रविवार, दिनांक २२ मई २०१६ को उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में ओपन बुक्स ऑनलाइन के लखनऊ चैप्टर की चतुर्थ वार्षिकोत्सव समारोह का आयोजन हुआ, जहाँ चार सत्रीय कार्यक्रम का तीसरा सत्र लघुकथा को समर्पित रहा. लघुकथा लाइव वर्कशॉप का मंच से संचालन आदरणीय सर योगराज प्रभाकर जी ने किया, जिनके कुशल संचालन एवं गहन ज्ञान ने कार्यक्रम की ऊर्जा को पल भर के लिए भी मंद नहीं होने दिया. मंच से लघुकथाकारों ने अपनी-अपनी कथाओं का पाठ किया. आदरणीय सर द्वारा कथाओं की त्वरित समीक्षा अपने आप में अत्यंत अनूठा प्रयोग सिद्ध हुआ.
कथापाठ का आरम्भ लघुकथा लेखन के क्षेत्र में नन्ही चिंगारी, रॉबिन प्रभाकर, ने अपनी बेमिसाल कथा ‘कसाई’ से किया. साम्प्रदायिक दंगो पर आधारित यह अनूठी कथा, लघुकथा मानकों पर खरी उतरते हुए, जबर्दस्त पंच-लाइन युक्त होने कारण बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुई. कथा के स्तर और रॉबिन के आत्मविश्वास से एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि यह उनका पहला परिचय है.
दूसरी कथा, नेहा अग्रवाल जी की ‘गाँठ’, माँ-बेटी के रिश्ते पर आधारित सशक्त कथा हुई, जिसमें संक्षिप्ता के साथ-साथ लघुकथा के सभी नियमों का कुशल निर्वहन हुआ है.
तीसरी कथा आदरणीया माला झा जी की ‘काला-पानी’ रही. ये कथा बुजुर्गों के अकेलेपन की व्यथा को दर्शाती अत्यंत मार्मिक कथा हुई है. यह लघुकथा की कसौटी पर खरी तो रही ही, माला जी के मधुर स्वर ने कथा का सौंदर्य और भी बढ़ा दिया.
चौथी कथा, आदरणीय पंकज जोशी जी की ‘प्रायश्चित’, एक आतंकवादी के ह्रदय-परिवर्तन की कथा है. अपनी भाषा एवं प्रभाव के कारण कथा बहुत सुंदर हुई है.
अगली कथा, आदरणीया जानकी वाही जी की ‘फटेहाल’, एक जबर्दस्त राजनैतिक कटाक्ष है. कथ्य से लेकर शिल्प तक अपने आप में लघुकथा का उदाहरण प्रस्तुत करती, यह एक अनोखी कथा है. जानकी जी के ठहराव युक्त पाठन ने कथा में चार चाँद लगा दिए.
आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी की ‘खिलौने वाली गन’, सर से विशेष सराहना पाने वाली कथाओं में से एक है. बाल मनोविज्ञान का सजीव चित्रण होने के साथ-साथ लघुकथा विन्यास को सिद्ध करती इस कथा ने श्रोताओं की भरपूर तालियाँ भी समेटी.
आदरणीया अन्नपूर्णा बाजपेई जी की कथा ‘गन्दी नाली के कीड़े’ अत्यंत मार्मिक रही. किन्तु लिखित रूप में साथ ना रखना आनंद में बाधक रहा. आदरणीय सर ने विशेष रूप से सलाह दी कि मंच पर कथा पाठ करते समय कथा लिखित रूप में साथ अवश्य ही हो भले ही वह प्रयोग में ना आए.
आदरणीया मीना धर पाठक द्विवेदी जी की कथा ‘माँ’ ह्रदय-स्पर्शी कथा है. परन्तु थोड़ा विस्तार अधिक हो गया. आदरणीय सर ने कथा की समीक्षा करते समय विशेष तौर से इस बात पर बल दिया कि लघुकथा में अनावश्यक विस्तार का स्थान ही नहीं है, इससे कथा बोझिल हो जाती है.
आदरणीया आभा चंद्रा जी की कथा ‘कॉफ़ी का कप’ बहुत ही उम्दा कथा हुई. आभासी रिश्तों पर आधारित यह एक बहुत ही सुंदर लघुकथा है जिसका अंत भी बेहद मार्मिक है. कथानक की नवीनता के लिए आदरणीय सर से विशेष सराहना प्राप्त इस कथा के हिस्से भरपूर तालियाँ भी आईं.
आदरणीय आलोक रावत जी की कथा ‘दोहरा चरित्र’ आयोजन की अपेक्षाकृत कमज़ोर कथा रही जोकि कालखंड दोष से ग्रसित थी. आदरणीय सर ने उनके माध्यम से सभी को विषय चयन की सावधानियों एवं शिल्प पर विस्तार पूर्वक सुझाव दिए.
आदरणीय सुधीर द्विवेदी जी की कथा ‘खुजली’ शिल्प और कथ्य की दृष्टि से उत्तम कथा रही. शीर्षक भी सटीक है. घटनाक्रम तथा पात्र चित्रण की बारीकियों ने इस कथा को आदरणीय सर से विशेष स्नेह, तथा श्रोताओं से ज़ोरदार तालियाँ दिलाई.
सीमा सिंह की कथा ‘संतुलन’ स्त्री के नैसर्गिक गुण के प्रभाव की ओर ध्यानाकर्षित करने वाली कथा रही. आदरणीय सर ने विशेष रूप से विस्तृत चर्चा की. कथ्य, शिल्प एवं लघुकथा के नियमों पर पूर्ण रूपेण उत्तीर्ण इस कथा को सर का आशीष प्राप्त हुआ.
आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी कथा ‘राह का कांटा’ बहुत ही प्रवाहपूर्ण कथा रही. आदरणीय सर के ही शब्दों में, ‘कथा की रवानगी देखते ही बनती है. इस बेहद कसी हुई एवं प्रभावोत्पादक कथा की जितनी प्रशंसा की जाय कम होगी.’
आदरणीय रवि प्रभाकर जी कथा ‘टूटा तारा’ सम्वादशैली में लिखी गई है. एक मध्यम वर्गीय परिवार के मनोभावों का महीन चित्रण है. कथा में लेखक की अनुपस्थिति कथा को बहुत उच्चस्तरीय बना रही है. बिना विवरण के पात्रों के माध्यम से कही गई इस कथा में सहज प्रवाह है. शीर्षक स्वयं ही कथा को परिभाषित कर रहा है. लघुकथा के समस्त नियमों को पूरी करती कथा ने श्रोताओं से भी भरपूर सराहना पाई.
आयोजन की अंतिम कथा आदरणीय गणेश जी बागी जी की लोकप्रिय कथा ‘श्रेष्ठ कौन?’ रही. जिसको सभी स्थान पर उदाहरण के तौर हम सब ने देखा है. परन्तु बागी जी के स्वर में कथा सुनना उपस्थित सदस्यों के लिए पुरस्कार जैसा रहा.
कथापाठ के साथ-साथ ही आदरणीय सर योगराज जी ने हर कथा पर खुल कर बात की. सभी कथाएँ सराहनीय एवं मारक थीं.
कथा पाठ के तुरंत बाद ही प्रश्नोत्तरी का क्रम ऐसा आरम्भ हुआ कि देखते ही बनता था. लघुकथाकारों ने आदरणीय सर से प्रश्न किए, और उनके समीचीन उत्तर पाकर संतुष्ट भी हुए. विधा से सम्बन्धित प्रश्नों में पहला प्रश्न लघुकथा की भाषा को लेकर रहा. आदरणीय सर ने इस पर विस्तार पूर्वक उत्तर देते हुए बताया कि, ‘विवरण की भाषा टकसाली होती है, जिसमें दूसरी भाषा तथा आंचलिक भाषाओँ का प्रयोग कथा की व्यापकता को कम करता है. परन्तु पात्र की भाषा, जो सम्वाद द्वारा बाहर आती है, वह चरित्र का चित्रण करती है. अतः पात्र की भाषा चरित्रानुरूप होनी ही चाहिए.’
दूसरा प्रश्न कथा के आकार पर था जिस पर मंच से उत्तर देते हुए सर ने बताया कि, ‘कथा के आकार को लेकर कोई बंधन नही बाँधा जा सकता है. ये कथानक पर निर्भर करता है. रचनाकार को स्वविवेक से निर्णय करना होता है कि कथा में एक भी अनावश्यक शब्द ना हो और बात स्पष्ट भी हो जाये.’
शीर्षक के विषय में सर ने बताया कि शीर्षक कथा को स्पष्ट कर दे या फिर कथा स्वयं ही अपने शीर्षक को परिभाषित कर दे. अर्थात, शीर्षक ऐसा हो जिस से कथा का संकेत मिले और पाठक की रूचि बढ़े.
कथानक के चयन का प्रश्न आने पर, उत्तर से पूरा हॉल हँसी से गूंज गया. सर ने कहा कि, “उसके लिए आँख-कान खुले रखना ही लघुकथाकार का धर्म हैI”
इसके अतिरिक्त अन्य कई विषयों पर प्रश्न किए गए, कि पात्रों का नाम कितना महत्व पूर्ण है, पात्र संख्या कितनी रखनी चाहिए, सपाट कथा से क्या अभिप्राय है, आदि. सभी का उत्तर आदरणीय सर ने बड़े विस्तार पूर्वक दिया. आदरणीय सर के विनोदी स्वभाव के कारण मंच से श्रोता निरंतर जुड़े रहे. और पूरे कार्य-क्रम में हॉल से एक भी व्यक्ति बाहर नहीं गया, जो कार्य-क्रम की सफलता की बानगी आप ही देता है.