूध वाली गाय ले आए ताकि बच्चों को दूध घी मिल सके, और कुछ गोबर कंडे भी हो जाए, रुपया लेकर कल पास के गाँव में हाट-बाज़ार करने गया था हाट ज़रा तेज चल रहा था सोचा आधे दिन बाद कुछ ठंडा हो तो मोलभाव करें, पेड़ की छाँव में सुस्ताने बैठ गया, कई मनक बैठे थे, एक मनक आया और पास बैठ गया बीड़ी निकाली रामू की तरफ़ बढ़ा दी रामू ने बिना संकोच के ले ली और मुँह में लगा ली, उसने पहले रामू की बीड़ी सुलगाई फिर अपनी, लंबा कश मारा और बोला: कौन गाँव के हो? 
रामू: “ई कालू खेड़ा..भाव तेज है गाबण गय्या लेनो है, तमारे कईं लेनो है”? 
बीड़ी वाला: “का बतऊं दादा एक बेल मरी गयो है जोड़ी बनानो है, सामने बेल वाले से भाव पटियो नी, मगजमारी हुई गई म्हारे बेल देने को राज़ी कोणी, बोल रियो है दूसरा को फ़्री दइ दूँ, पर थारे को नी दूँ, जोड़ी तो उसी से बने म्हारे बेल की”। और उसने रामू से मदद माँगी। रामू ने मोल-भाव करके पन्द्रह सौ रुपये में बेल ले लिया, और उस बीड़ी वाले के बताई जगह पर पुल के पास में बैल को ले गया! 
बीड़ी वाले ने कहा था “मैं सत्रह सौ रुप्या में बेल ले लूँगा, तम-भी बढ़िया गाय लइ-ली जो ‘, रामू बढ़ाई को इंतज़ार करते-करते शाम से रात हो गई लेकिन वह बीड़ी वाला नहीं आया, थक-हार कर रामू बेल घर ले आया और बाड़े में बांध दिया। बस फिर क्या था, सवेरे पत्नी की चिल्ला चोट” गाय लेवाणे गयो थो, बैल उठा लायो... “। गाँव वालों की जिज्ञासा पत्नी की जुबानी..और रामू बेचारा...। 
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(9) . प्रतिभा पाण्डेय जी
दृष्टिहीन

धृतराष्ट्र को आभास हो रहा था कि संजय आज विचलित है। 
“उस भयावह युद्ध का वर्णन मुझे सुनाते हुए भी तुम विचलित नहीं हुए थे संजय। आज क्यों विचलित हो? ‘धृतराष्ट्र ने संजय का हाथ थाम लिया। 
“युद्ध कहाँ समाप्त होते हैं महाराज। दिव्यदृष्टि मुझ अभागे का पीछा ही नहीं छोड़ती।” 
“क्या देख रहे हो तुम इस भारत भूमि में?” धृतराष्ट्र उतावले हो उठे। 
“खेमे ही खेमे। कभी एक-दूसरे में गड्डमड्ड दिखते हैं तो कभी अलग-अलग।” 
“धर्म अधर्म के अलग-अलग खेमे होंगे ना?” धृतराष्ट्र की आवाज़ में अपने पुत्रों को अधर्म से अलग नहीं रख पाने की पीड़ा स्पष्ट थी। 
‘नहीं महाराज यहाँ तो धर्म की परिभाषा ही बदली दिख रही है। “
“और वो छलिया चालाक कृष्ण वो कहाँ है? उसने तो हर युग में आने की बात कही थी ना।” धृतराष्ट्र की आवाज़ में पीड़ा के साथ दबा हुआ रोष भी था। 
“कृष्ण कहीं नहीं है महाराज। हाँ उनका भेस धरे अलग-अलग खेमों में ज्ञान बाँटते हुए लोग अवश्य दिख रहे हैं। और... और महाराज संजय भी हैं।” संजय की आवाज़ में पीड़ा मिश्रित व्यंग्य था। 
“तुम जैसी दिव्यदृष्टि वाला संजय यहाँ भी है! इस युग में भी! असंभव।” धृतराष्ट्र अचंभित थे। 
“एक नहीं कई संजय हैं राजन। हर खेमे में अलग-अलग। अपने खेमे के अनुसार युद्ध का वर्णन सुनाते हुए।” 
कुछ पल के मौन के बाद धृतराष्ट्र ने काँपते हाथों से संजय का हाथ थाम लिया और पूछा “क्या मुझ जैसा अभागा दृष्टिहीन धृतराष्ट्र भी है?” 
“हाँ वो भी है। कई हैं। वस्तुतः हर युग में युद्ध का कारक दृष्टिहीन मोहग्रसित विवेक ही तो होता है। आप हर युग में हैं राजन।” 
धृतराष्ट्र के काँपते हाथों को थपथपाते हुए संजय के हाथों में दो अश्रु बूँदें गिर पड़ीं। 
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(10) . कनक हरलालका जी
(i) काँटे
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“सुनो, प्रिया, मेरी बात ध्यान रखना। आज से तुम्हारी और ज्योति के परिवार की दोस्ती ख़त्म। अब न तो उससे मिलने जाओगी न कोई सम्बन्ध रखोगी।” “क्यों क्या हो गया?” “जब बिज़नेस साथ में शुरू किया तो फ़ैसला दोनों का चलेगा। उसने मुझसे पूछा नहीं। वह अपने को सर्वोपर समझता है तो करे अकेले काम। मुझे उन लोगों से नहीं रखने रिलेशन्श। और तुम भी सुन लो, ख़बरदार जो एक-दूसरे से मिली या बात की। अब से दोनों का मिलना जुलना, घर आना जाना, पार्टी मुलाकात सब ख़त्म।” “पर वह मेरी बचपन की सहेली है, तुम्हारी उनकी दोस्ती तो अपनी शादी के बाद हुई है। मैं उसे ऐसे कैसे छोड़ दूँ।” “मैं नहीं जानता। वह अपने आपको समझता क्या है। नहीं, अब उनसे कोई संबंध नहीं....। बस....।” बचपन से आज तक प्रिया की हर समस्या का हल ज्योति के पास रहता था चाहे माँ की डाँट हो या भाई बहन का झगड़ा, बाग़ से आम चुराने हों या मैथ्स के सवाल गूगल की तरह हर समय ज्योति मौजूद। आज भी ज्योति ही रास्ता थी। “हलो ज्योति ..मैं... ये कैसे हो सकता है... मुझे बताओ...। आखिरकार दोस्ती हमारी, पहचान हमारी, प्रेम हमारा। ये लोग तो बाद में आए। इनका मनमुटाव हमारा मनमुटाव कैसे बन गया। हमारे पतियों की लड़ाई हमारी लड़ाई कैसे बन सकती है। अब तू ही बता।” ज्योति के घर भी यही फ़रमान जारी था और इस बार उसके पास भी कोई समाधान नहीं था। उसने भी हथियार डाल दिए थे। 
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(ii). नया इन्कलाब
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आजकल भेड़ों में जागृति की हवा में साँस लेने का नया शौक़ चल पड़ा था। सभी भेड़ें इकट्ठा होकर अपने भविष्य की जागृति के लिए चिंतित अपने अपने मत प्रकट करने के लिए मीटिंग कर रहीं थीं। जो कि उनकी फ़ितरत के लिए एक नया इन्कलाब था। “पर यह तो हमारा धर्म नहीं है, हमें अपने गडेरिए के दिखाए रास्ते पर ही चलना चाहिए।” “हाँ जी, हमारी बुज़ुर्ग भेड़ जिधर चलेगी हम भी उधर ही तो चलेंगी।” “वे हमेशा हमारा भला करती रही हैं।” “हमें भरपेट घास मिल जाए और क्या चाहिए। ये पेट कभी भरता ही नहीं है।” “वह नया गडेरिया कहता है हमें नरम और ताज़ा घास खिलाएगा।” “ऐसे रास्ते पर चराने ले जाएगा जो पहाड़ी की तलहटी में है।” “जहाँ की पहाड़ी से रास्ता सीधे स्वर्ग की ओर जाता है।” “वहाँ ठंडी हवा भी मिलेगी, क्योंकि केवल खाना ही नहीं प्रकृति की अन्य सुविधाओं पर भी हमारा हक़ है।” “हम हरियाली के रस्ते वालों के साथ जाएँगी” “हमारा गडेरिया फूलों की घाटी से ले जाएगा।” “ठीक हैजी जिसका जिधर मन हो जाए।” बाहर खड़े गडेरिए भेड़ों को जितना हो सके अपने दल की रेवड़ में हांक ले गए। आगे गडेरिए पीछे भेड़चाल में रेवड़। उस शाम गडेरियों ने भेड़ों के मांस की शानदार दावत की। आखिरकार कटना भी उनकी फ़ितरत थी और उसमें कोई नया इन्कलाब नहीं आया था। 
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(11) . ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश
नसीहत
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थाइराइड से मोटी होती हुई बेटी को समझाते हुए मम्मी ने कहा, “तू मेरी बात मान लें. तू रोज़ घूमने जाया कर. तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा. मगर, तू हमारी सलाह कहाँ मानती है?” माँ ने नाराज़गी व्यक्त की.
“वाह मम्मी! आप ऐसा मत करा करो. आप तो हमेशा मुझे जलील करती रहती है.” 
“अरे! मैं तुझे जलील कर रही हूँ,” मम्मी ने चिढ़ कर कहा, “तेरे भले के लिए कह रही हूँ. इससे तेरे हाथपैर व माथा दुखना बंद हो जाएगा.” 
“तब तो तू भी इसके साथ घूमने जाया कर,” बहुत देर से चुपचाप पत्नी के बात सुन रहे पति ने कहा तो पत्नी चिढ़ कर बोली, “आप तो मेरे पीछे ही पड़े रहते हैं. आपको क्या पता है कि मैं नौकरी और घर का काम कैसे करती हूँ. यह सब करकर के थक कर चूर हो जाती हूँ. और आप है कि मेरी जान लेना चाहते हैं.” 
“और मम्मी आप, मेरी जान लेना चाहती है,” जैसे ही बेटी ने मम्मी से कहा तो मम्मी झट से अपने पति से बोल पड़ी, “आप तो जन्मजात मेरे दुश्मन है.......” 
बेटी कब चुप रहती. उस ने कहा, “और मम्मी आप, मेरी दुश्मन है. मेरे ही पीछे पड़ी रहती है. आपको मेरे इलावा कोई काम-धंधा नहीं है क्या?” 
यह सुनकर, पत्नी पराजय भाव से पति की ओर देखकर गुर्रा रही थी. पति खिसियाते हुए बोले, “मैं तो तेरे भले के लिए बोल रहा था. तेरे हाथपैर दुखते हैं वह घूमने से ठीक हो जाएँगे. कारण, घूमने से मांसपेशियों में लचक आती है. यही बात तो तू इसे समझा रही थी.” 
इसपर पत्नी चिढ़ पड़ी, “आप अपनी नसीहत अपने पास ही रखिए.” इसपर पति के मुँह से अचानक निकल गया, “आप खावे काकड़ी, दूसरे को दैवे आकड़ी,” और वे विजयभाव से मुस्करा दिए.
“क्या!” कहते हुए पत्नी की आँखें लाल हो गई .
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(१२) . केशव
(i). चरित्रहीन
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“इस कॉलेज की सभी लड़कियाँ चरित्रहीन हैं।” 
“मुझे तो आप चरित्रहीन लगते हैं, आप यँहा चाय बेचते हैं या लड़कियों को देखते हैं।” 
‘देखते थोड़े न हैं दिख जाती है, आँख तो नहीं मूँद सकते। “
“दिख जाती हैं का क्या मतलब, लड़कियाँ हैं कोई सपना तो नहीं।” 
“अरे आप तो भरक गए, अपने कस्टमर पर तो गूगल और फसेबूक भी नज़र रखते हैं। उन्हें तो सरकार ने भी छूट दे रखी है।” 
लेकिन ...
“लेकिन क्या? हम कोई उनके निज़ी ज़िन्दगी में तो नहीं झाँक रहे, 
जो वो सड़क पर सार्वजनिक करतेे हैं बस वही देखते और कहते हैं। “
“मैं ये कह रहा हूँ कि फसेबूक नहीं होता, फ़ेसबुक होता है।” 
“नाम फ़ेसबुक है, काम फसेबूक। सब बुक आप ख़त्म कर सकते है, फसेबूक में जो फसता है फिर नहीं निकलता।” 
“वाह भैया! ये बात तो क्लासिक जैसी कड़क है, लाइए  इसी बात पर एक। माचिस भी दीजिएगा।” 
“आज बीड़ी नहीं?” 
“नहीं। अब साहब बनने वाले हैं, बीड़ी स्टेटस के हिसाब से ठीक नहीं। अब सिगरेट की आदत डालनी पड़ेगी।” 
“तो अब दारू भी...” 
“वो छोड़िए, आप क्या कह रहे थे लड़कियाँ कैरेक्टर लेस हैं!” 
“हाँ” 
“वो कैसे?” 
“हर दिन किसी दूसरे लड़के के साथ, हाथ में हाथ डाले घूमतीं है। ऐसे लिप्ट कर चलतीं हैं जैसे मनी प्लांट हो। हाथ छुटा तो ज़मीन पर गिर जाएँ।” 
“तो इससे आपको क्या परेशानी है।” 
“परेशानी! हे हे, हमें तो फ़ायदा है, ग़म के मारे लड़के दो चार ज़्यादा सिगरेट खींचते है। 
और कुछ लड़कियाँ तो मेरी
ब्रांड एम्बेसडर हैं वो आतीं हैं
भीड़ बढ़ जाती है दुकान पर। “
“मैंने सोचा आप उनके कपड़े की बात...?” 
“अजी कपड़ों से हमें कोई आपत्ति नहीं, 
जितने छोटे होंगे, लड़के उतना ज़्यादा घूरेंगे, घूरने के लिए दुकान पर बैठेंगे। बैठेे तो कुछ ख़र्च भी करंगे। 
इसी तो धंधा... “
“बढ़िया है। ख़ैर मैं अब चलता हूँ। पैसे खाते में...” 
पर जाते-जाते एक बात कहे जाता हूँ। एक हीं लड़की के साथ बारी-बारी से घूमने वाले कई लड़के भी तो कैरेक्टर लेस हो सकते हैं? “
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(ii). संभ्रांत लोग
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बिहार में दो तरह के लोग ही आम बोलचाल में खड़ी हिंदी बोलते है| एक तो दिल्ली पंजाब से लौटे मज़दूर, जिनकी पेट की आग ने उनकी बोली, संस्कृति उनसे छीन ली है | दूसरे वो तथाकथित संभ्रांत लोग, जिनको अपनी बोली या संस्कृति में कुछ रखने लायक़ ही नहीं लगता | ये कहानी पहले टाइप वालों की है|
मुजफ्फरपु रेलवे स्टेशन से बैरिया बस स्टैंड जाने वाले ऑटो में बैठा हूँ | रात काफ़ी हो गई है|
चुस्त जीन्स और टीशर्ट पहने, कंधे पर बैग लटकाये दो लड़के ड्राइवर से अशुद्ध लेकिन खड़ी हिंदी में बात कर रहे है |
ऑटो ड्राइवर : कँहा जाना है? 
लड़का : सीतामढ़ी जाऊँगा |
ऑटो ड्राइवर : बईठो |
लड़का : सीट कँहा है, दो आदमी हूँ? 
ऑटो ड्राइवर : पूरा टेम्पो तो खाली है। (ये ऑटो वालों का पसंदीदा तकियाकलाम है) 
ऑटो ड्राइवर मेरी तरफ़ इशारा करते हुए “ए भईया तनी घसक जाइए” 
ड्राइवर के आदेश का पालन करते दोनों लड़के ऑटो की अगली सीट पर बैठ गए | जी हाँ कुल चार लोग, दिल्ली मुंबई में जँहा सिर्फ़ एक ड्राइवर बैठता है, वँहा चार बिहारी आसानी से बैठते है|
मेरे दाहिनी तरफ़ ड्राइवर बाईं तरफ़ जीन्स टीशर्ट धारी लड़का| ऊपर से वो अपना बैग अपनी गोद में यूँ लेकर बैठा है जैसे जोंक शरीर से चिपकता है। निचे रखने को तैयार नहीं। 
अब जब पसीने और बदबू से मेरे नाक में दम होना शुरू हुआ तब मैंने बगल वाले लड़के को ध्यान से देखा। 
उसके कपड़ों की हालत बता रही थी कि पश्चिम से पूरब की यात्रा उसने भारतीय रेलवे के जनरल डब्बे के फ़र्श पर की है| उसके चेहरे पर घर लौटने की ख़ुशी नहीं है, एक दर्द है, मुझे लगा मैं इस दर्द को जनता हूँ|
मैं : कँहा से आ रहे हो, दिल्ली? 
लड़का : नहीं अमृतसर। 
मैं (मुस्कुराता हुआ) : बैग बहुत कस के पड़के हो, बहुत कमाये हो लगता है? 
लड़का (और उदास होता हुआ) : किसी तरह भाग कर आया हूँ। 
मैं (अपनी हँसी पर झेंपता हुआ) : अरे, का हो गया था? कौन पकड़ लिया था? 
लड़का : मालिक
मैं: कौन मालिक? क्या काम करते थे? 
लड़का: नहीं बता सकते। 
मैं (आश्चर्य मिश्रित कौतूहल से) : ऐसा क्या काम करते थे? आज कल तो लोग क्या-क्या कर के नहीं शर्माते, तुम ऐसा क्या कर आए! 
लड़का (बहुत देर चुप रहने के बाद) : गोदाम में इलक्ट्रोनिक सामान अंदर बहार करता था। 
मैं : तो इसमें बुरा क्या है? छोड़कर काहे आ गए? 
लड़का : मालिक दो महीना से पैसा नहीं दिया। जितना पैसा लेकर गया था ख़त्म हो गया। खाने का भी पैसा नहीं था। 
मैं : वँहा कैसे फँस गए? 
लड़का : गाँव का ही एक आदमी ले गया था। अब जब वो वापस आएगा तब उसी से सारा वसूलेंगे। 
पहली बार उसे चेहरे पर थोड़ा तेज आया। शायद यह इस बात का संकेत था कि वसूली सिर्फ़ पैसे की नहीं होगी। खाली हाथ लौटने पर जो गाँव भर में जग हसाई होगी उसकी भी होगी, धोखे और अपमान की भी होगी। 
बातचीत के बिच उसने मुझे एक नंबर मिलाने को कहा, किसी दोस्त को ये बताने के लिए की वो बस स्टैंड पहुँचने वाला है, वो भी आ जाए। आज कल जिओ से फ़्री कालिंग होती है, इसलिए मुहे फ़ोन लगाने में कोई झिझक नह हुई। इन्हीं बातों में मेरा स्टॉप आ चूका था। मैं उतर गया, ड्राइवर को पैसे दिए, ऑटो आगे बढ़ गई। 
सहसा मुझे अपनी ग़लती का अहसाह हुआ। 
मैं उससे ये भी नहीं पूछ पाया कि उसके पास बस का किराया है भी या नहीं। 
एक बार पूरी घटना दिमाग़ में फिर से घूम गई, मन और लज़्ज़ित हो गया। वो दोनों तो पहले ऑटो में चढ़ना ही नहीं चाह रहे थे पैदल बस स्टैंड जाने का रास्ता पूछ रहे थे। पर रात का वक़्त और दुरी की वजह से ऑटो में चढ़े थे। और वो फ़ोन, वो अपना लोकेशन बताने के लिए नहीं वरन किसी मित्र से मंत्रणा थी कि आ कर बस का किराया दे दे। 
आह... हम पढ़े लिखे लोग... हम केवल सहानभूति जता सकते है... दूसरों के दर्द में कहानी ढूँढ सकते है...फिर कहानी पढ़कर दुखी या आक्रोशित हो सकते है... यही कहानी हम तथाकथित संभ्रांत लोगों की है। 
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(१३) . तसदीक़ अहमद खान
इन्सानियत का रिश्ता
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रमज़ान के मुबारक महीने में सहरी से फ़ारिग होकर खान साहब बैठे ही थे किपड़ोसी शर्माजी के घर से चिल्लाने की आवाज़ सुनाई दी, उन्होंने बीवी सेकहा, “ज़रा देखो पड़ोस से आवाज़ें आ रही हैं?” 
बीवी ने जवाब में कहा, “हमें पड़ोस से क्या लेना देना, वह लोग मुसलमानों से ताल्लुक़ नहीँ रखना चाहते “
खान साहब बीवी की बात अनसुनी करके फ़ौरन शर्माजी घर पहुँच कर उनकी पत्नीसे बोले, “क्या बात है भाभी जी, क्यू रो रहे हैं?” 
शर्माजी की पत्नी ने रोते हुए कहा, “इनके सीने में दर्द हो रहा है, होश में नहीँ हैं” 
खान साहब ने सोचा अस्पताल ले जाने में देर हो सकती है, उन्होंने फ़ोन करके अपने क़रीबी ह्रदयके डॉक्टर सिद्दिक़ी को गुजारिश करके बुलवा लिया। डॉक्टर ने आते ही इनजकशन लगाया और कुछ दवाएं लिखने के बाद कहा, “अगर कुछ देर
हो जाती तो इन्हें बचाना मुश्किल हो जाता “
कुछ समय बाद शर्माजी को होश आ गया, सामने खान साहब को देखकर रोते हुए कहने लगे, “माफ़करना खान साहब, इस मुश्किल वक़्त में बिरादरी का कोई आदमी नहीं आया, आपको ख़ुदा ने मदद के लिए फ़रिश्ता बनाकर भेज दिया “
खान साहब शर्माजी को तसल्ली देते हुए कहने लगे, “हिन्दू, मुसलमान तो हमनें बनाए हैं, ख़ुदा ने तोइनसान बनाकर भेजा है, असली रिश्ता तो इन्सानियत का है “
उसी वक़्त फजर की अज़ान सुनकर शर्माजी मुस्कुराते हुए बोले, “अल्लाह सबसे बड़ा है” 
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(14) . अनीता शर्मा
चौकन्नी
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सुनीता की हवेली के पास ही, कॉलेज की नई बिल्डिंग बन रही थी। मज़दूर पीने का पानी उन्ही के यहाँ से ले जाते थे, वो लगभग सभी को जानने लगी थी। सुनीता की पाँच साल की बेटी गुड़िया सब से हिल मिल गई थी। वो खेलते खेलते कई बार उस बिल्डिंग में चली जाया करती थी। अब कई नए मज़दूर और आ गए थे। सुनीता को भूरा के हाव-भाव कुछ ठीक नहीं लग रहे थे, उसने इस बात का ज़िक्र घर में सभी से किया लेकिन किसी ने भी इस बात को गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन सुनीता अब पहले से ज़्यादा सतर्क एवं चौकन्नी रहने लगी थी, पिछले दस मिनट से सुनीता गुड़िया को खाना खिलाने के लिए आवाज़ लगा रही थी, वो घर में थी ही नहीं तो जवाब भी नहीं आया, एकदम सुनीता का माथा ठनका वो भाग कर पास की बिल्डिंग में गई वहाँ से भूरा ग़ायब था, तुरन्त उसने सभी को एकत्र किया, सभी से गुड़िया को तलाशने को कहा, और वास्तव में आज सुनीता की सतर्कता से एक मासूम का जीवन ख़तरे से बाहर था। 
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 (15) . वीरेंद्र वीर मेहता
‘बदलती परिभाषा’ 
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“कुछ कहने से पहले मैं आपसी मतभेद की वजह जानना चाहूँगा। 
“जी कहिए।” 
. . . वह अपनी पत्नी से डिवोर्स लेने के विषय में सलाह लेने के लिए वकील के पास बैठा था। 
“क्या वह सुंदर नहीं है?” 
“जी ऐसा तो नहीं, वह तो अपने कॉलेज की मिस ब्यूटी रही है।” 
“यानी शिक्षित भी है!” 
“जी हाँ, और प्रथम श्रेणी की अधिकारी भी।” 
“क्या परिवार या रिश्तेदारी में उसका व्यवहार संतोषजनक नहीं है। 
“असंतोषजनक तो नहीं लेकिन औपचारिक ही होता है, ऐसा कह सकते हैं।” 
“बाहर किसी से कोई रिश्ता?” 
“नहीं नहीं! तीन वर्ष में तो ऐसा नहीं लगा।” 
“आपसी संबंध, आई मीन बैड रिलेशन’!” 
“है। . . . ‘बट ऑलमोस्ट मिनिमम’!” 
“ओ के, लेकिन मैं समझ नहीं पा रहा कि आख़िर क्या वजह है जो आप अपनी पत्नी से डिवोर्स लेना चाहते हैं।” 
“हद दर्जे की पोसेसिव है वह, और अपनी इच्छा से ही सब कुछ करती है यहाँ तक कि हाल ही में न चाहते हुए ‘प्रेगनेंट’ होने की स्थिति में अबॉर्शन भी। बस, इसलिए मैं उससे ‘टॉर्चर बेस’ (प्रताड़ना) पर डिवोर्स चाहता हूँ।” एक ही साँस में कह गया वह सब कुछ। 
“लेकिन क्या इन सब बातों को ‘टॉर्चर’ माना जाए?” 
“पता नहीं! लेकिन...” उसकी आवाज़ एकाएक अपनी शक्ति खो बैठी थी। “... यदि यही सब पति करे तो?” कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ था। 
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(16) . रचना भाटिया
(i). नाइट ड्यूटी
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“राहुल आज भी टिफ़िन नहीं लाए? कुछ खा कर आए या..?” मैडम कुछ कहती इससे पहले ही स्कूल की आया बोली, “रास्ते में इसकी माँ दिखाई दी थी, चमकीली साड़ी में, मेरे टोकने से पहले ही वो नज़र बचा खिसक ली।” आया की हँसी कुछ और भी बोल रही थी। 
“मैडम, माँ नाइट ड्यूटी करती है।” 
कहाँ काम करती है माँ? 
“बाबा की मौत के बाद माँ को बाबा के साहेब ने ही काम पर रख लिया”। 
वो जो अकेले रहते हैं, दिन में उनके घर का काम तो कोई और करती है। “आया बीच में बोली। 
“साहेब ने माँ को रात का काम दिया है”। माँ मुझे रात को अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, पर दिन का काम मिला ही नहीं “। 
जाने क्यों मैडम ने रुआंसे राहुल को अपने से चिपटा लिया, और कहा, माँ को कल से मेरे घर सफ़ाई के काम के लिए भेज देना “। 
“सच मैडम, फिर तो माँ रात को मेरे पास सोएगी”। 
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(ii). ज़िंदगी की उड़ान
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“माँ, भगवान के लिए अब हमें सीख देना बंद करो। हम बड़े हो चुके हैं”। शारदा बेटे की बात पर हैरान थी। कुछ कहती इससे पहले ही पड़ोसन आशा ने छब्बीस साल के राहुल को टोक दिया। 
“माँ से ऐसे बात करोगे? तुम दो साल के थे तबसे यह अपनी इच्छाओं का गला घोंट कर तुम्हें पाल रही है। आज कमाने लगे तो बातें आ गई।” 
राहुल मुँह नीचे कर के बोला “हमनें मना नहीं किया था, अब जी लें”, और बाहर को निकल गया। आशा रोती शारदा को समझाने लगी। 
“सारी जवानी इनके नाम लिख दी। कब तक यूँ ही सिसकती रहेगी। तू अब आगे बढ़। अपनी ओर ध्यान दे। तेरे भी कुछ सपने होंगे”। 
“मैंने सच में कभी अपने लिए कुछ नहीं चाहा। अब ढलती उम्र में क्या सोचूं”। 
, “बस तुमने पढ़ा, लिखा दिया। पैरों पर खड़े हो गए। तुझे भी ज़िंदगी जीने का हक़ है। जितना इनके पीछे घूमेगी उतना ही तंग करेगें। इन सबसे बाहर भी एक दुनिया है।” 
आशा की बातें शारदा के दिमाग़ में घूमती रहीं। इन विचारों से घबरा शारदा घर से बाहर जाने को तैयार होने लगी। उसी समय राहुल घर में घुसा। माँ को जाने के लिए तैयार देख हैरान था। उसके बिना तो माँ कहीं न जाती थी। 
“कहाँ जा रही हो मेरे बिना”? 
“मैं ज़िंदगी जीना सीखना चाहती हूँ, बस इसी लिए अकेले ही सही पर आगे बढ़ रही हूँ। एक झटके में शारदा पर्स उठा पेंटिंग क्लास का पता करने बाहर निकल गई। 
अब हैरान होने की बारी राहुल की थी। 
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(17) . कल्पना भट्ट (‘रौनक़’) 
इक्कीसवीं सदी का गांडीव
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“यह कौन लेटा हुआ है, वह भी बाण शय्या पर! नेपथ्य से एक आवाज़ उभर कर आ रही थी|
स्टेज पर कुछ पात्र दिखाई दे रहे हैं, जिनके हाथों में धनुष बाण हैं, किसी के हाथ में गदा, किसीके हाथ में तलवार |
“अरे! यह तो भीष्म पितामह हैं|” एक पात्र ने जानकारी दी|
“कहीं यह वही तो नहीं जिन्होंने प्रतिज्ञा की थी आजीवन निसंतान रहेंगे, और अपने कुल के विनाश को देखने पर मजबूर हुए? |
श्रोताओं में बैठा हुआ एक व्यक्ति उठ गया और उसने चिल्लाना शुरू कर दिया, “मारो साले को, इस भीष्म की वजह से ही महाभारत हुआ है, साला हरामी! अपने को समय के साथ बदल लेता तो अपने परिवार को ज़िंदा देखता, सब इसकी ज़िद की वजह से हुआ....|” 
“अबे चुप साले, क्या बकवास कर रहा है? नाटक चल रहा है, चलने दे, बीच में क्यों बोल रहा है?” एक अन्य श्रोता बोला|
“यह भीष्म ही तो है जो मेरा घर बिगाड़ रहे हैं....” यह कहकर वह अपनी जगह पर बैठ तो गया पर तुरंत ही वह सभाग्रह से बाहर आ गया और चिल्लाने लगा, “नहीं बापू, नहीं! मैं अपने घर में तुम्हारी भीष्म प्रतिज्ञा नहीं चलने दूँगा, मेरी बेटी स्कूल जाएगी और अवश्य जाएगी, तू चाहे कितनी कोशिश कर ले... इक्कीसवीं सदी में भीष्म के लिए कोई जगह नहीं हैं....| दृढ़ संकल्प का गांडीव अब अपने वार के लिए तैयार हो चुका था|
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(ii). भूमंडलीकरण का तांडव 
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इंद्र सभा में आज सभी देव आमंत्रित थे| देवों के मनोरंजन के लिए अप्सराएँ नृत्य कर रही थी| सभी देवगण हर्षित थे और नृत्य और मदिरा का आनंद उठा रहे थे| भ्रह्मा, विष्णु, महेश भी अपने-अपने आसन पर बिराजमान थे|
सबको आनंदमयी देख इंद्र देव फुले नहीं समा रहे थे, वे अपने आस-पास सभी देवगण को बहुत ही ध्यानपूर्वक देख रहे थे, तभी उनकी निगाह क़रीब ही बिराजमान ब्रह्म देव पर पड़ी, वे इस भीड़ में सबसे अलग ही नज़र आ रहे थे| उनको यूँ उदासीन देख इन्द्रदेव से रहा नहीं गया और वह ब्रह्मदेव के निकट आकर बोले, “क्या बात है परमपिता, आप इतने उदास क्यों हैं? आपको यह नृत्य पसंद नहीं आ रहा है? गर ऐसा है तो बताएँ प्रभु, मैं अभी मेनका से कह देता हूँ|” 
ब्रह्म देव की जैसे तुन्द्रा भंग हुई और उन्होंने इन्द्रदेव की तरफ़ देखते हुए कहा, “नहीं! नहीं! ऐसी तो कोई बात नहीं...|” 
उनका चेहरा उनकी बातों से भिन्न नज़र आ रहा था, इन्द्रदेव ने पुनः जानने का प्रयास किया, “प्रभु, कुछ तो बात अवश्य है, आप चिंतित प्रतीत हो रहें हैं, बताये आर्य! क्या बात है? हम सब आपके साथ हैं...|” 
इन्द्रदेव को अपनी तरफ़ से चिंतित देख ब्रह्म देव ने कहा, “वो... अभी कुछ दिनों से मैं परेशान ही हूँ| अपने ठीक पहचाना|” 
इन्द्रदेव को अपने सिंहासन से उठते देख सभी अप्सराएँ चकित थी, आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ था| पर वे सब मजबूर थी, जब तक उनका आदेश न मिले, नृत्य करना उनका दायित्त्व था| यहाँ ब्रह्म देव के पास ही बिराजमान विष्णु ने इन दोनों की बातें सुन ली थी| अब तो इंद्र देव ने सभा बर्खास्त की और सभी नृत्यांगनाओं को वहाँ से जाने को कहा, और दुबारा ब्रह्म देव से जानने की चेष्टा करने लगे| अब तो विष्णु जी, शिव जी तथा अन्य देवगण भी चोकन्ने हो गए थे|
सभी एक-दूसरे से पूछ रहे थे, “आख़िर हुआ क्या है आज ब्रह्म देव को?” 
किसी ने कहा, “उफ़, सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया इस ब्रह्माजी ने तो...|” 
इन्द्रदेव को यूँ याचना करते हुए देख ब्रह्म देव ने कहना आरम्भ किया, “वो, कुछ दिनों पहले ही मैं पृथ्वी परिक्रमा करने गया था, वहाँ जो भी कुछ देखा, उसे देख मैं बहुत दुखी हूँ और चिंतित भी|” 
विष्णु जी जो क़रीब ही बिराजमान थे, उन्होंने पूछा, “क्यों देव? ऐसा क्या देख लिया आपने?” 
“प्रियवर, आप तो जानते हो जब सृष्टि का निर्माण किया गया था, तब जल, वायु और पृथ्वी का निर्माण किया था| फिर आपके कहने पर वहाँ जीवों को भेजा था, जिसमें पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पहाड़-नदी इत्यादि प्रथ्वी पर भेजें गए थे...|” 
इंद्र देव और विष्णु जी ने कहा, “जी, यह तो सत्य है... तो अब क्या समस्या आई है, सब कुछ तो ठीक-ठाक चल रहा है...|” 
“सही चल रहा है! नहीं.........!” ब्रह्म देव के मुँह से चीख़ निकली |
उनकी चीख़ सुनकर शिव हँस पड़े|
अब तो सभी देवगणों के चेहरों पर से हवाइयाँ उड़ रही थीं। 
ब्रह्म देव ने अपनी बात पुनः शुरू की, “तबसे लेकर आज तक मैं यह सोचता रहा कि मेरा पुत्र मनु पृथ्वी पर वरदान सिद्ध होगा, उसके लिए मैंने अपनी बेटी कुदरत को पृथ्वी की देख-भाल करने के लिए भेजा था... पर इस कलयुग में आए इस भूमंडलीकरण की वजह से मनु ने कुदरत का ऐसा विनाश किया है की... वह ग़ुस्से से पलटवार कर रही है...|” यह कहते हुए उन्होंने शिव की तरफ़ देखा और कहा, “और इन देव ने उसको तांडव की शिक्षा दे दी है...” 
“तो क्या कुदरत तांडव कर रही है...?” इंद्र ने जिज्ञासा जताई |
“हाँ, मनु ने अपने स्वार्थ के लिए, कुदरत को विनाश की राह दिखा दी.. और चहुँ ओर बस ख़ुद का साम्राज्य स्थापित करता जा रहा है, जिसकी वजह से कुदरत बिटिया नाराज़ हो रही है और उसने तय कर लिया है कि मनु को अब तो वह सबक़ सिखाकर ही दम लेगी...|” 
अब शिव ने अपना बचाव करते हुए कहा, “हम त्रि-देवों ने अपने-अपने हिस्से का काम जब बाँट लिया थ ब्रह्मदेव को सृष्टि रचना करना था, विष्णु देव को सृष्टि को सँभालने का कार्य दिया गया था, और मुझे विनाश....|” 
“हाँ... तो क्या अपने ही कुदरत के साथ मिलकर ऐसा खेल रचा है?” 
“आख़िर किया क्या है मैंने...” शिव ने कहा, “जो आया है उसको एक दिन तो जाना ही है, फिर मनु के ख़ुद को भगवान् समझने की भूल पर उसको सबक़ तो सीखना ही पड़ेगा| कितना स्वार्थी है, सिर्फ़ ख़ुद को देख रहा है, अन्यत्र सब विनाश करता जा रहा है, उसको यह समझाना होगा, कि कलयुग में बहन का भी उतना ही हिस्सा होता है जितना पुरुष का... सो हम दोनों ने अपनी-अपनी उँगलियाँ टेढ़ी कर ली हैं...|” 
“तो क्या....मेरा मनु...?” ब्रह्माजी ने चिंता जतायी। 
“हाँ! देव, हमें क्षमा करें, कुदरत ने पलटवार करके कई बार चेतावनी देकर मनु को समझाने कि चेष्टा कि है कि कुदरत का भी ख़याल रखे पर शायद वह समझना ही नहीं चाह रहा, सो जब सीधी उँगली से घी न निकले तो उसको टेढ़ी करना ही ...|
सब देवगण विस्मित यूँही खड़े थे और ब्रह्मदेव लाचार ...
“आख़िर मनु को समीकरण तो समझना ही होगा|” शिव ने अपना निर्णय सुना ही दिया|
**************
(18). राजेश कुमारी 
अपेक्षा या उपेक्षा

आज रशीद बहुत उत्साहित था ट्रेन आने के वक़्त के साथ-साथ उसके चेहरे पर बेचैनी और उत्सुकता के मिश्रित भाव देखे जा सकते थे। 
चार पाँच दिन पहले ही उसने मालिक से अपने अम्मी अब्बू के आने की ख़ुशख़बरी दी थी। 
विधायक अजीम क़ुरेशी जी के यहाँ छह साल से ड्राइवरी की नौकरी करते हुए पहली बार उसके अम्मी अब्बू उसके पास आ रहे हैं। 
मालिक ने कितनी ख़ुशी से कहा था गाड़ी ले जाना और उनको स्टेशन से ले आना। 
रशीद की आँखों में मालिक का क़द और बढ़ गया था। 
मगर आज सुबह मालिक ने बताया कुछ गेस्ट आने वाले हैं सभी गाड़ियाँ लगाई जाएँगी मगर दूसरा ड्राइवर मेहमानों को गेस्ट रूम में छोड़कर स्टेशन पर ट्रेन आने से पहले तुम्हारे पास पँहुच जाएगा .
प्लेटफ़ॉर्म पर भाग दौड़ की आवाज़ सुनकर झटके से रशीद की विचार शृंखला टूटी .
ट्रेन आकर रुक गई। 
रशीद दौड़कर डब्बे तक पँहुच गया। 
निकलते ही अब्बू अम्मी से लिपट गया। 
फिर उनको बेंच पर बैठाकर इधर-उधर देखता हुआ चहल कदमी करने लगा। 
अम्मी के पूछने पर उसने चहक कर बताया कि “उसके साहब इतने अच्छे हैं कि उनको लेने अपनी एयर कंडीशंड गाड़ी भेज रहे हैं”। 
काफ़ी वक़्त इंतज़ार में बीत गया। अम्मी अब्बू पहले से ही थके हुए थे उनकी थकान कुछ और बढ़ गई। 
अचानक रशीद उठा कुछ दूर जाकर फ़ोन करने लगा
माँ-बाप की नज़र उसपर ही अटकी थी वो रशीद के हाव-भाव में झुंझलाहट देखकर परेशान से हो उठे। 
फ़ोन बंद कर जब रशीद भारी क़दमों से नज़रें झुकाए उनकी ओर आया तो माँ-बाप ने एक-दूसरे की ओर देखा नज़रों ही नज़रों में कोई निर्णय किया। 
अब्बू ने बेटे के काँधे पर हाथ धरते हुए कहा “बेटा मैं तुम्हें बहुत देर से कहना चाह रहा था मगर संकोच वश नहीं कह पा रहा हूँ कि तुम्हारी अम्मी को गाड़ी में उल्टियाँ होती हैं वो बस में खिड़की के पास इसीलिए बैठती है। हवा लगती जाएगी तो इसकी तबीयत भी ठीक रहेगी। तुम साहब से माफ़ी माँग कर गाड़ी के लिए मना कर दो” अम्मी ने भी अब्बू की हाँ में हाँ मिलाई। 
रशीद के चेहरे पर मानो एक जीवंत मुस्कान लौट आई
जिसे देखकर अम्मी अब्बू की सफ़र की थकान एक दम ग़ायब हो गई। 
**************
(19) . अतुल सक्सेना जी
पग्गल
.
भईया-आवाज़ सुन ठिठक गए। 
तीस साल वक़्त इतना भी लम्बा नहीं था कि संतोष भुला जाए ...चारदीवारी पर मुँह टिकाये खड़ी थी वह ...
अरे संतोष-मैं हुलस के उसके पास आया-कैसी है तू
-भईया वो जंगल जलेबी का पेड़ कट गया
उसकी उठी उँगली की तरफ़ मैंने पलटकर देखा-हाँ यहाँ तो जंगल जलेबी का पेड़ होता था अब दुमंजिला मकान था। किसी को एक भी जंगल जलेबी तोड़ने नहीं देती थी संतोष फिर ख़ुद ही तोड़ बाट देती थी जब जंगल जलेबी पक कर गुलाबी हो जाती थी
बगल के चार नंबर में हम रहते थे चारदीवारी से सटी बैठी जंगल जलेबी के छोटे छोटे बीज को पिरो संतोष सुंदर मालाये बनाती रहती और मोखले से दिखाती-तेरी बोट्टी को पहनाउँगी और फिर अपने गले में डाल खिलखिला के हँस देती
-भईया वो जंगल जलेबी का पेड़ कट गया
-बुआ पग्गल ...बुआ पग्गल
दो बच्चे उस मकान की बालकोनी में कूद कूदकर ताली बजा के चिल्ला रहे थे जहाँ कभी जंगल जलेबी का पेड़ था। मम्मी भी कहती थी पग्गल है हर वक़्त हसती रहती है इसके साथ मत खेला कर … पर संतोष तो आज नहीं हँस रही है
ऐ बच्चो चुप करो संतोष पग्गल नहीं है-मैं चिल्ला के बच्चो को डाटना चाहता था पर गला रुँध गया ... मैंने देखा चार नंबर के अहाते में मेरा अमरुद का पेड़ भी नहीं था जहाँ खड़े दो बच्चे मुझे घूरकर देख रहे थे। 
मुझे लगा अभी वो चिल्लाएँगे ... पग्गल ... अंकल पग्गल
**************
(20) . नीता कसार जी 
ममता का भरोसा
.
‘अम्माँ आप मुझे माफ़ कर सकती है क्या’ 
? ट्रेन ने अपनी गति पकडी़ ही थी, किअपनी सीट के पास एक लड़के को देखकर चकरा गई। 
‘कौन हो बेटा, और कैसी माफ़ी,? 
इस तरह ज़मीन ना बैठ
बेटा बाज़ू में बैठकर बता ‘कौन सी ग़लती की माफ़ी माँगे है।’ 
आप वहीं हैं ना जब आपने ट्रेन में सबको अपने साथ लाया प्रसाद बांटा तब आपको किसने ज़ोर से डाँट लगाई। 
जानती नहीं किसी को भी कुछ भी खाने का सामान नहीं देना चाहिए, जेल हो सकती है, आपको। 
‘तो तू ही वह लड़का था,। शांतिदेवी ने ऊगंली से चश्मा ठीक करते कहा। 
मैं दोबारा आपसे फिर इसी ट्रेन में, मिला, तब जल्दबाज़ी में खाना मेरे पास नहीं था। 
तब आपने मुझे ज़िद से अपने खाने से खाना खिलाया। 
कहते कहते आनंद रूआंसा होगया। 
फिर क्या हुआ आगे बेटा? शांतिदेवी कुछ याद करने लगी। 
आपने कहा, कहते कहते आनंद की आँखों से अश्रुधारा बहने लगी। 
तू भूखा है, खा ले
“माँ अपने बेटे को ज़हर नहीं दे सकती”। 
**************
(21) . मृणाल आशुतोष जी 
ईमान
.
जुम्मे की नमाज़ पढ़ मस्ज़िद से निकलकर अब्दुल बमुश्किल एक फलांग चला गया होगा कि पीछे से आती आवाज़ ने उसके पैर में ब्रेक लगा दिए, ‘रुकिए भाईजान’। 
मुड़ा तो पीछे तो दो नक़ाबपोश उसकी ओर तेज़ी से बढ़े चले आ रहे थे। डर के मारे उसकी घिघ्घी बँध गई। पर उनके नज़दीक आते डर जाता रहा, “अस्सलाम ओ अलैकुम।” 
“अलैकुम ओ अस्सलाम।” अब्दुल अब राहत की साँस ले रहा था। 
“सुना है कि आप काफ़ी दिनों से बेरोज़गार हैं और आपकी माली हालत भी नहीं।” 
“सुना तो ठीक है। पर मैंने आपको पहचाना नहीं।” 
“यही तो दिक्कत है कि आप अपने भाइयों को नहीं पहचानते।” 
“मुआफ़ किजीएगा। पर मैंने आपको पहचाना नहीं।” 
“अपना भाई ही मान लीजिए, जनाब! आप हमारे साथ काम क्यों नहीं करते?” 
“आपके साथ! क्या काम करना पड़ेगा?” 
“मुल्क की आज़ादी का!” 
“मुल्क...आज़ादी...कौन सा मुल्क?” 
“अरे अपना मुल्क! काश्मीर। इसे आज़ाद कराना है न काफ़िरों से! हम भी तो ख़ुदा की फ़ज़ल से इसी पाक काम में लगे हैं।” 
“अच्छा!” 
“हाँ! पूरे तीस हज़ार नक़द हर महीने आपके परिवार को मिलेगा। और आपका सारा ख़र्चा वर्चा हमारा!” 
“पर, यह तो...” 
“मत भूलिये कि आप कितनों दिनों से घर पर बैठे हैं। और ख़ुदा न खासते, अगर आप जिहाद में शहीद हो गए तो आपके बीवी-बच्चे को पूरे दस लाख दिए जाएँगे।” 
....
“सोच क्या रहे हैं! क्या आपका कोई फ़र्ज़ नहीं बनता!” 
“भाईजान, मेरा मुल्क हिंदुस्तान है। वही रहेगा। मैं भूखों मर जाऊँगा पर मुल्क से गद्दारी...न न न मैं अपने मुल्क से गद्दारी नहीं करूँगा। अच्छा तो ख़ुदा हाफ़िज़....” 
**************
(22) . विनय कुमार जी 
अनाम रिश्ता
.
भयानक गर्मी लगता था सब कुछ जला डालेगी और ऊपर से लू, दिन में बाहर निकलना लगभग असंभव सा हो गया था. हरी बाबू अपने कमरे में बैठे कूलर की हवा खा रहे थे और बीच-बीच में खिड़की के परदे को हटाकर बाहर भी झाँक ले रहे थे. पिछले महीने ही रिटायर हुए थे और पहले जहाँ बाबू थे वहाँ दिनभर लोगों से घिरे रहते थे. इसलिए उनका इस तरह खाली बैठना बेहद कष्टप्रद था, लेकिन कोई उपाय भी नहीं था. बेटे ने सख़्त ताकीद कर रखी थी कि दोपहर में बाहर नहीं निकलना है, सुबह शाम चाहे जहाँ भी जाएँ. अब इसके पीछे बेटे की मंशा चाहे जो भी हो लेकिन उनको उसका मना करना अच्छा ही लगता था.
अंदर के कमरे में बहू आराम कर रही थी, अब धीरे-धीरे उनकी आदत पड़ गई थी कि दोपहर में बहू से वह कोई फरमाईश नहीं करें. अव्वल तो वह उठती नहीं थी और अगर उठ भी गई तो जिस तरह से उनकी फरमाईश किसी न किसी बहाने से टाल देती थी कि उनको समझ में आ गया था. प्यास महसूस हुई तो वह उठे और ख़ामोशी से किचन में जाकर पानी ले आए. पानी टेबल पर रखकर उन्होंने एक बार फिर पर्दा हटाकर बाहर देखा, सड़क पर कर्फ़्यू जैसा हाल था. हरी बाबू पर्दा वापस खींचते तभी उनको एक अधेड़ साइकिल से उनके घर की तरफ़ ही आता दिखाई दिया. उस पूरे इलाके में एक उनके घर के सामने ही मरियल सा गुलमोहर का पेड़ था. गाहे-बगाहे कोई धूप का मारा उसके छाँव तले थोड़ा सुस्ताता और फिर आगे बढ़ जाता. छाँव बस इतनी ही होती थी कि कुछ पल के लिए राहत मिले, फिर लू के थपेड़े जता देते थे कि आगे बढ़ना चाहिए.
उस अधेड़ ने साइकिल खड़ी की और अपना गमछा उतारकर उससे चेहरे के बहते पसीने को पोंछने लगा. हरी बाबू की अनुभवी निगाहों ने उसकी भेष भूषा और मूँछ दाढ़ी से अंदाज़ा लगा लिया कि वह एक मुस्लिम है. उनको अचानक याद आया कि रमज़ान चल रहा है और शायद यह व्यक्ति रोजे से होगा. अपनी नौकरी के दौरान अक्सर वह रमज़ान के महीने में अपने मुस्लिम साथियों का ध्यान रखते थे और यथासंभव उनके सामने भोजन या जल नहीं ग्रहण करते थे. उस अधेड़ ने गमछे से चेहरा पोंछने के बाद चारो तरफ़ निगाह दौड़ाई, शायद वह कोई बेहतर जगह तलाश रहा था.
हरी बाबू सोच में पड़ गए, एक तरफ़ तो उनका मन कहता कि वह उस व्यक्ति को कम-से-कम एक ग्लास पानी पिला दें. फिर रोजे का ख़याल आता तो मन मना करने लगता. वैसे उनके कुछ साथी रोजा नहीं भी रखते थे इसलिए उनकी इच्छा हुई कि वह आगे बढ़कर उस अधेड़ से पूछ ही लें. उन्होंने दरवाज़ा खोला, लपट पूरी भयावहता से उनके चेहरे और शरीर के खुले हिस्से से टकराई और वह लड़खड़ा गए. फिर हिम्मत करके वह आगे बढ़े और उस अधेड़ की तरफ़ मुख़ातिब हुए “इतनी गर्मी में कहाँ निकल पड़े, लू लग गई तो लेने के देने पड़ जाएँगे. अगर ऐतराज न हो तो थोड़ा पानी पी लो” .
अधेड़ ने उनकी तरफ़ देखा और पपड़ियाये होठों पर हाथ फेरा “रोजे से हूँ भाईजान, कुछ ज़रूरी काम से जाना था इसलिए निकल पड़ा. अब इतने दिन निकल गए तो कुछ दिनों के लिए रोजा क्यूँ तोडूं” .
हरी बाबू ने उसका चेहरा देखा, दया सी आ गई उनको. “अच्छा ठीक है पानी मत पीना लेकिन थोड़ी देर आराम कर लो. फिर निकल जाना, अंदर आ जाओ” .
अधेड़ ने एक बार फिर उनको देखा, उन्होंने नज़रों से आश्वस्त किया तो अधेड़ उनके पीछे-पीछे कमरे में आ गया. कमरे में कूलर की हवा के चलते बहुत राहत थी, उन्होंने अधेड़ को सोफ़े पर बिठाया और धीरे-से पानी का भरा ग्लास उठाकर किचन में ले जाकर रख दिया. ग्लास रखते समय उनको प्यास की पुनः अनुभूति हुई लेकिन उन्होंने पानी नहीं पीना ही उचित समझा.
**************
(23) . समर कबीर जी 
“विवेक” 
.
जंगल के राजा शेर के साथ भेड़िया और लोमड़ी जंगल की सैर को निकले, कुछ दूर जाने के बाद शेर ने एक ख़रगोश का शिकार किया, ये देखकर भेड़िया ने लोमड़ी की तरफ़ मुस्कुरा कर देखते हुए कहा, ‘तेरा इंतिज़ाम हो गया’! 
आगे चलकर शेर ने एक हिरन का शिकार किया, ये देखकर भेड़िया मन-ही-मन हर्षित होकर लोमड़ी से इशारे में बोला, ‘, मेरा भी इंतिज़ाम हो गया’। 
आगे चलकर शेर ने एक भैंसे का शिकार किया, और भेड़िये की तरफ़ देखकर कहने लगा, ‘तू इन के बराबर के हिस्से कर दे। 
भेड़िया बोला ‘महाराज हिस्से क्या करना है! ख़रगोश लोमड़ी को दे देते हैं, हिरन मैं रख लेता हूँ, और भैंसा आप रख लें’। 
शेर को क्रोध आ गया, और उसने एक ही वार में भेड़िये का काम तमाम कर दिया। 
फिर शेर ने लोमड़ी से कहा, “, अव तू हिस्से कर”! 
लोमड़ी ने कहा “महाराज हिस्से क्या करना हैं, ख़रगोश आप नाश्ते में खा लेना, हिरन आप लंच में खा लेना, और भैंसा डिनर में खा लेना”। 
शेर ने मुस्कुरा कर लोमड़ी को देखा और ख़ुश होकर बोला “तूने तबीअत ख़ुश कर दी, जा ये तीनों शिकार तुझे इनआम में देता हूँ”। 
फिर शेर ने लोमड़ी से पूछा “अरे लोमड़ी, ये तो बता, तूने इतना अच्छा फ़ैसला करना कहाँ सीखा”? 
लोमड़ी ने उत्तर दिया “भेड़िए के अंजाम से”। 
***************
(सभी रचनाओं में वर्तनी की त्रुटियाँ संचालक द्वारा ठीक की गई हैं) 

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जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,लघुकथा गोष्ठी अंक-50 के संकलन के लिए मुबारकबाद पेश करता हूँ ।

आदाब।  बेहतरीन संकलन। इस में मेरी रचना स्थापित करने के लिए हार्दिक आभार। सभी सहभागी रचनाकारों को हार्दिक बधाई।

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