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ਮੈਂ ਜਿਸਨੂ ਟੋਲਿਆ ਥਾਂ ਥਾਂ ਤੇ ਜਾ ਕੇ ;

ਘਸਾ ਮਥੇ ਅਤੇ ਟੱਲੀਆਂ ਵਜਾ ਕੇ .

ਜਦੋਂ ਮੈਂ ਸੋਚਿਆ ਤਾਂ ਜਾਣਿਆਂ ਇਹ

ਕਿ ਮੈਂ ਤਾਂ ਸੀ ਕਿਸੇ ਔਝੜ ਹੀ ਰਾਹ ਤੇ .

ਰਤਾ ਕੁ ਚੇਤਨਾ ਨੂੰ ਸਾਣ ਲਾਇਆ ;

ਤੇ ਤੁਰਿਆ ਤੀਸਰਾ ਨੇਤਰ ਜਗਾ ਕੇ .

ਮੈਂ ਤੱਕਿਆ ਓਪਰਾ ਕੋਈ ਨਹੀਂ ਸੀ ;

ਮੈਂ ਮਿਲਿਆ ਸਭ ਨੂੰ ਹੀ ਬਾਹਵਾਂ ਫੈਲਾ ਕੇ .

ਕੋਈ 'ਬੋਦੀ ',ਕੋਈ 'ਸੁੰਨਤ ' ਨਾ 'ਅੰਮ੍ਰਿਤ '

ਰੁਕਾਵਟ ਸੀ ਨਹੀਂ ਹੁਣ ਮੇਰੀ ਰਾਹ ਤੇ

. ਦੀਪ ਜ਼ੀਰਵੀ

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Replies to This Discussion

ਪੁਚਾਈ ਰੂਹ ਨੂੰ ਠੰਡਕ ਹੈ ਡਾਢੀ   
ਗ਼ਜ਼ਲ ਪੁਰ੍ਨੂਰ ਮਹਫ਼ਿਲ ਨੂੰ ਸੁਣਾ ਕੇ

ਵਾਹ ! ਕਮਾਲ ਹੈ! ਅੱਖਰਾਂ ਦਾ ਜਾਦੂ !

ਕੋਈ 'ਬੋਦੀ ',ਕੋਈ 'ਸੁੰਨਤ ' ਨਾ 'ਅੰਮ੍ਰਿਤ '

ਰੁਕਾਵਟ ਸੀ ਨਹੀਂ ਹੁਣ ਮੇਰੀ ਰਾਹ ਤੇ........

ਦਿਲ ਨੂੰ ਧੂਹ ਪਾਉਂਦੀਆਂ ਨੇ ਇਹ ਸਤਰਾਂ !

ਬਹੁਤ ਹੀ ਵਧੀਆ ਲਿਖਤ ਨੂੰ ਸਾਂਝਾ ਕਰਨ ਲਈ ਦੀਪ ਜੀ ਸ਼ੁਕਰੀਆ।

ਕਦੇ ਸਮਾਂ ਕੱਢ ਕੇ ਹਾਇਕੁ-ਲੋਕ ਆਉਣਾ।

ਲਿੰਕ ਹੈ.............http://haikulok.blogspot.com

ਹਰਦੀਪ 

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