युवा कवि अरविन्द की कई कविताओं से गुजरने का संयोग बना है। ऐसे किसी संयोग का बनना मेरे जैसों के लिए सौभाग्य है। आजके कवियों की अंतर्दशा और व्यवहार-दशा दोनों को निकट से बूझने की एक माक़ूल गुंजाइश बनती है। साथ ही, ग़ुज़रते दौर पर एक दृष्टि भी बनी रहती है। ’हर नया लिखने वाला अपने दौर की पैदाइश होता है’, यह स्वीकृति जितनी आम और जितनी सहज प्रतीत होती है, व्यवहार के धरातल पर यह उतनी ही क्लिष्ट है। क्योंकि, एक ही दौर में समानान्तर जीते हुए सापेक्षतः पहले की पीढ़ी के अग्रज उस ढंग से नहीं सोचते या तदनुरूप बर्ताव नहीं करते हैं, जिस तरह से उसी दौर का अनुज बर्ताव करता हुआ जीता है। यानी, दोनों एक ही ’विचार’ को एक ही ढंग से नहीं जीते। ’अर्जित अनुभव’ की ओट देता हुआ कोई विश्लेषक ऐसे अंतर को चाहे जो नाम दे, यह अवश्य है कि अभिव्यक्ति के क्रम में सापेक्ष चेतना अवश्य बदल जाती है। लेकिन साथ ही यह भी सही है, कि यदि वैचारिकता को सांस्कारिक करने में किसी मत विशेष का शातिरपना न हो, तदनुरूप उद्भावों का कृत्रिम महिमा-मण्डन न हो, तो मूल अनुभूतियाँ, व्यापक हो रही समझ और इस समझ के उत्स से निस्सृत अभिव्यक्तियाँ, भले ही शाब्दिक तौर पर भिन्न दिखें, उनका आदिम स्वरूप बदस्तूर बना रहता है। वर्ना, भावाभिव्यक्ति की यही नैसर्गिकता तथाकथित सांस्कारिक प्रक्रियाओं के कई-एक चरणबद्ध प्रयास के कारण ’छुआ गयी’ प्रतीत होती है। वस्तुतः, यह मानवीय सोच का नैसर्गिक स्वरूप ही है, जिसके कारण कवि अपने भावों को शाब्दिक करते हैं। परन्तु, ’छुआ गये’ कवियों का पक्ष उनकी सोच के सापेक्ष वही नहीं रह जाता, जिन कवियों में एक समय भावनाओ का असीम आकाश दिखा करता था। अलबत्ता, सांस्कारिकता की चरणबद्ध प्रक्रिया के दौरान यदि कवि समय-समय पर ठहरता हुआ अपने विवेक और अपनी प्रवृति का उपयोग करता रहे, अपनी सोच-प्रक्रिया की अनवरत सच्ची विवेचना करता रहे, तो उसके कविकर्म की प्रासंगिकता सर्वस्वीकृति और सर्वसमाहिता के साथ दीर्घकाल तक बनी रहती है। और, सम्पूर्ण समाज लाभान्वित होता रहता है। फिर, स्वयं उस कवि के लिए भी उसके ’सांस्कारिक होने’ और ’छुआ जाने’ के बीच का अंतर स्पष्ट रहा करता है। इस अंतर को समझने में बनी स्पष्टता कवि के निरंतर सचेत रहने की दशा भी सूचित करती है। और, यह अंतर ही बताता है, कि कोई कवि आमजन के उत्थान की बात करता हुआ लगातार उभरता जा रहा है, या, निरा ’मताग्रही’ बना वैचारिक रूप से लसरता हुआ अपने समाज में ही उसकी टोटैलिटी के हिसाब से लगातार अप्रासंगिक होता चला जा रहा है।
कवि अरविन्द की कविताओं से ग़ुज़रते हुए ’सांस्कारिक होने’ और ’छुआ जाने’ का द्वंद्व बार-बार महसूस होता है। किन्तु, यह आश्वस्ति भी लगातार प्रगाढ़ होती जाती है, कि कवि द्वारा आमजन की भावनाओं को संप्रेषित करने के परिप्रेक्ष्य में विजयी हो कर उभरते जाने की कोशिश बलवती हो रही है। कवि का यही संघर्ष समाज केलिए उसकी टोटैलिटी के हिसाब से अत्यंत ज़रूरी है।
किसी समाज में सभ्यता और शिष्टाचार यदि छद्म जीवन का पर्याय हो जायँ, तो एक समय बाद आम जन का संवेदनशील मन ही सबसे अधिक चीत्कार कर उठता है। इस संदर्भ में कवि अरविन्द को ही कहता हुआ सुनें - मैं ठीक हूँ / यह वाक्य / औपचारिक गति से अब भारहीन हो चुका है / कितनी बार बोला है ! / हर रोज बोलता हूँ ! / सबसे बोलता हूँ ! / मैं ठीक हूँ ! / यह वाक्य अब भरोसा भी नहीं देता है / एक झूठ ही लगता है / इतना अतिक्रमण कर चुका है यह वाक्य कि / कभी-कभी मैं कहना चाहता हूँ / मैं नहीं ठीक हूँ / पर नहीं कह पाता ! कवि का ऐसा कोई उद्गार न तो वैयक्तिक जीवंतता का परिचायक है, न ही स्वस्थ समाज के पारस्परिक व्यवहार का सूचक ! लेकिन सभ्यता और विकास की अंधी दौड़ में आपादमस्तक संलिप्तता आमजन से उसकी उदार संवादप्रियता ही छीन लेती है, उसे एकाकी जीवन की भयावहता स्वप्नजीवी भी बना देती है। फिर तो छटपटाता हुआ उसका मन अनायास ही अपने होने की वास्तविक दशा ढूँढने लगता है। अपनी अमर्त्य जीजिविषा के कारण उसे बेहतरी की उम्मीद तो बँधी रहती है, लेकिन इस जगत की शुष्क नियमावलियों, और तदनरूप, क़ानून से नहीं, बल्कि इनसे परे किसी वायव्य संसार में, उसकी उदार व्यवस्था से ! वहाँ उस वायवीय दुनिया में उसे अपनी प्रवृति सबल होती तो दिखती ही है, अपनी मूल प्रकृति भी अनायास रूपायित हुई दीखती है। हालाँकि उसे छले जाने का दुःख तो वहाँ भी होता है, लेकिन अपने को आगे से बचा ले जाने का प्रयास आश्वस्त भी करता है - ये धूप जो दूध ले के जा रही है / नर्म धान के गाल में धारेगी / ये धूप जो नरम हो रही है जैसे चाँद से मिल आई हो / ये धूप जो बस धान के लिए ही आई हो जैसे / ये धूप मन में फुर्सत तन में आलस जन्म दे रही / हरे धान को पका देगी कि चुपके से / हवा को नम रखेगी किसी शर्त से नही / पराग और तितलियों की वजह से / कि धान के जादू से नही बचेगा आदमी / जा रही दोपहर को यदि वह धानों में जाएगा / तो धान के धूप में वह नहायेगा / नही लौटेगा / लौटेगा भी तो शाम को जब मन को बालियों में रखकर तो रात को किसी करवट वह भींग जाएगा ओस से / लगेगा जैसे दिन में भींग गया वह धूप के दूध से !
कवि का यही ’धूप के दूध से भीग जाना’ उसकी अदम्य जीजिविषा का परिचायक है।
प्रकृष्ट वैचारिकता ही जीवन के सर्वमान्य और स्थापित मूल्यों को परख पाती है। और तभी आमजन की वास्तविक आवाज़ बन पाती है। इसी कारण, प्रयास यह हो कि प्रस्तुतीकरण न तो नकारात्मक हो न ही प्रतिक्रियावादी। बल्कि वह समभाव और समुच्चय पोषण का ऐसा साक्ष्य प्रस्तुत करे जो किसी रचनाकार को उसके दायित्व-निर्वहन हेतु सकारात्मक रूप से उत्प्रेरित करे। और, उद्येश्यपूर्ण प्रस्तुतीकरण हेतु शिल्प में आवश्यक गठन और परिष्कार भी लाये। प्रसन्नता होती है, जब अरविन्द द्वारा यह कहते हुए सुनने को मिलता है - हत्या और मृत्यु में फर्क था / मृत्यु एक सम्मानजनक प्रश्न थी / मृत्यु हत्यारी नहीं थी / दुनिया की हर हत्याएं नियोजित थीं / जैसे गोधरा की बोगियाँ / झज्जर की झोपड़ियाँ / सन 84 के सिखों की दुनिया / ... / मृत्यु शोक का विषय नहीं थी / विलाप मृत्यु का धरम नहीं था ।
रचनाकर्म भावाभिव्यक्ति का ऐसा साधन है, जो अनुभूतियों के ऐसे-ऐसे रंग सामने लाता है जो रचनाकारों की व्यक्तिवाची संज्ञा की सीमाओं से निकल कर समूची मानव जाति ही नहीं, समूची प्रकृति और उसके समस्त अवयवों को निरुपित करते हुए होते हैं। कार्य-सम्पादन के इन विन्दुओं पर रचनाकर्म का ढंग भाव प्रस्तुतीकरण के संदर्भ में मात्र शब्द-विलासी न हो कर शब्दों के माध्यम से प्रकृति और उसके स्व के अन्वेषण का अहम हिस्सा हो जाता है। अर्थात, अनायास सा दिखता हुआ वह कर्म अपनी उन्नत रचनाधर्मिता के कारण कर्मयोग हो जाता है, जिसका वास्तविक उद्येश्य भावनाओं के सामान्य स्तर को शाब्दिक रूप से प्रस्तुत करने के क्रम में जागरुक एवं आदर्श व्यवस्था अर्थात मूल्य आधारित समाज की स्थापना होता है - बारिश होती है / तो बारिश की पूरी दुनिया घूमने का मन करता है / जहाँ से बारिश शुरू होती है से आरम्भ कर / वहाँ तक जहाँ बारिश खत्म होती है। / कभी तो लगता है भीगते हुए घूमते हुए पूरा जीवन काट दिया जाय / जैसे कोई पेड सारी उम्र भीगता रहता है / और कितना खुश दिखता है !
स्थापित विन्दुओं और मान्यताओं के वशीभूत कर्मरत होने की दशा सामान्य कार्मिक दशा से बहुत अलग है । सार्थक प्रस्तुतीकरण हेतु सामान्य सोच को भी संश्लेषित होना ही होता है। ऐसी संश्लेषण प्रक्रिया किसी रचनाकार को आमजन की भावनाओं से जुड़ने का वातावरण बनाती है। ऐसा ही प्रयास साहित्य का वास्तविक स्वरूप निर्धारित करता है, जहाँ रचनाकर्म का सैद्धांतिक पक्ष उसके व्यावहारिक पक्ष को संतुष्ट करने का आग्रही हो जाय - रात के सन्नाटे में वहां रुकता है / एक रिक्शा वाला, अपने खुरदुरों दुखों के ताप से / जलाता है अपने हिस्से की चिंगारी / अभी तुरंत मर गए एक आदमी की / शिनाख्त के लिए वह जलता है पूरी ताकत से / एक बिना आसमान की स्त्री / रात की बेगारी के बाद / गिरती है वहां अपने नुचे पंखो के साथ / और ठीक करने लगती है आईने में अपना वजूद।
किसी सचेत युवा कवि का संवेदनशील अध्ययन उसकी उम्र की ऊर्जस्विता को तात्कालिक प्रासंगिक शब्दों से लगातार समृद्ध करता रहता है। यह हर दौर और हर युग की स्वनियंत्रित प्रक्रिया है। ऐसे में कोई लगनशील शब्द-समर्थ कवि सटीक और सकर्मक शब्दों का सार्थक संप्रेषण करता हुआ, अपनी अभिव्यक्तियों से अपने समाज की उद्विग्नता को संपूर्णता में स्वर नहीं देता तो, अवश्य माना जाना चाहिए, कि ऐसी कोई अभिव्यक्ति अपने दौर के प्रतिनिधित्व के दायित्वबोध से पगी नहीं है। बल्कि, उसकी क्षमता किसी गुट या वर्ग के थोथे ’मत’, विसंगतियों भरे ’वाद’ या उनके आग्रही ’प्रदर्शन’ की चकाचौंध से मुग्ध हुई, आत्मीय भाव-संप्रेषणों से रहित कत्तई आशान्विति का कारण नहीं होगी। दूसरी तरफ़, नये कवि की अभिव्यति के उद्वेग की पराकाष्ठा अनुभूतियों को शाब्दिक करने के क्रम में जिस वेग से सक्रिय होती है, यदि सदिश न की गयी तो वह एक बारग़ी सबकुछ’ साझा कर देने के उत्साह में वाक्-मोह का शिकार हो जाती है। लेकिन ऐसा कुछ होना प्रभावी गुट या वर्ग की प्रबुद्धता और उसकी गंभीर वैचारिक क्षमता का पराभव अधिक माना जाना चाहिए, बनिस्पत, नये शब्दजीवियो की अनुभवहीनता के कारण अभिव्यक्तियों के अनायास बहकते जाने के ! क्योंकि उस गुट या उस वर्ग का साहित्य चाहे जो कुछ कहने और बरतने को अभिप्रेरित करता हो, अभिव्यक्ति हेतु सक्षम हुए शब्दजीवियों को समस्त मानवीय इकाई की अनुभूतियों को शाब्दिक करना शायद ही सिखाता है। या, वास्तविक और यथार्थ-वादी भावाभिव्यक्ति के नाम पर एक यूटोपियन माहौल की मृगमरीचिका तारी कर उसके पीछे हाँफना सिखा देता है। या फिर, समाज को देखने का नज़रिया ही बदल देता है। दोनों सूरतों में हानि समाज की ही होती है। कोई समाज चाहे जैसा हो, किसी वर्ग या गुट की ’अवधारणाओं’ के रुपहले स्वप्नों से परे स्वयं को कोंसता ही रहता है। कारण, कि ’अवधारणा’ कोई हो, यदि उससे अर्जित उपलब्धियाँ आमजन के जीने के ढंग में आश्वस्ति का कारण न हो पायें, उसकी जीवन-शैली की समानुपाती न हों, तो उस ’अवधारणा’ का दीर्घजीवी होना असंभव है। यही कारण है, कि वैचारिकी में सर्वसमाहिता और व्यापकता की अनवरत उद्घोषणा करते रहने के बावज़ूद कोई मत सम्पूर्णता में लम्बे समय तक कभी प्रभावी नहीं हो पाता। इसके बावज़ूद कोई सभ्यता तमाम विसंगतियों के अपनी सोच के साथ जीवित बनी रहती है, तो उसका दम प्रभावित ही नहीं करता, सकारात्मक रूप से प्रेषण हेतु प्रेरित भी करता रहता है। दुःख, समस्या, एकाकी पीड़ा, टूटन, विसंगतिताँ, विद्रूपता, आदि को समझने के लिए संवेदनशील हृदय और तार्किक मनस चाहिए होता है, न कि किसी ’वाद’ या ’मत’ का प्रिज़्म, जो सफ़ेद रंग की सर्वसमाहिता को ’विबग्योर’ या ’बैनीआहपीनाला’ के डिस्क्रिमिनेशन के आधार पर तार-तार कर रख दे ! ऐसा कोई प्रिज़्मीय विघटन समाज के लिए जितना छले जाने की स्थितियाँ पैदा करता है, उससे अधिक भयावह स्थिति वह कवि के लिए पैदा करता है। किसी कवि का एकांगी सोच वाला होना कवि के समाज की ही हानि है। कवि अरविन्द से ऐसे किसी लुभावने ’साहित्यिक ट्रैप’ से बचे रहने की अपेक्षा वर्तमान साहित्य-जगत को अवश्य है। वहीं, कवि अरविन्द अपनी प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से आशान्वित भी करते हैं - दुनिया में इतने प्रिय कवि है / मै सबको कहाँ जानता हूँ ! / जो नहीं लिखी गयी है कवितायेँ / मै उनसे भी प्रेम करता हूँ दुनिया में / एक कवि के पास ढेर सारे दुख है / जब लिखने से पहले ही रोने लगा हो कवि / और एक कविता / नहीं कविता रह जाये। / ... / बहुत सारी नहीं कवितायेँ भी है / जो होती दुनिया की सुन्दर कवितायेँ / उन्हें कोई नहीं जानता / मै उनसे भी प्रेम करता हूँ ।
या फिर, इन पंक्तियों के माध्यम से अरविन्द ने निर्पेक्ष स्वीकार्यता की समरस धारा बहायी है - मुझे हमेशा से लगा कि वे नाराज हैं तो वे खुश होंगे / एक दिन सब कुछ ठीक होगा / मुझे हमेशा से लगता रहा कि / जितने भी आदमी हैं सब मेरे घर के हैं / और हम बिछड़ गये हैं। / हम एक दूसरे को नही पहचान रहे हैं। / ... / एक कवि होने के बाद भी बहलफ़ कहता हूँ / जैसे मैं अभी प्रेम शब्द के अर्थ को नही समझ सका हूँ / जीवन को नही समझ सका हूँ / जबकि इन शब्दों पर मुझे गुमान है / कि ये एक दिन दुनिया बचा लेने भर अर्थों से भरे हैं।
*****************************************
-- सौरभ पाण्डेय
Tags:
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |