For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

भाषाओं के स्वरूप में कालबद्ध होता परिवर्तन कई काव्य-विधाओं के जनमने और प्रभावी होने का साक्षी रहा है । इस क्रम में स्मरण रखना आवश्यक है कि ’अप्रभंश’ या ’अवहट्ट’ भाषा आधुनिक उत्तर-मध्य भारत की लगभग सभी भाषाओं की जननी रही है । भाषायी निष्ठा के सापेक्ष अनगढ़ प्रतीत होती इस भाषा ने कई छन्द ऐसे दिये जो वैदिक भाषा-काल की पैदाइश नही थे । तो इसी भाषा-काल के दौरान कई छन्दों ने अपने प्रारूप भी बदले । कुछ मिश्र छन्दों का भी सफल प्रयोग हुआ, जिनमें प्रस्तुत हुई रचनाओं की पंक्तियों में एक से अधिक छन्द-विधाओं का समावेश हुआ । वैदिक छन्दों के अलावा देसी छन्दों का सफल प्रयोग भारतीय काव्य चेतना के लिए विशिष्ट साधन मुहैया कराता रहा है । इनकी मौज़ूदग़ी से गीति-काव्य सदा धनी हुआ है । ऐसा ही सफल प्रयोग हुआ ’पद’ विधा के तौर पर । मध्यकालीन दौर में सामंतवादी तौर-तरीका अपनी उठान पर था । साहित्य में भक्ति-भावनाओं से पगी रचनाओं का बाहुल्य प्रभावी था । यही आमजन के लिए सांत्वना थीं । रचना-अभिव्यक्ति के लिए ’पद’ शैली का मुखर प्रयोग होता था । आजभी तुलसी के पद, मीरा के पद, सूरदास के पद, रैदास के पद, नन्ददास के पद, कृष्णदास के पद आदि वर्तमान काल में गेय रचनाओं के सशक्त उदाहरण हैं । लेकिन जिस कवि ने ’पद’ विधा का उपयोग समाज की जागरुकता और चेतना को जगाने के लिए किया और सामाजिक विसंगतियों पर न केवल व्यंग्य के ताने कसे बल्कि लताड़ भी लगायी, वे कबीर थे । उनके दोहे हों या पद समाज में फैले अनगढ़पन के विरुद्ध समान रूप से निरंकुश हैं । परशुराम चतुर्वेदी ने अपने आलेख ’कबीर साहब की पदावली’ में कहा है - ’कबीर साहब के पद, उनकी रचनाओं में, कदाचित सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण हैं इन में गूढ़ से गूढ़ सिद्धान्तों का विशद विवेचन है और यह, अपने भाव-गांभीर्य एवं रहस्यमयता के कारण उनके निर्गुणगान के नाम से भी प्रचलित हैं ’ यहाँ एक बात अवश्य जानने योग्य है, कि साहित्यकर्म के तौर पर पदों का खुल कर प्रयोग नाथपंथियों ने किया था, जो अपनी अभिव्यक्तियों को उपदेशात्मक अंदाज़ में ’गाते’ थे । तात्पर्य यह है कि ’पद’ सधुक्कड़ी जीवन जीने वालों के गीत थे । सधुक्कड़ी जीवन-शैली को अपनाने वाले अधिकतर ब्राह्मणेतर जातियों से हुआ करते थे । इसी कारण, आगे भी ’पद’ अभिजात्य वर्ग का छन्द कभी नहीं था । लेकिन आम जन-मानस तथा लोक-जीवन में यह अत्यंत प्रसिद्ध था ।

 

पारम्परिक विधान के अनुसार ’पद’ मात्रिक छन्द है । जिसका विकास, माना जाता है, कि लोकगीतों की परंपरा से हुआ । पदों का कोई निश्चित विधान नहीं है । किन्तु, यह भी सही है कि पद गीति-काव्य के समर्थ वाहक रहे हैं । वस्तुतः गेय रचनाओं को ही ’पद’ कहने की परम्परा रही है । इसी कारण, पदों के साथ कोई न कोई राग निर्दिष्ट हुआ करता था । अर्थात विशेष पद को विशिष्ट राग में ही गाने की परिपाटी हुआ करती थी । जबकि ऐसा होना शास्त्र सम्मत भी रहा हो, ऐसा पद का व्यवहार सूचित नहीं करता । शैल्पिक दृष्टि से प्रत्येक पद में आयी हुई कुल पंक्तियों की संख्या कम से कम तीन और अधिक से अधिक अठारह तक होती हैं । कुल पंक्तियों के वर्णों की मात्रा बराबर हो, ऐसा आवश्यक नहीं हुआ करता था । यही कारण है कि तत्कालीन पद रचनाओं की पंक्तियों में हम बहुधा एक ही विशिष्ट छन्द नहीं पाते । पद की पंक्तियाँ में अधिकांशतः सार छन्द (१६-१२ की यति, पदान्त समकल), चौपई छन्द (१६-१५ की यति, पदान्त गुरु-लघु), चौपाई छन्द (१६-१६ की यति, चरणान्त एवं पदान्त समकल), सरसी छन्द (१६-११ की यति, पदान्त गुरु-लघु), रूपमाला छन्द (१४-१२ की यति, पदान्त गुरु-लघु), ताटंक छन्द (१६-१४ की यति, पदान्त लगातार तीन गुरु), कुकुभ (१६-१४ की यति, पदान्त लगातार दो गुरु), लावणी छन्द (१६-१४ की यति, पदान्त समकल), सवैया, या फिर एकाध मात्रिक वृत का प्रयोग हुआ करता था । कई बार, एक ही पद की पंक्तियों में दो अथवा दो से अधिक छन्द भी देखने में आते हैं । कई पदों में रोला (११-१३ की यति, पदान्त समकल), दोहा (१३-११ की यति, पदान्त गुरु-लघु) आदि छन्दों का प्रयोग भी देखने में आता है । पारम्परिक विधान या परिपाटी के अनुसार पद की पहली पंक्ति ’टेक’ हुआ करती थी, जिसे आगे की हर पंक्ति के बाद तुक मिलाते हुए गाया जाता था । ’टेक’ के शब्दों की कुल मात्रा अन्य पंक्तियों की कुल मात्राओं की अपेक्षा आधी के आस-पास हुआ करती है ।

 

छन्दों में लय या गेयता उसकी आत्मा हुआ करती है । परन्तु, काव्य-विकास के क्रम में गेयता को अभिव्यक्ति के विरुद्ध किसी बन्धन की तरह देखा जाने लगा । भले ही यह एक लचर अवधारणा थी । या, ऐसी सोच वस्तुतः असफल हो गये गीतकारों का सतत अभ्यास से मुँह चुराने के कारण थी । लेकिन इसे इतने पुरज़ोर तरीके से प्रचारित किया गया कि पद्य रचनाओं से गीत या इसके अन्य सभी प्रकार एक तरह से हाशिये पर फेंक दिये गये । इसीकारण, गेय रचनाओं की यह अभिनव विधा आगे लुप्तप्राय होने के कगार पर आ गयी । आज हालत यह है, कि गीतकारों द्वारा यह विधा नहीं के बराबर प्रयुक्त होती है । किन्तु, यह भी उतना ही सच है, कि कोई समाज परम्पराओं को नकार कर नहीं बल्कि उनकी पड़ताल कर ही अपने वर्तमान और भविष्य को साध सकता है । हमारे बीच के कवि महेन्द्र नेह ने पदों का मुग्धकारी प्रयोग किया है । उन्होंने पदों में जिस तरह से वर्तमान की विविध विसंगतियों तथा समस्याओं को पिरोया है, वह उनकी समर्थ काव्य-समझ का परिचायक है । पद विधान में वस्तुतः संवाद शैली में कथ्य को अभिव्यक्ति दी जाती है । इसीकारण पदों में कथ्य को सहज देसज एवं उदार तद्भव शब्दों के अभिधात्मक स्वरूप के साथ बाँधा जाता है । महेन्द्र नेह ने इसके भी आगे अपनी प्रस्तुतियों में लोक-मुहावरों का प्रयोग कर व्यंग्य और चुटीलेपन से काव्य-चमत्कार पैदा किया है । कवि ने इस शाब्दिक शस्त्र को लोक-भाषा और भाषा-परम्पराओं के सचेत अभ्यास से बहुत ही धारदार बना लिया है ।

 

बोधि प्रकाशन, जयपुर (राजस्थान) ने महेन्द्र नेह का पद-संग्रह 'हमें साँच ने मारा' प्रकाशित किया है । एक कवि के तौर पर महेन्द्र नेह स्वयं को कबीर का अनुयायी मानते हैं । उन्होंने अपनी जागरुक समझ का इस पद-संग्रह के माध्यम से खुल कर प्रयोग किया है । समाज से आँख में आँख मिला कर संवाद बनाना हँसी-ठट्ठा नहीं है । लचर हो चुकी परिपाटियों पर चोट करना कई बार 'आ बैल मुझे मार' की स्थिति बना देता है । क्योंकि समाज अक्सर कई अर्थों में यथास्थिति को बनाये रखना चाहता है । समाज कहीं का हो इसकी यही प्रवृति रही है । इस संग्रह की भूमिका में डॉ. जीवन सिंह कहते हैं - ’कबीर जानते थे कि परम्परा से प्रभावी ज्ञान में कितना असत्य मिला हुआ है ’ महेन्द्र नेह भी इस तथ्य को बख़ूबी समझते हैं - ’साधो, हम कबीर के चेले / हाँ में हाँ कर नहीं सके हम, सितम हजारों झेले । परम्पराओं और परिपाटियों के नाम पर कई तरह के सड़े बर्तावों का निर्वहन करता हुआ यह समाज उन कारकों पर कुछ भी सुनना नहीं चाहता जिनके कारण विसंगतियाँ समाज में पैठ बना पाती हैं । हर तरह के ग़लत को ग़लत कहने का निर्पेक्ष साहस ही किसी कवि के लिए कबीर होने का कारण बनाता है । यदि कवि पक्षधारी हो कर प्रहार करने लगे तो उसका असफल हो जाना तय है । इसीकारण कहते हैं, कि यदि इतिहास की सम्यक जानकारी न हो तो व्यंग्य की भाषा भी लचर हो जाती है । या, कवि पक्षपाती हो कर परपीड़क हो जाता है । यहाँ महेन्द्र नेह अपने पद-संग्रह में ऐसे किसी दोष से बचे दिखते हैं । उनकी भाषा और उनके इंगित स्पष्ट हैं । क्योंकि इस तरह के प्रयासों में अभिव्यंजनाओं को प्रभावी बनाने का कोई बलात् प्रयास सचेत सुधी निग़ाहों से सहज ही पकड़ में आ जाता है और उसका बनावटी दिखता है । डॉ. जीवन सिंह कहते भी हैं - ’पद का एक ख़ास संदर्भ यहाँ है, जो एक ओर व्यंग्य करने के लिए बहुत मौजूं है, (तो) दूसरी तरफ़ अपनी बंधन मुक्त मस्ती और फक्कड़पन के लिए’ 

 

कबीर के समय से आजका समाज यदि बदला हुआ दिखता है तो वह उसके भौतिक स्वरूप में हुआ परिवर्तन मात्र है । समाज की कई बदकारी सच्चाइयाँ अपने स्वरूप बदल कर और क्लिष्टतर हो गयी हैं जिन पर चोट कर उन्हें उद्घाटित करने की आज अधिक आवश्यकता है । लोकतंत्रात्मक व्यवस्था का अत्यंत विकृत स्वरूप लगातार आकार लेता जा रहा है । सत्ता से शासक जाति भले चली गयी है, लेकिन वही जातिगत प्रवृति आज शासक-वर्ग का रूप लेकर फिर से लोक के सिर पर आसीन है - जन-विरोध को पुलिस-फ़ौज के बल पर ये संहारे / इनसे मुक्ति मिलेगी कैसे आओ सोच विचारें ’ ’आओ सोच विचारें’ जैसे भाव को शाब्दिक करते पद्यांश ही कवि का अदम्य बल हैं और तमाम विसंगतियों से लड़ने की भरपूर ताक़त । चाहे तंत्र का शासक हो या व्यवस्था एवं कार्यालय का अधिकारी, मूल प्रवृति आजतक शोषक की ही हुआ करती है । तभी कवि महेन्द्र की पंक्तियाँ मुखर हो उठती हैं - सच के घर में घुसा सोच कर भागेगा अँधियारा / किन्तु यहाँ भी दिग्गज बैठे, सबने पाँव पसारा / ... / सदा गर्म रहता हमपर शासन सत्ता का पारा / फिर भी नीकी लागे हमको, कड़वे सच का कारा

 

महेन्द्र नेह की रचनाओं के शब्द ’पद विधा’ की आवश्यक भाषा के शब्दों की तरह ही बर्ताव करते हैं । देशज, तद्भव या तत्सम आदि जैसे वर्गीकरण या पचड़े में न पड़ कर कवि ने बोलचाल की भाषा में समाहित एवं प्रचलित हो चुके शब्दों का पूरी धाक के साथ प्रयोग किया है । सच बोला जब नौकरिया में, बाहर गेट निकारा / घर से जब सड़कों पर आया, कूट-कूट अधमारा या फिर,  साधो यह क्या ग्लोबल-ग्लोबल / चमक-दमक बस ऊपर दिखती, अन्दर से है खोकल / सारी जनता मूक-बधिर है, सिर्फ़ मीडिया वोकल / ... / चन्द अमीरों के कब्ज़े में कोठी, बंगले, होटल / बाकी जनता फुटपाथों पर, बाकी जनता लोकल

 

ऐसे शब्दों का इस तरह से हुए प्रयोग का विशेष अर्थ है । ’पदों’ में अभिजात्य मनस के भाव शाब्दिक नहीं होते । अपितु, आमजन की त्रासदियों और सांत्वनाओं को अभिव्यक्त करती भाषा शब्दों के विचार से सर्वसमाही हुआ करती हैं । तभी पद के कवियों की भाषा मानवीय भावनाओं को उसकी नैसर्गिकता के साथ अभिव्यक्त कर पाती है । कवि महेन्द्र नेह की भाषा पद-संग्रह की प्रस्तुतियों में तेज़ कतरनी की व्यवहार करती दिखती है, जो व्यवहार, बर्ताव और व्यवस्था के सियाह कोने को देख कर और प्रखर हो उठती है । भाषा में जो भदेस खुरदुरापन है वह उस तबके की भाषा का खुरदुरापन है, जो जीवन को पढ़ाई के नाम पर रट्टा मार कर नहीं, अनुभवों से पगकर तौलने का हामी है । पद-विधा का स्वर ऐसे ही शब्दों के माध्यम से सीधा संवाद बनाता है । कवि के शब्दों से भावों की आत्मीयता और अभावों की तिलमिलाहट संप्रेषित होती है । यहाँ शाब्दिक पाण्डित्य वस्तुतः उथला प्रदर्शन ही होगा । कवि विड़ंबनाओं और विसंगतियों के लिए किसी ख़ास वर्ग या समूह को दोषी नहीं मानता । लेकिन वह छोड़ता भी किसी को नहीं ।

पद-संग्रह की पहली प्रस्तुति ही मथुरावासियों पर कटाक्ष करती है ! ज्ञातव्य है, महेन्द्र नेह का पैतृक निवास मथुरा ही है - साधो, श्यामघाट के वासी / ... / माँ यमुना को किया प्रदूषित, निर्मल जल को बासी /  इतने पर भी अविकल-उज्ज्वल, कौन हमारी माँ सी ?  ऐसा भी नहीं कि, पद-संग्रह का कथ्य मात्र उपालम्भ और शिकायती हो कर रह गया है । ऐसा कोई आचरण किसी को सार्थक कवि बनाता भी नहीं । समाज की विसंगतियों पर उँगली उठाने वालों की बात समाज तभी सुनता है, जब उसके आचरण और व्यवहार में समदर्शिता हो, मानव कल्याण के लिए आश्वस्तिकारी करुणा हो । कबीर के कहे की नकल करने में और कबीर की प्रवृति को जीने में यही सबसे महत्वपूर्ण अन्तर है । यदि कवि साहित्य के कैनवास पर आश्वस्ति और समाधान के स्वर तानता न दिखे तो समाज के लिए वह कभी प्रासंगिक नहीं हो सकता । इस पद-संग्रह का कवि अपने दायित्व के प्रति न केवल सचेत है बल्कि प्रभावी भी है । कवि की उदारता समस्याओं के समाधान सुझाती है - साधो, आग लगी बस्ती में / आग बुझाने वाले लेकिन ग़ैरों की कश्ती में / ... / आग बुझाने के साधन सब, स्वयं जुटाने होंगे / एक-दूसरे की खातिर निज स्वार्थ लुटाने होंगे / नहीं लगी है आग स्वयं यह सत्य बूझना होगा / किसने आग लगाई इसका मर्म ढूँढना होगा / आग बुझा कर ही सो जायें, काम अधूरा होगा / बस्ती नयी बसायेंगे, व्रत तब ही पूरा होगा

इन पंक्तियों में कवि ने आपसी वैमनस्य के प्रतिकार की बात की है और तार्किक समाधान प्रस्तुत किये हैं ।

वस्तुतः समाज कोई हो, किसी साहित्यकार से व्यापक हो गयी लाचारी और दुर्दशा पर रोना-धोना की चाहना नहीं करता । बल्कि, बेहतरी के लिए उपाय की अपेक्षा करता है ।

 

इन पदों के कवि का लक्ष्य ’पद श्रोताओं’ की परम्परा के अनुसार समाज का वह तबका है जो प्रगति के दौर में स्वयं को हाशिये पर पाता है । मजदूर और कामग़ार वर्ग की दशा पर लिखने वालों की कभी कमी नहीं रही है । लेकिन सस्वर पाठ करते हुए इस तबके से तारतम्य बैठा लेने वालों का जैसा टोंटा ही पड़ गया है । यह किसी संवेदनशील मनस को उद्वेलित कर देता है । पिछले चार-साढ़े चार दशकों में कविता हृदय-प्रसूता न रहकर बुद्धि-विलास की चीज़ हो गयी है । कामग़ारों, कृषकों, मज़दूरों की बात करती हुई कविता उन् के समाज से दूर जा बैठी है या बैठा दी गयी है । इसका ख़ामियाजा समाज के इसी वर्ग को उठाना पड़ा है । इस वर्ग का स्वर अवरुद्ध हो गया है । अपनी धमनियों में गीति-काव्य को बहता हुआ महसूस करने वाले वर्ग को आजकी कविताओं ने गूंगा बना दिया गया है । महेन्द्र नेह ने अपने पदों के माध्यम से स्वर-प्रवाह की गंगा बहायी है जो सैद्धांतिक सुख-दुख के ही नहीं, भोगे हुए यथार्थ के पहलुओं को भी साझा करती है । बानग़ी के तौर पर - साधो, हम मंडी मजदूर / हम रहते श्रम से, वे कहते दारू में हैं चूर / ... / शिक्षा देते पण्डित-काज़ी त्याग करो भरपूर’ / कहते अगले जनम मिलेंगी तुम्हें स्वर्ग में हूर !  या,  साधो, मनवा हुआ लुहार / भट्टी में भभका दावानल सुर्ख़ हुए अंगार / दमका लौह, खिला हो जैसे जंगल में कचनार / ... / हम हैं गति के आराधक हम उन्नति के आधार / हम से चाँद-सितारे हम से बादल राग मल्हार / कालकूट विष पीकर हमने मरण वरा सौ बार / मृत्य्ंजय हम, हमसे जीवित यह गतिमय संसार

दलितों और पीड़ितों के जिये की भाषा में वह प्रांजल कसावट कहाँ जो शास्त्रीय ढ़ंग से गढ़े हुए साहित्य में हुआ करती है ? कवि जब शोषितों के भोगे हुए को अभिव्यक्त करता है तो उसकी ज़ुबान की शालीनता तनिक बहक जाती है - साधो, हम समाज के कचरे / थूका, हगा जिन्होंने हम पर उनके ही पग पसरे / मैला साफ करें दुनिया का धँस कीचड़ में गहरे / फिर भी गाली पड़े हज़ारों नीच जात हम ठहरे / ... / नकली लोकतंत्र के भी हम देख चुके अपरस रे / नहीं सहेंगे कुटिल नीति ये जाति धर्म के पहरे

 

आज आमजन की विवशता का रोना मानो फैशन हो गया है । लेकिन आमजन की दशा के प्रति असंवेदनशीलता कितनी दुखदायी है, इसे इन पंक्तियों के माध्यम से समझना उचित होगा - साधो, सुरसा सी महँगाई / गुमसुम से बैठे हैं घर में चूल्हे, तवा, कढ़ाई / ... / रात-दिना हम खटते फिर भी घर से भूख जाई / आम-आदमी कह कर हँसते हम पर लोग-लुगाई / ... / इसका मर्म समझना होगा क्यों है इतनी खाई / क्यों है मनुज-मनुज में अंतर क्यों किस्मत हरजाई

 

कवि की नज़र मज़दूर-किसान के बीच आज आम हो चले दर्दनाक व्यवहार पर भी बराबर पड़ती है । वह चीत्कार कर उठता है - रे साधो, आत्मघात मत करना / चाहे एक जनम के अन्दर सौ-सौ बिरियाँ मरना / छनना, बिनना, कुटना, पिसना, सुर्ख़ अगति में तपना । कवि यहीं नहीं रुकता, बल्कि, आगे की पंक्तियों में कवि की भाषा नेताओं के खोखले दिलासों पर खिल्लियाँ उड़ाता है - कितना भी जल्लाद समय हो, निश्चित इसे बदलना / भागो मत दुनिया को बदलो’, राहुल जी का कहना । साहित्य में ऐसे उदाहरण पहले से मौज़ूद हैं, जहाँ व्यक्तिवाची संज्ञाओं का प्रयोग अभिव्यक्तियों का हिस्सा रही हैं । वस्तुतः ऐसे प्रयोग रचनाओं की सपाटबयानी नहीं, बल्कि आम-जीवन को प्रभावित करने वाले कारकों के बकवाद के विरुद्ध रचनात्मक प्रतिकार को दर्शाते हैं ।

 

नैतिकता में आया व्यापक ह्रास किसी संवेदनशील कवि के लिए उसकी राह को और कठिन कर रहा है । सचेत कवि को बाहर से अधिक अन्दर, यानी, घर के भीतर, बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ रही है । आमजन किस पर विश्वास करे ? ग्रामीण देश का जन आध्यात्म को समझता हुआ भी कर्मकाण्डों से आबद्ध है । समस्याओं की जड़ में आजके ढोंगी बाबाओं को पा कर वह अधिक विमूढ़ है । कवि का स्वर सचेत करता हुआ गा उठता है - साधो, ये कैसे बाबा / ... / परब्रह्म होने का खुद ही करते हैं दाबा / कुर्सी पाने को सत्ता पर बोल रहे हैं धाबा छापे तिलक लगाय कपट-मुनि दिन भर गरियाबा / ठग की माया दुनिया समझे फिर भी फँस जाबा !

 

महेन्द्र नेह के इस पद-संग्रह की विशेषता कही जाय तो कवि की उद्घोषणा में अदम्य साहस तथा उसकी पंक्तियों में पगी हुई सकारात्मकता ही होगी । कवि विसंगतिओं को गिनाता हुआ भी किसी तौर पर न तो विचलित होता है, न पाठक-श्रोताओं को कही हताश होने देता है । जबकि वह जितना आमजन की कठिनाइयों को साझा करता है, उतना ही वैश्विक घटनाओं पर मठाधीशी खेल रहे राष्ट्रों की चाल पर लानत भेजता है - रोना-धोना छोड़ गीत नव-संघर्षों के गाओ / नया अलाव जलाओ मिलकर मौसम को गरमाओ !

 

आजके दौर में विस्मरण की सीमा पर पड़ी पद्य विधा ’पद’ में रचित प्रस्तुतियाँ सुखद आश्चर्य हैं । कवि महेन्द्र नेह का कार्य साहित्यिक तो है ही, उससे आगे यह एक साहसिक सामाजिक प्रयास है, जहाँ दलित और कामग़ार समाज अपना स्वर वापस पाता हुआ महसूस कर सकता है । साहित्य में कभी गीति-काव्य का अन्यतम हिस्सा रही इस आमजन की विधा को पूरे दमखम के साथ पाठकों के सामने लाने के लिए कवि महेन्द्र नेह भूरि-भूरि प्रशंसा के पात्र तो हैं ही, कविकर्म में रत अभ्यासियों के लिए अनुकरणीय भी हैं ।

*******************************************

संग्रह : हमें साँच ने मारा

कवि : महेन्द्र नेह

पता : ८०, प्रताप नगर, दादाबाड़ी, कोटा (राजस्थान)

संपर्क संख्या : ९३१४४ १६४४४

-मेल : mahendraneh@gmail.com

संस्करण : पेपरबैक

मूल्य : रु. ५० / (पचास रुपये)

प्रकाशन : बोधि प्रकाशन, एफ़-७७, सेक्टर-९, रोड नं-११, करतारपुरा इण्डस्ट्रीयल एरिया, बाईस गोदाम, जयपुर-३०२००६

सम्पर्क : ९८२९०१८०८७

-मेल : bodhiprakashan@gmail.com

*****************************

-- सौरभ पाण्डेय

Views: 650

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"आदरणीय सौरभ भाई , दिल  से से कही ग़ज़ल को आपने उतनी ही गहराई से समझ कर और अपना कर मेरी मेनहत सफल…"
6 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय सौरभ भाई , गज़ाल पर उपस्थित हो उत्साह वर्धन करने के लिए आपका ह्रदय से आभार | दो शेरों का आपको…"
6 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post तरही ग़ज़ल - गिरिराज भंडारी
"इस प्रस्तुति के अश’आर हमने बार-बार देखे और पढ़े. जो वाकई इस वक्त सोच के करीब लगे उन्हें रख रह…"
9 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on गिरिराज भंडारी's blog post ग़ज़ल -मुझे दूसरी का पता नहीं ( गिरिराज भंडारी )
"आदरणीय गिरिराज भाईजी, बहरे कामिल पर कोई कोशिश कठिन होती है. आपने जो कोशिश की है वह वस्तुतः श्लाघनीय…"
10 hours ago
Aazi Tamaam replied to Ajay Tiwari's discussion मिर्ज़ा ग़ालिब द्वारा इस्तेमाल की गईं बह्रें और उनके उदहारण in the group ग़ज़ल की कक्षा
"बेहद खूबसूरत जानकारी साझा करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया आदरणीय ग़ालिब साहब का लेखन मुझे बहुत पसंद…"
22 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-177

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
yesterday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post पूनम की रात (दोहा गज़ल )
"धरा चाँद गल मिल रहे, करते मन की बात।   ........   धरा चाँद जो मिल रहे, करते मन…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post कुंडलिया
"आम तौर पर भाषाओं में शब्दों का आदान-प्रदान एक सतत चलने वाली प्रक्रिया है। कुण्डलिया छंद में…"
Monday

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post अस्थिपिंजर (लघुकविता)
"जिन स्वार्थी, निरंकुश, हिंस्र पलों का यह कविता विवेचना करती है, वे पल नैराश्य के निम्नतम स्तर पर…"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"आदरणीय  उस्मानी जी डायरी शैली में परिंदों से जुड़े कुछ रोचक अनुभव आपने शाब्दिक किये…"
Jul 31
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"सीख (लघुकथा): 25 जुलाई, 2025 आज फ़िर कबूतरों के जोड़ों ने मेरा दिल दुखाया। मेरा ही नहीं, उन…"
Jul 30
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-124 (प्रतिशोध)
"स्वागतम"
Jul 30

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service