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सीमा अग्रवाल के गीत अपने पीछे एक ’गीति-अनुगूँज’ छोड़ते जाते हैं

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ज़रा सुन लूँ वो अनहद / बज रहा जो / मौन के स्वर में / अदृश्यों के विरल / कुछ दृश्य भर लूँ / शून्य अंतर में / ... / विमोहित सी ही रहने दो / सुनो ना चेतना मेरी / किसी संज्ञान से खट से / अभी साँकल न खटकाना / ... / तुम्हारे स्वप्न में गुम हूँ / अभी सच में न आ जाना

इन पंक्तियों में गीति-प्रतीति की अत्यंत आत्मीय संचेतना सस्वर होती है । आश्चर्य नहीं, कि भाषायी व्यवहार का आदती, हमारा मन, वाक्-प्रवाह में शामिल हो चुके शब्दों के अंतर्निहित अर्थ-भावों के उत्स की सतत खोज में लगा रहता है । कारण, कि शब्दों के भौतिक एवं स्वरीय मिथ्या-अस्मिता का भान हर सचेत मन को है । यह खोज समाप्त ही नहीं संतुष्ट भी होती है अनहद की आवृतियों से आलोड़ित होती हुई अनुभूत मौन की अनुगूँज पर ! एक ऐसी अवस्था, जहाँ जीवनान्द के प्रति बनी आश्वस्ति शब्दों की मुखापेक्षी नहीं रह जाती । एक ऐसी अवस्था, जहाँ भौतिक व्यवहार और व्यापार का आदती मन भले ही आदिम किन्तु गहन अनुभूतियों को जीने के क्रम में भौतिक उपस्थिति का आग्रही नहीं रह जाता । इन्हीं स्थितियों में तूरीय चेतना भाव-आधार पाती है, जिसका जैविक-चित्त पर आच्छादन ’गीति-प्रतीति’ का कारण होता है । अनहद-नाद की सतत आवृतियों के प्रतिफल एवं संप्रेष्य संवेदना का यथार्थ स्वरूप ही ’गीत’ के रूप में आकार पाते हैं ! गीत ऐसे ही नैसर्गिक अभिव्यक्ति का गेय रूप हैं ।

 

सीमा अग्रवाल के गीत-नवगीत संग्रह खुशबू सीली गलियों की की प्रस्तुतियों से गुजरते हुए बार-बार ऐसे वैचारिक विन्दु आलोड़ित करते हैं, जो विभिन्न मानवीय अनुभूतियों के उत्स एवं उस उत्स के नैसर्गिक कारणों को समझने-बूझने के लिए प्रेरित करते हैं । सीमा अग्रवाल का यह पहला काव्य-संग्रह है, किन्तु, कवयित्री की कलापूर्ण तार्किकता एवं काव्य-समझ किसी तौर पर किसी प्रौढ़ पाठक को किसी ’किन्तु-परन्तु’ के लिए कहीं कोई कोना नहीं छोड़ती । सीमाजी के गीत मात्र भाव और अर्थ का संप्रेषण नहीं करते, बल्कि अपने पीछे एक ’गीति-अनुगूँज’ छोड़ते जाते हैं जिसे एक सचेत पाठक लगातार महसूस करता है । यह ’गीति-अनुगूँज’ सीमाजी की प्रस्तुतियों का नैसर्गिक गुण की तरह सामने आती है । यही कारण है, कि सीमाजी की शाब्दिक हुई भावनाएँ मानवीय अनुभूतियों को सस्वर करने की उनकी क्षमता का बखान तो हैं ही, आने वाले समय में एक रचनाकार के तौर पर समाज से सार्थक संवाद बनायेंगी इसके प्रति आश्वस्ति भी हैं । इन पंक्तियों में इसकी बानग़ी देखी जा सकती है – सोच में सीलन बहुत है / सड़ रही है, / धूप तो दिखलाइये / ... / बस फ़कत उनको ही डर / बीमारियों का / जिनको माफ़िक हैं नहीं / बदली हवाएँ / बन्द हैं सब खिड़कियाँ / जिनके घरों की, / जो नहीं सुन पाये मौसम की सदाएँ / लाजिमी ही था बदलना / जीर्णगत का / लाख अब झुंझलाइये

या फिर, संवाद का वह व्यापक रूप जिसके तहत सामाजिक दायित्वबोध अपना-पराया के भेद से परे आत्मीय भावनाओं को जीता हुआ सबके कल्याण की सोचता है – मत रुकना उस घाट / जहाँ दलदल हो या / दूषित जल हो / ... / टूटी है इक टाँग समझ की / पर प्रेषित भ्रम हठयोगियों का / तार-तार हैं वसन / विचारों के, बहलावा / पर जोगी का / भटक रहा हो जो / खुद दर-दर / वो कैसे फिर संबल हो ?

 

इस परिप्रेक्ष्य में देखा जाय तो ऐसे ही संप्रेषणों से गीतों की व्यापकता को आँकने का उचित वातावरण बनता है । गीतों का उत्स जहाँ मानवीय संवेदनाओं से अभिप्राणित नितांत वैयक्तिक अनुभूतियाँ होती हैं, उनका लक्ष्य मनुष्य की संवेदनाएँ ही होती हैं । मनुष्य़ की सामुहिक सोच एवं विभिन्न मनोदशाएँ भी गीतों में ही सार्थक स्वर पा सकती हैं ।

 

ऐसा यदि सहज तथा प्रवहमान ढंग से हुआ है तो फिर न केवल ’गीत’ नये आयामों में ’नवता’ को जीते हैं, ’नवगीत’ की अवधारणा एक बार फिर से परिभाषित होती हुई-सी प्रतीत होती है । इन अर्थों में प्रश्न उठता है, कि क्या स्वानभूतियों का व्यापक होना समष्टि से बनते संवाद का इंगित नहीं होता ? या हो सकता है ? क्या हर व्यक्तिगत अनुभव व्यापकता में समूचे मानव-समुदाय का अपना अनुभव नहीं होता ? क्योंकि, वस्तुतः कोई सचेत एवं दायित्वबोध से सजग कवि अपनी व्यक्तिगत सोच में समस्त मनुष्य-जाति को ही जीता है । तभी तो व्यष्टि-समष्टि से बँधा कोई गेय-संप्रेषण वस्तुतः मानवीय चेतनानुभूति का ललित शब्द-स्वरूप हुआ करता है । विभिन्न भावों को ग्रहण कर उसकी वैयक्तिक अभिव्यक्ति मानवीय विशिष्टता है । गीतों का सम्बन्ध भले ही वैयक्तिक हृदय और उसकी अनुभूतियों से हुआ करता है, किन्तु, मानव-समाज के कार्मिक वर्ग का सामुहिक श्रमदान इन गीतों के शाब्दिक स्वरूप से ही प्रखर तथा ऊर्जावान होता रहा है । ग्रामीण परिवेश में गीत गाती स्त्रियों की सामुहिक कार्यशीलता हो या खेतों या कार्यक्षेत्र में कार्यरत पुरुषों का समवेत प्रयासरत होना हो, गीत स्वानुभूतियों को ही समष्टि की व्यापकता में जीते हैं । अर्थात, वैयक्तिक हृदय से उपजे गीतों का बहुजन-प्रेरक, बहुउद्देशीय-स्वर एवं इनकी सांसारिकता पुनः एक सिरे से परिभाषित होती है । अर्थात, सामुहिक श्रमदान के क्रम में भावजन्य, आत्मीय, सकारात्मक मानवीय संस्कार ही गीतों के सर्वमान्य होने का प्रमुख एवं व्यापक कारण हुआ करता है । सीमाजी के गीत इसी अवधारणा का शाब्दिक स्वरूप बनकर सामने आते हैं - कब मिला है वक्त पढ़ते / ग्रन्थ गीता-सार / जप रहा निस्पृह हृदय पर / कर्म का ओंकार / शब्द बिन उपदेश देते मस्त मतवाले / कलम से तिनकों की कितने / ग्रन्थ लिख डाले !

या फिर,

बात होती रहे / तुम सुनो ना सुनो / हम कहें ना कहें / बात होती रहे / ... / शब्द गर दर-ब-दर / जो हुए भी तो क्या / शब्द से हम इतर / कोई भाषा बुनें / अनगिनत हैं इशारे / बिछे हर तरफ / फूल-तितली कभी / बहता झरना चुनें / गुनगुनाती हुई आँख / हर नक़्श में अर्थ बोती रहे 

 

मानवीय मन के उल्लास या संत्रास तथा परिवर्तनजन्य स्थितियों-परिस्थितियों को गीत समान रूप से अभिव्यंजित करते रहे हैं । आमजन, विशेषकर आमस्त्रियों का जीवन, अनुभवजन्य आत्मविश्वास और निरुपाय उम्मीद के बीच चल रहे अनवरत युद्ध का पर्याय बन गया है । इस युद्ध में आत्मविश्वास और उम्मीद के मध्य सहज संतुलन का विजय हो इसे ’देखना’ किसी कवि-मन का दायित्व है – साथ हैं हम और रहेंगे / बन के इक विश्वास बोलो / रंग बिखरा दो, रंगोली से / भरे आकाश हों / प्रेम की मदिरा बहा दो / खत्म सारे ’काश’ हों / आदि से उस लक्ष्य तक की / वीथिका के वृत्त को / जोड़ता श्रम स्वेद कण का क्या / बनोगे व्यास, बोलो !

 

इस क्रम में समझना प्रासंगिक हो जाता है, कि दायित्वबोध के तहत मुखर हुई अभिव्यक्तियों तथा किसी ’समझदार’ उपदेशक के उलाहनों में कितना भारी अंतर हुआ करता है ! इसे सीमाजी की पंक्तियाँ साधिकार स्पष्ट करती हैं - लुंज-पुंज मन वाली आँखों- / की लाली से छोड़ो डरना / कोने में जो टुन्न पड़ी, उस / गठरी को मत बोलो अपना / नील पड़े तन के हाथों कब / चूल्हे की लकड़ी सौंपोगी / कमलारानी कब बदलोगी / ... / अलस भोर से थकी साँझ तक / बहे पसीने की है कीमत / हाथ तुम्हारे चमक रहा जो / वो मेहनत है नहीं है किस्मत / मेरी प्यरी बहन दुलारी / अपने हक़ को कब समझोगी / कमलारानी कब बदलोगी ?

या, प्रकृति से हो रहे खिलवाड़ में लिप्त लोगों को चेताती हुई इन पंक्तियों को समझने का प्रयास करें – पांडुलिपियाँ इति प्रसंगों की हैं / धूमिल हो रहीं संकुचित, अनुदार / मानव-कर्म के फल ढो रही हैं / चेत ! मानव, चेत ! / अब तू चेत भी जा, / उठ चुकी कुदरत की भी / उँगली है अब ! / ... / सूखते कण्ठों का हल, / खुद सूखता है / निर्झरी की आँख बस / गीली है अब !

 

वस्तुतः, गीतों में आया आधुनिकताबोध गीतों में सदियों से व्याप गये ’वही-वहीपन’ का त्याग है । इसे पारम्परिक गीतों को सामने रख कर समझा जा सकता है, जहाँ बिम्ब-प्रतीक ही नहीं कथ्य तक एक ढर्रे पर टिक गये थे । रूमानी भावनाओं या गलदश्रु अभिव्यक्तियों से गीतों को बचा ले जाना भगीरथ प्रयास की अपेक्षा करता था । इसी तरह के प्रयास के तहत अभिव्यक्तियों के बासीपन से ऊब तथा अभिव्यक्ति में स्वभावतः नवता की तलाश आधुनिक सृजनात्मकता प्रक्रिया का आधार बनी । जो कुछ परिणाम आया वह ’नवगीत’ के नाम से प्रचलित हुआ ।

 

परन्तु, आमजन को जोड़ने के क्रम में यह भी प्रतीत होने लगा है, और यह अत्यंत दुःख के साथ स्वीकारना पड़ रहा है, कि नवगीतों के माध्यम से हो रही आज की कुछ अभिव्यक्तियाँ मानकों के नाम पर अपनी ही बनायी हुई कुछ रूढ़ियों को जीने लगी हैं । जबकि गीतों में जड़ जमा चुकी ऐसी रूढियों को ही नकारते हुए ’नवगीत’ सामने आये थे । इस स्थिति से ’नवगीत’ को बचना ही होगा, आज फ़ैशन हो चले विधा-नामकरणों से खुद को बचाते हुए ! यह स्वीकारने में किसी को कदापि उज़्र न हो, कि ’नवगीत’ भी प्रमुखतः वैयक्तिक अनुभूतियों को ही स्वर देते हैं जिसकी सीमा व्यापक होती हुई आमजन की अभिव्यक्ति बन जाती है ।

 

इस संग्रह की कई रचनाएँ वैयक्तिक सोच तथा नितांत वैयक्तिकता को बचाते हुए भी आमजन की आवाज़ बन कर मुखरित हुई हैं – आओ खोजें मुश्किलों में / कुछ नयी संभावनाएँ / ... / सिर्फ़ शिकवे या शिकायत / ही तो कोई हल नहीं हैं / धुल न पायें कोशिशों से / यूँ मलिन आँचल नहीं हैं / हो घना वन चाहे कितना / रुक नहीं सकतीं हवाएँ / ... / झड़ चुके पत्तों को कबतक / देख कर रोते रहेंगे / शोक नाकामी का यूँ ही / कब तलक ढोते रहेंगे / फिर से लिख दें उन्नयन की / किसलयों पर नव-ऋचाएँ / आओ खोजें मुश्किलों में / कुछ नयी संभावनाएँ

या फिर, इन पंक्तियों को ही देखें - कनखियों से देख रहे / टूटती मर्यादाएँ / वचनों पे सिक्कों की / नाचती निष्ठुरताएँ / खोखले रिवाज़ों का / काजल अंगारों सा / आँखों में आँज-आँज / शरमाये दिन / रामकथा बाँच रहे / सकुचाये दिन 

 

सामाजिक व्यवहार शोषक और शोषित के क्लिष्टवत सम्बन्ध को उस समय से जीता रहा है, जबसे कार्य-शिष्टाचार सामाजिक व्यापार बन दैनन्दिन आवश्यकताओं की पूर्ति के अलावा मौद्रिक ’लाभ’ का भी कारण माना जाने लगा । ऐसे ही एक शोषित जीवन के प्रति सस्वर हुआ एक शब्द-दृश्य – देह बचपन में मगर मन / प्रौढ़ता ढोते हुए / आँसुओं संग जी रहे चुपचाप / होठों को सिये / इक सितारा भी नहीं / उनके लिए आकाश में / क्यों खुशी उनको / समझती है सदा अस्पृश्य ?

 

किन्तु यह भी सही है, कि किसी सचेत रचनाकार का काव्य-बोध घटित-दुर्घटित पलों को मात्र शब्दशः चित्रित करने अधिकार नहीं देता, बल्कि उससे अपेक्षा होती है कि उसकी संवेदना दुःसह्य घड़ियों में समस्त विसंगतियों एवं विद्रूपताओं के विरुद्ध आमजन के लिए समुचित समाधान को भी साझा करने के लिए सुप्रेरित हो । अन्यथा यह प्रकृति प्रदत्त दायित्व से पलायन ही होगा । ’कवि’ भारतीय समाज में अत्यंत प्रबुद्ध एवं संवेदनशील मनस धारकों के लिए प्रयुक्त की जाने वाली संज्ञा रही है । जो कुछ कवियों ने कहा वह स्थापित, शास्त्रीय तथा अकाट्य माना जाता रहा है – इति कवयो वदन्ति ! या, जो तथ्य कवियों की समझ के भी परे हो उसके लिए ’कवयोप्यत्र मोहिताः’ का भाव रखा जाता था । आजके रचनाकारों पर इस भावदशा के निर्वहन का दायित्व है । आमजन की बात करने वाला कोई रचनाकार किसी ’मंतव्य’ विशेष या विशिष्ट ’वाद’ से प्रभावित हो, तभी उसके शब्द प्रभावी होंगे या मान्य होने चाहिये, ऐसा सोचना कवि-विचार और रचनाकर्म के प्रति नकार और अवहेलना है । सीमाजी ने इस तथ्य को गहराई से समझा है – गलत दिशा क्या अलग दिशा क्या / करना ही होगा सीमांकन / लाज़िम है क़दमों का. रस्तों का, / मंज़िल का हो मूल्यांकन / पेड़ों की लटकी सूखी शाखों पर / बोलो क्या फल हो ?

आमजन की एक समाज के तौर पर हुई दुर्गति का हुआ यह मूल्यांकन कितना मुखर है ! ऐसी पंक्तियों से निस्सृत ’समझदारी’ किसी अपने की दिलासा लगती है – मोहग्रस्त बीमार / रिवाज़ों के हम / अबतक साथ चले / कथनी की कब / आँख खुली या / कब करनी के दिन बदले ?/ बदले हमतुम सोच अगर / तो लगे समुच्चय बदल गया ! 

 

निस्संदेह सीमाजी का यह पहला गीत-संग्रह उस अतिवादी सोच के मुँह पर आवश्यक तमाचा है जिसके लापरवाह स्वरों ने अपने प्रमादी उन्माद में ’गीतों के मर जाने’ की घोषणा कर दी थी । वैसे भी आज कई गीतकार उस उन्मादी उद्घोषणा का सार्थक प्रतिकार बन कर सामने आये हैं । सीमाजी उस समूह की ओजस्वी सदस्य हैं । वस्तुतः सीमाजी की प्रस्तुतियाँ किसी आत्मीय से संवाद होती हुई भी सर्वसमाही स्वरूप को जीती हैं । इसे इन पंक्तियों के माध्यम से समझना श्रेयस्कर होगा जहाँ इंगितों और व्यंजनाओं का सुन्दर प्रयोग व्यंग्य की धार को और तीक्ष्ण कर देता है – हवा महल में रहना / बातें हवा-हवाई / गड्ढों में ही हर-हर गंगे की ठलुआई / नावें काग़ज़ की और सोचें / जलयानों से होड़ की / ... / ज़ेब भले ठनठन लेकिन / परछन लाख-करोड़ की !

 

ऐसा भी नहीं कि समाज के प्रति बना दायित्वबोध कोमल पलों का साक्षी नहीं रहा है और ऐसे भाव शाब्दिक होने से रह गये हैं । जहाँ-जहाँ आत्मीय पलों का विन्यास शाब्दिक हुआ है पाठक चकित हुआ बँध जाता है – विजन घाटियों के सन्नाटों / में गूँजी कोई मीठी धुन / उगी कल्पना के उपवन में / भँवरों की रसभीनी गुनगुन / जादू की डिबिया से निकली / आभासी पल की वो खुश्बू / लिखू‘ आज या पहले जैसे कड़वे सच की घात लिखूँ ?

इसी स्वर को कुछ और आयाम देती पंक्तियों को देखें – बहुत दिनों के बाद लिये आवाज़ पुरानी / बहुत दिनों के बाद वही जानी-पहचानी / गौरैया आँगन में / आ फिर चहकी है / बहुत दिनों के बाद / हवा फिर से महकी है !

’गौरैया के चहकने’ और हवा के ’महकने’ की आवृति में आया व्यवधान किसी कोमल चित्तधारी के लिए कितने असहज पलों का कारण बना होगा ! हवा का फिर से ’महकना’ जीवन्त पलों में सकारात्मकता एवं ऊर्जस्विता के व्यापने का इंगित है ।

इसी क्रम में – सीली गलियों की / मिट्टी का सोंधापन / तन-मन से अबतक / लिपटा वो अपनापन / सुरभि अभी तक / शेष है सूखे फूलों में / कुछ भूले कुछ याद / रह गये वादों की / ... / बहुत पुराना ख़त / हाथो में है लेकिन / खुश्बू ताज़ी है / अबतक संवादों की

 

सीमाजी का पहला गीत-संग्रह अवश्य विलम्ब से आया है लेकिन आपके रचनाकर्म में आपके पाठक को काव्यावश्यक भावदशा समुचित रूप से पकी दिखती है । काव्य-शिल्प के लिए सीमाजी ने जहाँ शास्त्रीय छ्न्दों, यथा, लावणी, सार, रोला, वीर (अल्हा), सुखदा, सरसी आदि, की मात्रिकता का सहयोग लिया है, वहीं उर्दू बहरों में से ’रमल’ (फ़ाइलातुन) आपकी प्रिय बहर के तौर पर प्रयुक्त हुई है । इस गीत-संग्रह की भूमिका में ओम नीरव ने कहा भी है – अधिकांश गीतों का ताना-बाना उर्दू मापनियों (बहरों) पर आधारित है । उर्दू मापनियों पर आधारित गीतों का प्रवाह देखते ही बनता है । स्वर 2122 (फ़ाइलातुन) कवयित्री का सर्वाधिक प्रिय है जिसका सुरुचिपूर्ण उपयोग अधिकाधिक गीतों में विविधता के साथ किया गया है

 

लेकिन इसी क्रम में मेरा सानुरोध कहना है कि उच्चारण की दृष्टि से कई पंक्तियों में शब्दों का स्थान और अधिक नियत एवं संयत होना चाहिये था । अन्यथा शब्दों के मानक उच्चारण में असहजता होती है । यह एक विधाजन्य दोष है, जिसका प्रभाव पंक्तियों के प्रवाह और उसकी गेयता पर पड़ता ही है । इसी तरह, गीतों-नवगीतों में उर्दू ग़ज़लों-नज़्मों में सहज मान्य ’मात्रा-गिराने’ की परम्परा को अधिक प्रश्रय नहीं मिलना चाहिये । ऐसा इस संग्रह के गीतों में अनायास दिख जाता है, विशेषकर उन गीतों में जिनमें उर्दू बहर से उपजी गेयता प्रभावी है । यह अवश्य है कि ऐसा कारक की विभक्तियों तथा संयोजक शब्दों तक ही सीमित है । सीमाजी ने संज्ञा-विशेषण-क्रिया आदि स्थापित शब्दों को इस दोष से दूर ही रखा है । वैसे, विश्वास है, सीमाजी ने अपने अबतक इस तथ्य को समझ लिया होगा और आने वाले समय में आपकी प्रस्तुतियों से इस दोष का निवारण हो चुकेगा ।

 

गीत-नवगीत संग्रह खुशबू सीली गलियों की का प्रकाशन अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद के सौजन्य से साहित्य-सुलभ संस्करण 2015 के अंतर्गत हुआ है । अंजुमन प्रकाशन ने साहित्य-सुलभ संस्करण के अंतर्गत इकट्ठे आठ पुस्तकों का सेट प्रकाशित किया है जो मात्र रु. 160/ में उपलब्ध हैं । परन्तु, इन आठों पुस्तकों का अलग-अलग क्रय करना भी संभव है । उस स्थिति में प्रति पुस्तक मूल्य मुद्रित मूल्य के अनुसार होगा ।

 

काव्य-संग्रह : खुशबू सीली गलियों की 

गीतकार : सीमा अग्रवाल  

कलेवर : पेपरबैक

पुस्तक-मूल्य : रु. 120/

प्रकाशक : अंजुमन प्रकाशन, 942, आर्य कन्या चौराहा, मुट्ठीगंज, इलाहाबाद.

ई-मेल : anjumanprakashan@gmail.com

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सौरभ पाण्डेय

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