गीत भावाभिव्यक्ति के सबसे सक्षम और सशक्त माध्यम रहे हैं । भक्तिकाल में गीत सूर ,तुलसी मीरा विद्यापति आदि भक्त और अष्टछाप कवियों के माध्यम से मुखरित हुआ । रीतिकाल में कामिनी का हृदयोल्लास बन कर बिखरा ।छायावाद काव्य विमर्श के कई अंगो का दृष्टा बना जिसमे भाव प्रवणता , अभिव्यंजना,संगीतात्मकता, आदि लक्षण प्रमुख थे । प्रयोगवाद ने गीतों को एक नयी दिशा दी परन्तु एक टकराव गीत और नए प्रयोगवाद में तब पैदा हुआ जब आधुनिक बोध और अभिव्यक्ति के लिहाज से गीत की विषय वस्तु को अनुपयुक्त घोषित कर दिया गया । इस विधागत टकराव के कारण नवगीत का जन्म हुआ
बँटवारा कर दो ठाकुर।
तन मालिक का धन सरकारी
मेरे हिस्से परमेसुर।
शहर धुएँ के नाम चढ़ाओ
सड़कें दे दो
झंडों को
पर्वत कूटनीति को अर्पित
तीरथ दे दो
पंडों को।
खीर खांड ख़ैराती खाते
हमको गौमाता के खुर
सब छुट्टी के दिन साहब के
सब उपास
चपरासी के
उसमें पदक कुँअर जू के हैं
खून पसीने
घासी के
अजर अमर श्रीमान उठा लें
हमको छोड़े क्षण भंगुर
समकालीन समाज में व्याप्त बहुमुखी विडम्बनाओं, विरूपता
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आदरणीया सीमा जी आपका लेख बहुत उपयोगी है। इसे पूर्व में भी पढ़ा था जिससे नवगीत विधा को लेकर मेरी कुछ समझ विकसित हुई थी। आज फिर से इसे पढ़ा सभी टिप्पणियों के साथ बहुत सी चीजें साफ हुईं।
आपका आभार कि एक नई विधा को सीखने में आपने मेरा मार्ग प्रशस्त किया।
सादर!
आदरणीया सीमा जी , क्या मात्रा विधान का पालन करना जरूरी है ?, अगर है तो कैसे किया जाना चाहिये ? कृपिया स्पष्ट करें !!
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