सौरभ पांडेयजी के " इकड़ियाँ जेबी से " पढ़ा। इसमे संकलित सभी रचनाएँ साधारण है. उतनी जितनी कि हवा, धूप या पानी हो सकते हैं। या यूँ कहें कि खेत की मेड़ या स्त्री-पुरुष संसर्ग के समय का साक्षी बिस्तर जितना साधारण हो सकते हैं । उतने ही साधारण इस संग्रह मे संकलित कविताएँ हैं। मेरे कहने का कुल मतलब यह है कि खेत की मेड़ और बिस्तर दोंनो ही सृजन के गवाह बनते हैं। हवा, धूप, पानी सृजन के लिये माहौल तैयार करते हैं। वैसे यह बात गौर करने लायक है कि सृजन साधारण होते हुए भी संसार को परिचालित करता है। और इस अर्थ मे यह असाधारण होता है। और इसी अर्थ में सौरभजी का काव्य भी असाधारण-साधारण है।
जन्म और मृत्यु सभी धर्मो मे समान रूप से लोकप्रिय विषय रहे है। प्रस्तुत काव्य संग्रह इन्हीं दो किनारों को विभिन्न प्रतीकों मे कहता है। कुछ उदाहरण पंक्ति खंड के रूप मे देखें--
ये साँझ सपाट नदी---
(पृष्ठ-१७)
यही मौन--
(पृष्ठ-१९)
और बार-बार तुम्हारे--
(पृष्ठ-२१)
धुँआ कहीं से--
(पृष्ठ-४९)
बात है वो आ--
(पृष्ठ-८८)
जीवन का आधार क्या--
(पृष्ठ-१०१)
सृष्टि सार-
(पृष्ठ-१०७)
अब काव्य गुण के कारण पाठक भिन्न अर्थ भी ग्रहण कर सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है।
कवि क भूमिका सहित इस संग्रह मे कुल तीन भूमिकाएँ हैं। एहतराम इस्लाम जी अपने भूमिका मे "यथार्थ चर्चा " नामक खंड की काव्य भाषा को जटिल और दुरूह बताते हैं, तो दूसरी तरफ योगराज प्रभाकरजी इसी खंड की भाषा को सरल करार देते हुए गेय मानते हैं। इन दोनों महानुभावों से माफी माँगते हुए मैं यह कहना चाहता हूँ कि इस खंड की भाषा उतनी ही जटिल या दुरूह है जितने कि सामवेद काल मे ॠगवेद की भाषा थी। साथ ही साथ इस खंड की कविता उतनी ही गेय है जितने गेय दुर्गासप्तशती के श्लोक होसकते है। कभी सस्वर पाठ कभी संहिता पाठ की तरह ! वाचिक तो कभी दोनों को का मिश्रण ! ॠगवेद काल समाप्त होने के बाद "निघंटु" बना जिसंमे उन शब्दों को भी मान मिला, अर्थ दिए गये, जो कि लुप्त हो गये थे या लुप्तप्राय थे। लेकिन उस समय भी किसी ने यह पलट कर नहीं पूछा कि प्राचीन ॠषियों ने इतने कठिन शब्दों का प्रयोग क्यों किया था। अगर सौरभ जी के इस संग्रह मे " ठोले" या "गब्दू" जैसे शब्द आये हैं तो पाठक-आलोचन का यह परम कर्तव्य है कि वह इन शब्दों के अर्थ का संधान करें। वैसे मेरे हिसाब से इस संग्रह की भाषा नुक्तों के प्रयोग पर जरूर फिसली है। एक भाषा दूसरी भाषा का शब्द ले यह तो जरूरी है मगर उसका उच्चारण और व्याकरण पद्धति ले यह कोई जरूरी नहीं है। अगर इस संग्रह से नुक्तायुक्त शब्दों से नुक्ता को हटा दिया जाए तो भी अर्थ और गुणवत्ता पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। यह भी ध्यान रखना होगा कि भले ही आप कागज पर नुक्ता लगा दें मगर बोलते वक्त मे जीभ नुक्ता को हटा देती है। इसीलिये मेरी समझ से नुक्तों का प्रयोग बेकार है।
इस संग्रह मे कुछ दोहे भी है और पृष्ठ ९९ पर जो दोहा है--
चंपा चढ़ी...
इस दोहे को मैं इस संग्रह का उपल्बधि मानता हूँ।
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