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साकेत महाकाव्य का उद्घोष – “सन्देश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया” =डा० गोपाल नारायन श्रीवास्तव

      तुलसी की भांति राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त के इष्टदेव भी राम थे I वे राम को ईश्वर  मानते है और साकेत के राम से पूंछते भी हैं  –

राम तुम मानव हो, ईश्वर नहीं हो क्या ?

विश्व में रमे हुए नहीं सभी कही हो क्या  

तब मैं निरीश्वर हूँ ईश्वर क्षमा करे

तुम न रमो तो मन तुम में रमा करे

     कवि का प्रपत्ति भाव ऐसा है की वह अपने ईष्ट के लिए निरीश्वरवादी होने तक तैयार है I  उसे विश्वास है कि लोक–संग्रह के लिए नारायण ही नर का स्वरुप धारण करता है I इस सत्य के समान्तर साकेत में मानव के अंतर्गत ईश्वर की प्रतिष्ठा हुयी है I हिन्दी साहित्य में जब से मानवतावाद की पैठ गहरी हुयी है ईश्वर के भक्ति चतुष्टय की महिमा क्षीण हुयी है और नवधा भक्ति किसी कोने में जा छिपी है I यही कारण है कि साकेत में राम के ईश्वरत्व का गुणगान नहीं हुआ है I इसके विपरीत राम का सारा उद्योग  उनका सारा आयास मानवता की अभिरक्षा में लगा दिखता है I  राम के रूप में ईश्वर इसलिए अवतरित हुआ है की वह मानवता विरोधी शक्तियों को उखाड कर फेंक सके –

पापियों का जान लो अब अंत है

भूमि पर प्रकटा अनादि अनन्त है

     साकेत में गुप्त जी ने यह भी स्पष्ट किया है कि उनके राम मनुष्यता का नाटक अथच नर-लीला करने नहीं आये है और न ही अपना आदर्श या प्रभाव छोड़ने के लिए आये है I यह मिशन तो तुलसी के राम का था I साकेत के राम तो संसार में एक नए वैभव की सृष्टि करने और मानव को ईश्वरत्व की ऊँचाई प्राप्त कराने हेतु अवतरित हुए हैं –

भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया

नर को ईश्वरता प्राप्त कराने आया I

      राम का यह सन्देश प्रांजल और स्पष्ट है I उनके धीरोदात्त चरित्र के माध्यम से कवि मानव को उच्चादर्श सम्पन्न एवं ईश्वर के समतुल्य बनाने हेतु तत्पर दिखता है  I मानव में ईश्वर का अध्यारोप एक समय में कवि, दार्शनिक एवं मनीषियों का बडा ही प्रिय शगल हुआ करता था I बड़े बड़े कवि भी इस व्यामोह से बच नहीं पाए थे i ‘कामायनी’ में जयशंकर प्रसाद भी मानवतावाद के इसी स्वरुप का आह्वान करते हैं –

शक्ति के विद्युत् कण जो व्यस्त विकल बिखरे है हो निरुपाय

समन्वय  उसका  करे  समस्त  विजयनी  मानवता  हो जाय

         साकेत में राष्ट्र कवि की यह विचारधारा उन प्रसंगो में भी भली-विधि प्रकट हुयी है जहाँ राज्य के सम्पूर्ण कार्य एवं दायित्व को लोक-मंगल और लोक-रंजन से जोड़ा गया है I धन और ऐश्वर्य-भोग से दूर रहकर जिस प्रकार राम जीवन को मर्यादित ढंग से जीते है, वह सादा जीवन और उच्च विचार की जीवन शैली है, जो प्रत्येक मानव के लिए अनुकरणीय है I दलित, शोषित एवं तापित-शापित का त्राण वह आदर्श है जो मनुष्य को ईश्वरत्व प्रदान करता है I साकेत में मानव प्रजाति के उन्नयन के साथ ही प्रतिष्ठा के अधिकरण पर आर्यों का महान आदर्श भी रूपायित हुआ है -  

उच्चारित  होती चले  वेद  की  वाणी,
गूँजै  गिरि-कानन- सिन्घु-पार  कल्याणी।

अम्बर  में  पावन होम-धूम  घहरावे,

वसुधा  का हरा  दुकूल  भरा  लहरावै।
तत्त्वों  का  चिन्तन  करें  स्वस्थ  हो ज्ञानी,
निर्विघ्न  ध्यान  में  निरत  रहें  सब  ध्यानी।
उस  तपस्त्याग  की  विजय-वृद्धि  हो  हम से।

    साकेत में गीता के कर्मवाद की भी प्रतिष्ठा हुयी है I  कवि नहीं चाहता कि मानव् संसार के अभ्युदय के नवीन सरोकारों से पीछा छुडाकर वन में जाये और वानप्रस्थ या सन्यास का व्रत निभाये I  नि:श्रेयस, मोक्ष या मुक्ति उसका अभिप्रेत नहीं है I साकेतकार की दृष्टि में इस संसार के अभ्युदय और विकास में ही मानव की सच्ची मुक्ति और नि:श्रेयस निहित है I समाज के सर्वांगीण उत्कर्ष में ही मोक्ष का वास है I समुन्नत राष्ट्र में ही  परम पद की प्राप्ति संभव है I विश्व-मंगल में ही ब्रह्म की प्राप्ति अन्तर्हित है I कवि की दृष्टि में सायुज्य मुक्ति वह नहीं है जैसा आर्ष ग्रंथो में वर्णित है , उसकी दृष्टि में सायुज्य वैश्विक मानवता के साथ अपने अस्तित्व को विलीन कर देना है I  इसीलिए साकेत के राम अपने अवतार के अभिप्राय को अधिकाधिक स्पष्ट  करते हुए घोषणा करते हैं –

सन्देश नहीं मैं यहाँ स्वर्ग का लाया

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया  

(मौलिक व् अप्रकाशित ) 

                                           

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