कृति : मन हुआ पलाश
लेखिका : रश्मि शर्मा
विधा : काव्य
मूल्य : 320 रुपये
प्रकाशक : अयन प्रकाशन , नई दिल्ली
मन के पलाश की तलाश
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अपने नव प्रकाशित संग्रह ‘मन हुआ पलाश’ में कवयित्री रश्मि शर्मा अपनी कविताओं में स्त्री की अस्मिता एवं संघर्ष को शब्द देने के लिए प्रकृति की एक सार्वभौम प्रवक्ता के रूप में दिखाई पड़ती हैं। यही कारण है कि रश्मि शर्मा के काव्य संसार में रेत के बवंडर से लेकर समुद्र की ख़ामोशी तक खेत खलिहान ,पाख -पखेरू , तीज त्यौहार , सावन, बादल , अकाल , बाढ़ इत्यादि उपमानों का प्रवेश शब्दों के सशक्त हथियारों के रूप में होता हुआ परिलक्षित होता है। कवयित्री ने अपने अंतर्मन की अभिव्यक्ति के लिए लीक से हटकर व अपेक्षाकृत कम चर्चित बिम्बों की औचक संरचना बहुत ही ख़ूबसूरती से की है. बानगी देखिये ‘मैन्ग्रोव , तुम में है वो शक्ति / पुनर्जीवन की / मेरी जड़ें भी उखड़ी हैं /मुझे रोप दो / इसी समन्दर वाली नदी के तट पर / कभी एक दिन/कोई आएगा/पांवों के निशान तलाशते/अंडमान के/इस सुंदर द्वीप-समूह में/अपनी उम्मीदों सा/हरा संमदर लेकर।
मूलतः प्रेम रचने वाली कवयित्री रश्मि शर्मा अपने गहन रचनात्मक संसार में ख़ामोशी , दुःख और आंसुओं भरी गूंज से , प्रेम के तत्व को बेसाख्ता खिले पलाश की स्वप्निल सी अनुगूँज में अपने शब्द कौशल से परिवर्तित कर देती हैं। “अँगारमणिका”बोलता है मुझे, पलाश वन” में वो लिखती हैं मुक्ताकाश के नीचे/ थक कर अँखियाँ मींचे/जोगिया पलाश तले/अंगारमणि अधरों को भींचे/किस की राह देख रही हो/अँगारमणिका.......
पुरुष के साथ जी गई यंत्रणा के बहाने बुनी गई कुछ कविताओं में रश्मि शर्मा नारी मन के उद्धवेलन को भी साधिकार उद्घोषित करती हैं “ तुम कौन हो / इतनी जगह घेरे हुए / कि, किसी और के लिए जगह ही नहीं बाकी / तनिक सरको ....
साहित्य जगत में पैर पसारते बाजारवाद और उपभोक्ता वाद के खिलाफ कवयित्री के शब्द एक आशा जगाते हैं और अपने शब्दों में वह सीधे सीधे इस जकड़न को चुनौती देती दिखाई पड़ती हैं ”अब सवाल /क्षुधा तृप्ति के लिए /दो मुठ्ठी चावल के जुगाड़ का नहीं रहा / न ही , आँखों के नीचे / काले गहराते / सौन्दर्य हीन बनाते /घेरों को हटाने का है /अब सवाल है / स्व की पहचान का / निरंतर कुचलते आत्म-सम्मान का .
' मन हुआ पलाश ' की कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे सुबह की कुनकुनी धूप में ठंडी हवाओं को महसूसते हुए किसी समन्दर के तट से गुजरा जाए,बालू पर पैरों के अंगूठे से कोई नाम लिख दिया जाए और नि:शब्द खड़े होकर देखते रहा जाए कि कैसे पानी की लहरें उस नाम को अपने साथ बहा ले जाती हैं ।
प्रस्तुत संग्रह कवयित्री के परिष्कृत और संस्कारिक मन की निश्छल अभिव्यक्ति होने के साथ साथ जीवन की अनेक विडम्बनाओं को रेखांकित करते हुए भी प्रेम प्रतीति को एक सहज , सरल रूप में अभिव्यक्त करता है , जिनमें बार बार मन के पलाश की तलाश अपने सम्पूर्ण सौन्दर्य के साथ किनारों पर बह रही नदी सरीखी छलक छलक पड़ती है-“उम्र की नदी / जब वक़्त के हाथ से /खुद को आजाद करती है / तो ,अबोध बच्चे सी मचलती है / चाँद पाने की वो ही / पुरानी जिद करती है।
डॉ.लक्ष्मी कान्त शर्मा
सम्प्रति :- अध्यक्ष
वनस्पति-शास्त्र विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविधालय
राजगढ़ (राज.)
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